शनिवार, 31 मार्च 2018

आज फिर जीने की तमन्ना है-झंखना प्रजापति

ये कहानी मेरे बहुत ही परिचित और निकटतम परिवार की सच्चाई है। 
प्रकाशभाई और स्मिताबेन एक आम भारतीय पतिपत्नी की तरह एक दूसरे के लिए जीते थे। स्मिताबेन एक कुशल गृहिणी थी और प्रकाशभाई का ऑटो पार्ट्स का बड़ा कारोबार था। दोनों ही जन्म से गुजराती थे पर प्रकाशभाई के बिज़नेस की वजह से दिल्ली में रहते थे। उनके दो बच्चे थे, निष्ठा और अक्षित। अक्षित बड़ा था, इंजीनियरिंग करके ऑस्ट्रेलिया में जॉब करता था। निष्ठा दिल्ली में ही इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में थी। 
आशुतोष जी प्रकाशभाई के अच्छे दोस्त थे। कम्युनिटी के फंक्शन में अकसर दोनों मिलते रहते थे। पेशे से आशुतोष जी डॉक्टर थे और उनकी पत्नी विनीता भी स्मिताबेन की अच्छी सहेली थी। उनका एक बेटा था, विशाल...जो कि बैंगलोर में डेन्सटिस्ट की पढ़ाई कर रहा था।
निष्ठा, अक्षित और विशाल तीनों साथ ही अपने पेरेंट्स की वजह से दोस्त थे। हालांकि पढ़ाई की वजह से उनका मिलना मिलाना बहोत ही कम होता था। उस में भी अक्षित के ऑस्ट्रेलिया जाने के बाद निष्ठा बहोत अकेली पड़ गई थी। ऐसे में सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसे विशाल मिला। पहले से ही एक दूसरे को जानते तो थे ही। दोनों में बातें होने लगी। दोस्ती धीरे धीरे प्यार में तबदील हुई।
विशाल और निष्ठा दोनों ने ही अपने पेरेंट्स को बताया। उनके माता पिता को तो कोई दिक्कत थी ही नहीं इस रिश्ते से। प्रकाशभाई ने रिश्ता तो तय कर दिया पर अक्षित के भारत आने के बाद ही सगाई और शादी साथ ही करने के लिए कहा। आशुतोष जी को भी इस बात से कोई एतराज़ नहीं था। वैसे भी विशाल का पोस्ट ग्रेजुएशन का फाइनल यर चल रहा था।
विशाल बंगलोर में था पर निष्ठा विशाल के परिवार के साथ अच्छे से घुलमिल गई थी। विनीता जी को घर में मदद कर देती। हालांकि सिमताबेन को निष्ठा का शादी से पहले विशाल के घर पर आना जाना अच्छा नहीं लगता था। पर आजकल के बच्चे किसी की सुनते कहाँ है? उन्होंने प्रकाशभाई से भी इस बारे में बात की, पर प्रकाशभाई ने उन्हें समझाया कि आजकल शादी से पहले ससुराल में आनाजाना बहोत ही आम बात है। वैसे तो स्मिताबेन भी काफी आधुनिक और खुले विचारों की थी पर फिर भी उन्हें कुछ बातें अपने दायरे में ही अच्छी लगती थी।
निष्ठा की विशाल से लगातार बात होती रहती। विशाल निष्ठा को बताता की वो कभी कभार हॉस्पिटल भी जाया करे, पाप यानी कि आशुतोषजी की मदद के लिए। निष्ठा ग्रेजुएशन के बाद वैसे भी फ्री थी और शादी से पहले कोई जॉब जॉइन करना नहीं चाहती थी, तो उसने आशुतोषजी के हॉस्पिटल जाना शुरू किया। दिन का काफी वक़्त वो अपने होनेवाले ससुराल में ही रहती।
अक्षित को आने में अभी 6 महीने थे इसलिए प्रकाशभाई ने शादी की तैयारियां शुरू कर दी। सबसे पहले निष्ठा के कपड़ो से शुरुआत हुई। निष्ठा ने अपनी होनेवाली सास विनिताजी को ये बात ऐसे ही बताई की कल हम शादी की शॉपिंग के लिए जानेवाले हैं। विनिताजी ने निष्ठा से कहा कि "मैं भी साथ चलूंगी। हमें भी तो तुम्हारे लिए खरीदारी करनी होगी।"
निष्ठा ने घर आकर ये बात स्मिताबेन को बताई। उन्हें ये ठीक नहीं लगा कि बेटी की सास को लेकर शादी की खरीदारी पर जाना। पर उन्होंने ने सोचा पहेली बार में ही मना करेंगे तो बात बेकार में बिगड़ जाएगी। और कौनसा एक दिन में सब जो जाएगा!!! अगली बार थोड़े ना साथ जाएंगे। 
दूसरे दिन स्मिताबेन, निष्ठा और प्रकाशभाई विनिताजी को लेकर शॉपिंग के लिए गए। स्मिताबेन ने साड़ियां निकलवाई। जैसे ही कोई साड़ी स्मिताबेन को पसंद आती विनिताजी तुरंत ही कुछ ना कुछ कमी निकालकर रिजेक्ट कर देती। 4 दुकानें और 5 घंटे बिताने के बाद सिर्फ 2 साड़ियां लेकर सब वापस आये। उसमें विनिताजी ने अपनी तरफ से लेनेवाली साड़ियों का तो जिक्र भी नहीं किया। स्मिताबेन को ये बात बहोत ही खटक रही थी कि निष्ठा की शॉपिंग में विनिताजी की क्या ज़रूरत और उसमें भी आज उन्होंने जो किया उससे तो उन्हें और गुस्सा आया। पर अगली बार का सोचकर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा।
नेक्स्ट टाइम जब शॉपिंग का प्लान बना तो निष्ठा ने वैसे ही अपनी सास को बताया। इस बार भी विनिताजी निष्ठा से कहलवाकर साथ आई। ना चाहते हुए भी निष्ठा की ज़िद की वज़ह से स्मिताबेन मना नहीं कर पाई। इस बार भी विनीत जी ने अपनी पसंद की महंगी महंगी साड़ियां स्मिताबेन से ख़रीदवाई। इस बार निष्ठा को भी थोड़ा अजीब लगा पर वो कुछ नहीं बोली।
शाम को ये बात उसने विशाल को बताई। विशाल ने भी अपनी माँ का पक्ष लेते हुए कहा " अब देखो निष्ठा शादी के बाद तुम्हें हमारे घर के हिसाब से कपड़े पहनने होंगे। तो इसीलिए शायद मम्मी तुम्हें साथ रहकर शॉपिंग करवा रही है।" निष्ठा कुछ बोल नहीं पाई। 
एक दिन आशुतोषजी और विनिताजी आकर शादी में देनेवाले गिफ्ट्स की लिस्ट दे गए। काफी लंबी लिस्ट थी। स्मिताबेन ने प्रकाशभाई से कहा " कितने सारे गिफ्ट्स लिखे हैं.. वैसे तो कहते थे हमें तो सिर्फ निष्ठा ही चाहिए। पर अब देखो कुछ भी छोड़ा नहीं है" प्रकाशभाई ने ये कहते हुए स्मिताबेन को समझाया कि "वैसे भी हमारी एक ही बेटी है। उसे नहीं देंगे तो किसे देंगे।" 
जैसे जैसे शादी का दिन नज़दीक आ रहा था विनीत जी की बारातियों की लिस्ट और गिफ्ट्स की लिस्ट लंबी ही होती जा रही थी। शादी का वेन्यू भी उन्होंने अपने हिसाब से रखवाया। निष्ठा के ससुरालवालों रिवाज़ के तौर पर दी जानेवाली साड़ियां भी विनिताजी ने मेंहगी मेंहगी और अपने हिसाब से सिमताबेन से ख़रीदवाई। 3 महीनों में एक भी बार प्रकाशभाई और स्मिताबेन को निष्ठा के ससुराल वालों ने नहीं बुलाया था पर वो हफ्ते में एक बार ज़रूर आ धमकते। और जब भी आते ये जताना नहीं चूकते की वो लड़केवाले हैं।
स्मिताबेन को ये सब देख अपनी बेटी का भविष्य लालची लोगों के हाथों में जाता दिखाई दे रहा था। उन्होंने निष्ठा को ये सब समझाने की कोशिश की पर वो विशाल के प्यार में इतनी पागल या कहो कि अंधी हो चुकी थी कि उसे ना अपना आनेवाला कल दिखाई दे रहा था ना ही अपनी माँ की आज की तकलीफ। स्मिताबेन अनजाने में ही डिप्रेशन का शिकार होती जा रही थी।
अक्षित निष्ठा के शादी के 2 महीनें पहले ही इंडिया आ गया था। प्रकाशभाई और स्मिताबेन का विचार था कि निष्ठा की शादी के साथ साथ लगे हाथ अक्षित की भी सगाई हो जाये। लड़की देखने के लिए प्रकाशभाई पूरे परिवार के साथ अहमदाबाद आये। 4-5 परिवारों से मिलने के बाद अक्षित को निशा पसंद आई। पर निशा के परिवारवालों की शर्त थी कि पहले वो दिल्ली जाकर प्रकाशभाई का घर परिवार देखेंगे, उन्हें ठीक लगा तो ही रिश्ते के लिए हाँ कहेंगे। क्योंकि उन्हें इतनी दूर अपनी बेटी ब्याहनी है तो उसके परिवार के बारे में जानना अति आवश्यक है। प्रकाशभाई ने खुशी खुशी ये बात मंजूर की।
एक हफ्ते बाद निशा अपने मम्मी पापा के साथ दिल्ली आयी और प्रकाशभाई क आग्रह की वजह से वो उनके घर ही एक हफ्ते के लिए रुके। निष्ठा ये सब देख रही थी की कैसे निशा के पेरेंट्स बेटी के होनेवाले ससुराल में रह रहे हैं। कैसे उसके प्रकाशभाई और स्मिताबेन निशा के पेरेंट्स को इज़्ज़त दे रहे थे। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि लड़की के माँ बाप को भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए जितना कि लड़के के माँ बाप को। उसे अपनी माँ की कही एक एक बात याद आ रही थी। उसे अब एहसास हुआ कि विनिताजी और विशाल की तानाशाही वो और उसका परिवार इतने महीनों से बर्दाश्त कर रहे थे, पर वो ही विशाल के प्यार में अंधी होकर कुंए में गिरने जा रही थी।
निशा के पेरेंट्स को अक्षित और प्रकाशभाई का परिवार दोनों ही अच्छे लगे। रिश्ते के लिए हाँ बोलकर, शादी में आने का वादा कर वो अहमदाबाद वापस लौट गए। 
निष्ठा ने उसी शाम अपने पापा से रिश्ते के लिए मना कर देने को कहा। शादी में सिर्फ महीना बचा था, कार्ड्स बंट चुके थे और बाकी सारी तैयारियां हो चुकी थी। फिर भी देर आये दुरस्त आये देखकर प्रकाशभाई ने विशाल के परिवार को शादी के लिए ना बोल दिया। स्मिताबेन को लगा दिल से सबसे बड़ा बोझ एक झटके में उतर गया। विशाल ने निष्ठा को मनाने के बहोत प्रयन्त किये पर अब उसकी आँखों से वो अंधकार के घने बादल हट चुके थे और आनेवाला कल नई रौशनी लिए खड़ा था।
अक्षित सगाई करके ऑस्ट्रेलिया वापस चला गया और निष्ठा ने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए पढ़ाई शुरू की। पढ़ाई के दौरान ही उसे अभिषेक दोस्त के रूप में मिला। फाइनल प्लेसमेंट हो जाने के बाद निष्ठा ने प्रकाशभाई और स्मिताबेन को अभिषेक के बारे में बताया। इस बार प्रकाशभाई ने अभिषेक के पेरेंट्स को पहले से ही बता दिया कि वो शादी अपने हिसाब से करेंगे और सारे रीति रिवाज़ लेनदेन भी अपने हिसाब से ही करेंगे। अभिषेक के परिवार को भी उसमें कोई आपत्ति नहीं थी। 
विशाल स छुटकारा पाने के ढाई साल बाद निष्ठा की शादी बड़े ही धामधुम से अभिषेक के साथ हुई। प्रकाशभाई और सिमताबेन भी उसे दामाद के रूप में पयकर खुश है। आज निष्ठा और अभिषेक पुणे में अपने कैरियर के साथ सुखी दाम्पत्यजीवन बिता रहे हैं।
सारांश :- 
कोई भी रिश्ता जिंदगी में आखरी नहीं होता और प्यार सिर्फ एक बार नहीं होता। अपने आप को दूसरा मौका दीजिये। 

लड़कियों के लिए खास ऐसे लालची लोगों को पहचानिए और बेकार में ही शादी के नाम पर पेरेंट्स से बेशुमार खर्चे ना करवाएं। समय रहते उससे बाहर निकल जाये।

पेरेंट्स के लिए भी लोग क्या कहेंगे उसकी परवाह किये बिना अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचे। आज दुनिया के डर से रिश्ते में बंध भी गए तो कल को कोई मुसीबत आयी तो दुनियावाले बचाने नहीं आएंगे। इसलिए अपने बच्चों का साथ दीजिये। जिंदगी के आखरी वक़्त तक वही आपके साथ रहेंगे फिर चाहे वो बेटा हो या बेटी।

कैसी लगी मेरी ये रचना उस विषय में अपने प्रतिभाव हमसे ज़रूर बांटिए।





आईना- भारत


बे - मौसम वो बारिश का सबब बनाते हैं l
हिज़ाब में चाँद छुपाके धूप में निकल जाते है ||

तबस्सुम होठों को छूके निकल जाती है |
वो बेवजह खुद को साजिंदा दिखाते है ||

तल्खियां -इ- इश्क की अब परवाह नहीं |
हवाओं के झोकें भी नश्तर चुभाते है ||

उन्हें आदत नहीं प्यार जताने की |
हम तग़ाफ़ुल के डर से छुपाते है ||

जो प्यार की चाह में दर दर चकते रहे  |
वो आज हमें नमक का स्वाद बताते है ||

मोहब्बत का असर उनके चेहरे पे दिखता है |
वो आईने के सामने खुद से छुपाते है ||






#http://bharatiyengar.blogspot.in


'me too' (मैं भी)-खयालात- सदन झा


आजकल वैश्विक स्तर पर 'me too' (मैं भी) अभियान चल रहा है। लड़कियां, महिलाएं, यौन अल्पसंख्यक तथा यौनउत्पीड़ित पुरुष हर कोई अपने साथ हुई यौन हिंसा को बेबाकी से, सार्वजनिक रुप में दर्ज कर रहे हैं। अपने ऊपर हुए हिंसा की स्वीकृति दरअसल एक सार्वभौमिक समुदाय का रुप अख्तियार कर रहा है।
अन्य प्रगतिशील कदमों की ही तरह यह पहल भी स्त्रियों की तरफ से ही आया है। परन्तु जैसा कि इस मुहिम में शामिल लिख भी रहे हैं कि यौन हिंसा के शिकार स्त्री पुरुष दोनो ही हुआ करते हैं। ऐसे में एक बेहतर और सुरक्षित समाज के निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि हमारा लिंग चाहे जो भी हो, हमारी इच्छाओं का रंग जो भी, हम चाहे जिस सामाजिक पायदान पर हो और जिस किसी भौगोलिक धरातल पर खड़े हों वहीं से इस मुहिम में शामिल हों।
इस मुहिम का हिस्सा बनने से अपने ऊपर हुई हिंसा की आत्म स्वीकृति से इतना तो तय है कि हममें उस हिंसा से उपजे डर का सामना करने की हिम्मत जगती है। चुपचाप सहते जाने से जो अंधकार का माहौल बनता है वह टूटता है।हम दुनिया के साथ अपने आत्म को यह संदेश देते हैं कि हमारे साथ जो हुआ वह गलत तो था ही पर, साथ ही वहीं उस लम्हे जिंदगी खत्म नहीं हो जाती। कि हम वहीं अटक कर, थमकर नहीं रह गये। कि हमारे यौन हत्यारे हमारी हत्या करने की तमाम घिनौनी करतुतों के बाद भी हमारे वजूद को नेस्तनाबूत करने में नाकामयाब रहे। कि उनके तमाम मंशाओं को मटियामेट करता मेरा देह और मेरा मन मेरा ही है। इस आत्म अभियक्ति और मुहिम का हिस्सा बनने से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि हमारा चेतन भविष्य में दूसरे के प्रति यौन हिंसा का पाप करने से हमें रोके।
जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा 'मी टू' हमें अपनी जिंदगी के अंधकार का सामना करने में मदद करता है। हम उन शक्तियों के खिलाफ एकजूट होते हैं जो इस अंधेरे का निर्माण करते हैं। जो अंधकार को संजोये रखना चाहते। ये अंधेरे के पुजारी हमारे चारो तरफ पसरे होते हैं। इनकी शक्तियां कुछ कदर संक्रामक हुआ करती है कि हमें पता भी नहीं चलता और कि कब यह हिंसा हमारे भीतर उग आता है। हम शोषित से शोषक हो जाते हैं। इस कायांतरण से बचने के लिये भी 'मी टू' मददगार हो सकता है।
आजकल हम भारत में दीपों का उत्सब मना रहे हैं। तमसो मा ज्योर्तिगमय कहते हमारी जिह्वा कभी थकती नहीं। पर, क्या हमें अहसास है कि ऐसे त्योहारों और खुशियों के मौके पर कितने ही हिंसक पशु अपने शिकार की तलाश में जुगत लगाये रहते हैं? हमें देह, नेह और गेह को इनसे सुरक्षित रखने की जरुरत है। इस दीपाबली और उसके परे भी हमें अपने अंदर उग आये अंधकार का प्रतिकार करने की जरुरत है।
यह दुखद है कि जहां वैश्विक स्तर पर इतना कुछ हो रहा है हिंदी जगत और मीडिया की दुनिया इसको तबज्जो नहीं दे रहा। पर, हम औरों की परबाह करे क्यों? वहां जो अंधकार के पुजारियों का कब्जा है उनसे उम्मीद भी कितनी रखें? हम खुद ही तो सक्षम हैं यह कहने को कि 'मी टू'।

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

हमारे सिम्बाजी- फलसफे- पूनम मिश्रा



इस महीने हमने एक विशिष्ट जन्मदिन मनाया। हमारा  सिम्बा दस  साल का हो गया । वो फर का गोला अब बूढा हो चला। कुत्तों के लिहाज़ से दस  साल वृद्धावस्था है। खास कर उस जैसे बड़ी कद काठी वाली नस्ल के लिए जिनकी उम्र कम ही होती है।अब उसकी हरकतों में भी बुढ़ापा झलकता है। रात में कराहता है। कई कई बार उठता है। वो हमारे ही कमरे में सोता है और मैं महसूस करती हूँ कि वह बहुत चहलकदमी कर रहा है। कई बार मेरे सिरहाने अपना मुंह रख देता है। मनुष्यों की तरह ही हर कुत्ते की अपनी अलग आदतें और व्यक्तित्व होता है। सिम्बा कभी बिस्तर पर सोना नहीं चाहता। उसका अपना एक गद्दा है और अगर रात में वह नहीं बिछा है तो वह दरवाज़े पर खड़ा होकर या तो इंतज़ार करेगा या फिर शिकायत भरी दृष्टि से हमें देखेगा। उसको लोगों के साथ रहना अच्छा तो लगता है पर अपना एकांत भी प्यारा है। लिहाज़ा वह कुछ देर पास बैठने के बाद या फिर प्यार दिखाने के बाद  दूर चला जाता है। यही हाल होता है जब घर में मेहमान आये हों। हम अगर उसे घर आने वाले हर आगंतुक से न मिलवाएं तो वह नाराज़ हो जाता है। इसमें परेशानी यह होती कि है हर मेहमान सिम्बा की नज़दीकी से सहज नहीं होता। जबकि वह है कि  सिर्फ सूंघ कर सबसे जान पहचान कर एक किनारे बैठ जाता है। वह सेंट बर्नार्ड है जो देखने में भारी भरकम होते हैं पर दिल के बहुत कोमल। उसे देखकर लोग डर जाते हैं। पर उस सफ़ेद और काले बाल वाले भीमकाय शरीर में धड़कता दिल बहुत प्यारा है। उस प्यार का इज़हार भी पल पल  में करता रहता है। आप कहीं भी बैठे  हों अचानक  आपकी गोद में एक गुदगुदी सी होगी। धीरे से एक नाक ,फिर एक सिर आपकी गोद में आएगा और फिर पूरा शरीर उसमें बैठने की कोशिश कर रहा होगा। सोचिये एक ५५-६० किलो का वजन किसी भी तरह उसमें समाने की कोशिश कर रहा हो।  अगर आप उसे सहलाते नहीं तो वह पंजा मारकर आपको अपने होने का एहसास दिलाएगा । यह स्नेह खाना खाने के बाद और भी मुखर हो जाता है। अभी तो वह सिर्फ गोद में सिर रख देता है या पास आ कर सटता जाता है। पर एक साल पहले तक वह अपनी गीली दाढी लिए ऊपर ही चढ़ जाता था। और दो पैरों पर खड़ा सिम्बा हम से लम्बा ही है। वह उछल कर हमारे कन्धों पर अपने आगे के दोनों पैर टिका देता और चाहता कि हम उस सहलाएं या गले लगाएं । हम सब सावधान रहते हैं उसे प्यार वाले मूड देखते थे तो जाते  या तो ज़मीन पर पैर जमा देते। नहीं तो गिरना पक्का था।
     मुझे याद आ रहा है। वह तीन महीने का था जब  हमारे पास आया था। उस समय परिस्थितयां ऐसी विषम हीं कि मैं उसे घर में लाने के निर्णय से बिलकुल  सहमत  नहीं थी और नाराज़ भी। पर कुछ ही महीनों में  वह  झबरीले  पिल्ला  दिल में आकर बैठ गया। वह  इस बात से ज़रा भी निरूत्साहित  नहीं था कि मैं उससे रूखा व्यवहार कर रही हूँ।  वह पूंछ हिलाते प्यार के लिए पहुँच ही जाता। तब से  वह परिवार का सदस्य है और अपने को हमसे अलग नहीं मानता। वह  हमारी हर गतिविधि में शामिल होता है। अगर बाहर जा रहे हों तो पहले कार के पास खड़ा हो जाता है। यह मुमकिन नहीं कि उसे हर जगह ले जाया जाए पर उसे घर छोड़ते हुए जितनी निराशा उसे होती उससे कहीँ अधिक दुःख हम सबको। खासकर जब हमें कहीं शहर से बाहर जाना होता है । उस तक यह बात पहुँचाना असंभव है की हम अमुक दिन वापस आएंगे। वह भी  मुँह लटकाकर बैठ जाता है और  उसकी पूँछ  पैरों के बीच छुप जाती है। अगर उसने कहीं सूटकेस देख लिया तो उसकी बैचैनी का कोई अंत नहीं।  वह उसी के पास बैठा या लेटा रहेगा। वैसे अगर घर में किसी की तबीयत खराब होती है तो भी वह उस सदस्य के पास से  नहीं हटता है। 
   सेंत बर्नार्ड नस्ल के कुत्ते स्विट्ज़रलैंड में पाये जाते हैं और उनके बारे में मशहूर है कि वह पहाड़ों में बर्फ में दबे लोगों को खोजने में बहुत मदद करते थे।इनकी सूंघने की शक्ति बहुत विक्सित है और यह बर्फ में बहुत नीचे दबे लोगों का भी सूंघ कर पता लगा सकते हैं। एक से डेढ़ फुट ऊंचा,लंबे बालों वाला ,शक्तिशाली और वजनदार  यह कुत्ता बहुत ही नरम,वफ़ादार और दोस्ताना मिजाज़ का होता है। इसके बाल काले और सफ़ेद होते हैं या फिर भूरे और सफ़ेद होते हैं। हमारा सिम्बा काला और सफ़ेद है। उसे देख कर लगता कि वह अपना कम्बल साथ ले कर चल रहा हो। उसकी दुम काफी घनी और दमदार है और अगर सिम्बा ने खुशी से पूंछ घुमाई तो समझ लीजिये कि आसपास रखी चीज़ें तो ज़रूर टूटेंगी। 
    एक बड़ी दिलचस्प बात यह भी है कि उसे भुट्टे खाने का बड़ा शौक है। वह बड़े चाव से खाता है और अगर हम भुट्टा खा रहे हैं तो वह घर में वह कहीं भी है ,दौड़ा चला आएगा। इसलिए जब भी भुट्टा आता है उसके लिए अलग से एक आता है। वैसे वह दूध रोटी  ,दही,पनीर का पानी और मटन पसंद करता है। उसकी एक अच्छी आदत है  कि वह बड़े ही अनुशासित तरीके से अपने नियत समय , खाने वाली जगह पर ही खाना खाता है। सवेरे छह बजते ही वह अपनी नाक मेरे मुंह के पास सटा देता है। हमारा मॉर्निंग अलार्म वह ही है। चलो मुझे बाहर निकालो , घुमाओ और मेरा खाना दो। 
   हमें लगता है कि हमारी दिनचर्या उसी के इर्द गिर्द घूमती है। थोड़ी देर के लिए  दिखाई न पड़े तो उसकी खोज शुरू हो जाती है। सब लोग ऑफिस से लौटने पर सबसे पहले उसको सहलाते हैं नहीं तो वह अपने भौंकने के अंदाज़ से नाराज़गी जता देता है। कोई कितना भी  परेशान हो ,परिवार के इस सदस्य का दुलार हर पीड़ा को हल्का कर देता है। प्यार भी बिलकुल अथाह और बेशर्त। वह बूढा होने पर भी बच्चा है ,हमारी भाषा न बोल पाने के बावजूद सर्वाधिक अभिव्यंजक है और सच तो यह है कि उसके बिना सब कुछ अधूरा लगता है।
     

दरख्ताें के भीतर भी छिपा है प्रेम- मीडिया डाक्टर- डा. प्रवीण चाेपड़ा



किसी भी जगह जाऊं तो वहां का पुराना शहर, पुराने घर और उन की घिस चुकीं ईंटें, वहां रहने वाले बुज़ुर्ग बाशिंदे जिन की चेहरों की सिलवटों में पता नहीं क्या क्या दबा पड़ा होता है और इस सब से साथ साथ उस शहर के बड़े-बड़े पुराने दरख्त मुझे बहुत रोमांचित करते हैं।
आज दरख्तों की बात करते हैं...पंजाब हरियाणा में जहां मैंने बहुत अरसा गुज़ारा...वहां मैंने दरख्तों के साथ इतना लगाव देखा नहीं या यूं कह लें कि पेड़ों को सुरक्षित रखने वाला ढांचा ही ढुलमुल रहा होगा ..शायद मैंने वहां की शहरी ज़िंदगी ही देखी है..गांवों में शायद दरख्तों से मुहब्बत करते हों ज़्यादा... पता नहीं मेरी याद में तो बस यही है कि जैसे ही सर्दियां शुरू होती हैं वहां, बस वहां पर लोग पेड़ों को छंटवाने के नाम पर कटवाने का बहाना ढूंढते हैं..

मुझे बचपन की यह भी बात याद है कि दिसंबर जनवरी के महीनों में अमृतसर में हातो आ जाते थे (कश्मीरी मजदूरों को हातो कहते थे वहां ...जो कश्मीर में बर्फबारी के कारण मैदानों में आ जाते थे दो चार महीनों के लिए काम की तलाश में)...वे पेड़ों पर चढ़ते, कुल्हाड़ी से पेड़ों को काटते-छांटते और और फिर उस लकड़ी के छोटे छोटे टुकडे कर के चले जाते ...इन्हें जलाओ और सर्दी भगाओ....इस काम के लिए वे पंद्रह-बीस-तीस रूपये लेते थे .. यह आज से ४०-४५ साल पहले की बात है।

हां, तो बात हो रही थी दरख्तों की ....मैं तो जब भी किसी रास्ते से गुज़रता हूं तो बड़े बडे़ दरख्तों को अपने मोबाइल में कैद करते निकलता हूं और अगर वे पेड़ रास्तों में हैं तो उस जगह की सरकारों की पीढ़ियों को मन ही मन दाद देता हूं कि पचास-सौ साल से यह पेड़ यहां टिका रहा, अद्भुत बात है, प्रशंसनीय है ...वह बात और है कि इस में पेड़ प्रेमियों के समूहों का भी बड़ा योगदान होता है...वे सब भी तारीफ़ के काबिल हैं...
हम लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ...कल मैंने एक स्क्रैप की दुकान के बाहर एक बढ़िया सा फ्रेम पडा़ देखा...बिकाऊ लिखा हुआ था ... खास बात यह थी कि इस फ्रेम में एक बुज़ुर्ग मोहतरमा की तस्वीर भी लगी हुई थी .. पुराने फ्रेम को बेचने के चक्कर में उन्होंने उस बुज़ुर्ग की तस्वीर निकाल लेना भी ज़रूरी नहीं समझा...होगी किसी की दादी, परदादी , नानी तो होगी..लेकिन गई तो गई ...अब कौन उन बेकार की यादों को सहेजने के बेकार के चक्कर में पड़े..
ऐसे माहौल में जब मैं घरों के अंदर घने, छायादार दरख्त लगे देखता हूं तो मैं यही सोचता हूं कि इसे तो भई कईं पीढ़ियों ने पलोसा होगा... चलिए, बाप ने लगाया तो बेटे तक ने उस को संभाल लिया..लेकिन कईं पेड़ ऐसे होते हैं जिन्हें देखते ही लगता है कि इन्हें तो तीसरी, चौथी और इस से आगे की पीढ़ी भी पलोस रही है ....मन गदगद हो जाता है ऐसे दरख्तों को देख कर ...ऐसे लगता है जैसे उन के बुज़ुर्ग ही खड़े हों उस दरख्त के रूप में ...

मैं जब छोटा सा था तो मुझे अच्छे से याद है मेरे पापा मुझे वह किस्सा सुनाया करते थे ...कि एक बुज़ुर्ग अपने बाग में आम का पेड़ लगा रहा था, किसी आते जाते राहगीर ने ऐसे ही मसखरी की ...अमां, यह इतने सालों बाद तो फल देगा... तुम इस के फल खाने तक जिंदा भी रहोगे, ऐसा यकीं है तुम्हें?

उस बुज़ुर्ग ने जवाब दिया....बेटा, मैं नहीं रहूंगा तो क्या हुआ, मेरे बच्चे, बच्चों के बच्चे तो चखेंगे ये मीठे आम!

मुमकिन है यह बात आप ने भी कईं बार सुनी होगी..लेकिन जब हम लोग अपने मां-बाप से इस तरह की बातें बचपन में सुनते हैं तो वे हमारे ऊपर अमिट छाप छोड़ जाती हैं...

यही विचार आ रहा है कि हम लोग अाज के बच्चों को पेड़ों से मोहब्बत करना सिखाएं....दिखावा नहीं, असली मोहब्बत ...दिखावा तो आपने बहुत बार देखा होगा ..


एक दिखावे की तस्वीर दिखाएं ... इसे अन्यथा न लें (ले भी लें तो ले लें, क्या फ़र्क पड़ता है!😀) शायद ऐसा होता ही न हो, एक लेखक की कल्पना की उड़ान ही हो...जैसा भी आप समझें, एक बार सुनिए ...जी हां, फलां फलां दिन पेड़ लगाए जायेंगे। जब पेड़ लगाने कुछ हस्तियां आती हैं.. उन के साथ उन का पूरा स्टॉफ, पूरे ताम-झाम के साथ, किसी ने पानी की मशक थामी होती है, किसी ने उन के नाम की तख्ती, किसी ने डेटोल लिक्विड सोप, किसी ने तौलिया ...और ऊपर से फोटो पे फोटो ...अगले दिन अखबार के पेज तीन पर छापने के लिए....अब मेरा प्रश्न यह है कि वे पेड जो ये लोग लगा कर जाते हैं वे कितने दिन तक वहां टिके रहते हैं...कभी इस बात को नोटिस करिएगा....

यह तो हो गई औपचारिकता....और दूसरी तरफ़ एक बच्चा घर से ही सीख रहा है ...कि कैसे पौधे को रोपा जाता है, कैसे उसे पानी दिया जाता है, कितना पानी चाहिए, खाद की क्या अहमियत है .. और ऐसी बहुत सी बातें ...

बात लंबी हो रही है, बस यही बंद कर रहा हूं इस मशविरे के साथ कि ....We all need to celebrate trees!! दरख्त हमारे पक्के जिगरी दोस्त हैं, इन के साथ मिल कर जश्न मनाते रहिए, मुस्कुराते रहिेए...

गुरुवार, 29 मार्च 2018

मेरे मन के भीतर भी- (यादाें में)- ब्रजेश वर्मा



मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है
दुनियां भर ,को 
छोड़ के ये बस ,एक 
किनारे चलता है

हँसता है 
रोता ,भी है 
कभी-कभी ,गाता भी है
मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है

है थोड़ा-सा ,आलसी 
जुगनू जैसे 
रोशन ,होता है

जितनी चाहिए ,रौशनी 
बस उतना ही 
जगमग होता है


मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है-२

कोयल की कु-कू 

भी सुनता ,शोर 
पपीहे वाले भी

रातों को है ,जागता 
तो दिन को 
सो ,भी लेता है 

मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है-२

क्रोध-ख़ुशी-दुःख भी है 
होता ,सब कुछ 
थोडा-थोडा सा 
कभी-कभी अभिव्यक्ति 
है देता ,सोच-समझ 
के थोडा-सा

मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है-२।

यहाँ ज़माने भर 
के गम भी 
थोड़े-थोड़े पलतें हैं
खुशियों के ,उन्मादों 
संग घुलमिल ,के 
वो रहते है


मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक .सितारा जलता है-२


कभी-कभी ,चंचल 
सा है ,कभी-कभी 
कुछ बूढा सा

मुझ जैसा ,ही है 
मुझसे अलग 
है ,स्वतंत्र मनमौजी-सा

मेरे मन के 
भीतर ,भी हाँ 
एक ,सितारा जलता है
दुनियां भर ,को 
छोड़ के ये बस ,एक 
किनारे चलता है

www.yaadonme.blogspot.in




बुधवार, 28 मार्च 2018

एक माेहब्बत भरा दिल- राहुल हेमराज

एक ताजमहल और बनने को है, और इस बार इसे बनाने वाले हैं 81 वर्षीय रिटायर्ड पोस्टमास्टर साहब श्री फैजुल हसन कादरी। चौंक गए ना आप, पर ऐसा ही है। संयोग तो नहीं होगा कि उनकी महरूम बेगम का नाम भी ताजमुली ही था। खुदा को शायद मालूम रहा होगा कि ये मोहब्बत किसी दिन यूँ परवान चढ़ेगी इसीलिए उनका नाम कुरान के पन्ने पर उस दिन ताजमुली खुला होगा ! 
बेशक ये बन रहा ताजमहल बहुत छोटा है लेकिन इसकी वजह खालिस मोहब्बत है किसी शहंशाह की नुमाईश नहीं। आप ही सोचिए, एक बुजुर्ग का दिल कितना मजबूर रहा होगा जो छोटा ही सही अपनी बीवी की याद में ताजमहल बनाने निकल पड़ा। 
इस दरियादिल इन्सान से बुलन्दशहर का शायद ही कोई बन्दा होगा जो वाकिफ नहीं होगा!

ढाँचा बनने को आया था, एक दिन सुबह की बात है, क्या देखते हैं! स्कूल के हेडमास्टर साहब कुछ परिचितों के साथ दरवाजे पर खड़े हैं। समझ नहीं आया, क्या बात होगी। उन्हें पूरे आदर से अन्दर लाए, बिठाया और पूछने लगे। पर वे सब हिचकिचा रहे थे, 'आप ही कहिए, आप ही कहिए।' आखिर उनमें से एक जो कादरी साहब से थोड़ा ज्यादा सहज था कहने लगा, वो बात यूँ है कादरी साहब कि हम लोग एक लड़कियों की सरकारी स्कूल बनाने में जुटे हैं। बस अब पूरी होने को है कि पैसों की किल्लत आन पड़ी है। बड़ी मुश्किल से इलाके में एक लड़कियों की स्कूल की रजा मिली थी, कहीं ऐसा न हो सारी मेहनत फालतू हो जाए। कई 'बड़े लोगों' को टटोल आए, अब आखिर हार कर आपका दरवाजा खटखटाया है। 

कादरी साहब एक मिनट के लिए तो उलझन में पड़ गए, लेकिन मोहब्बत वाले दिमाग से नहीं दिल से फैसले लेते हैं इसलिए उन्हें ज्यादा वक्त भी नहीं लगता। उन्होंने कहा, मुझसे हो सकेगा जितनी मदद जरूर करूँगा।
और उन्होंने स्कूल के लिए अपनी जमीन का आखिरी टुकड़ा तक बेच दिया। लेकिन 'ताजमहल' रुक चुका था। कोई छह-सात लाख ही तो और चाहिए थे! स्कूल पूरा हुआ तो कादरी साहब फिर जुट गए। सहारा तो अब पेंशन का ही था इसलिए एक-एक पाई जोड़ने लगे। कुछ वक्त बीता और काम एक बार फिर शुरू हुआ। 
अभी चाल ही ठीक से नहीं बनी थी कि उनकी भतीजी की जिन्दगी में ऐसा कुछ हुआ कि कादरी साहब फिर से अपने आप को नहीं रोक पाए। करीब लाख रुपये इकट्ठा हुए थे, वे उन्होंने उसे दे दिए। 

सच्ची प्रेरक कहानियों की तलाश में अक्सर मेरी मुठभेड़ ऐसी ही अद्भुत ख़बरों से हो जाती है। इंशाअल्लाह, ये ताजमहल तो बन कर रहेगा लेकिन इस कहानी ने जो समझने का मौका दिया वो ये कि आखिर एक मोहब्बत भरा दिल होता क्या है?
और जो मैं समझा वो ये कि जो जीवन की हर खूबसूरती पर आ जाए, जो अपने किसी को तकलीफ में न देख पाए, जो दुनिया को और खूबसूरत बनाने की तड़प रखे, जो किसी मुश्किल के सामने लाचार न हो; वही सचमुच एक मोहब्बत भरा दिल है। 
वैलेंटाइन-डे और बसन्त से सही ऐसी किसी कहानी का मौसम क्या होगा लेकिन इन्हें कहना और भी जरुरी हो जाता है जब हम प्यार और मोहब्बत के नाम पर एक-दूसरे से लड़ने में यों लगे हों; फिर चाहे वो हमारा प्यार अपने धर्म, अपने समुदाय से हो या अपनी विचारधारा से हो।
और ज्यादा पढ़ने के लिए क्लिक करें

http://rahulhemraj.blogspot.in

मंगलवार, 27 मार्च 2018

चिट्ठियां- नजर द्विवेदी

पाँवों में लगती रहं बस बेड़ियाँ .
मंज़िलें पाती गयीं बैसाखियाँ ..

चाँद उतरा जा के किसके बाम पर .
हम तो खोले ही रहे ये खिड़कियाँ ..

ख़ून पी कर भी कभी बुझती नहीं .
तिश्नगी कैसी है तेरी कुर्सियाँ ..

हो गया सुल्तान तो कब का शहीद .
राह तकती ही रहीं शहज़ादियाँ ..

ख़्वाब, हसरत, प्यार जब सब ले गये .
क्या करूँगा मैं तुम्हारी चिट्ठियाँ ..

पी के पानी सो गया बूढ़ा किसान .
रोज़ मिलती ही कहाँ हैं रोटियाँ ..

अधजली हमको मिलीं उड़ती हुई ,
हमने तो दफ़्तर में दी थीं अर्ज़ियाँ ..

ये जो मलबा सा तुम्हें आता "नज़र" .
गूँजती थीं कल यहाँ किलकारियाँ ..

तुम सबकी छाया है मुझमें- मेरा पन्ना- रश्मि काला

मुझे याद भी नहीं कि कबसे सुनती आ रही हूँ कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है...ज़ालिम सास और बेचारी बहू की कहानियाँ या इसी का उल्टा भी...औरतों में एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव होता है, जलन होती है, वे दूसरी औरत को ख़ुश, सुंदर या आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकतीं...ये और न जाने क्या क्या...ये कहने वाले पुरुष भी रहे हैं और औरतें भी...पर जाने क्यों मेरे अनुभव ऐसे नहीं रहे...रही इन भावों की बात तो वो तो अलग अलग लोगों पर है इनमें पुरुष भी हो सकते हैं और महिला भी...कोई नासमझ ही होगा जो कहेगा कि पुरुषों में द्वेष या जलन नहीं...परिवारों में उठते कुछ भावों की तमाम वजहें हैं...किसी की दुनिया यदि किसी मर्द के इर्द गिर्द ही बुनी जायेगी तो इसके नतीजे कई तरह से देखने को मिलेंगे ही...ये किसी के औरत होने की वजह से नहीं   
पहले कभी सोचा नहीं पर अब सोचती हूँ तो लगता है मैं तो अपने इर्द गिर्द स्त्रियों से ही घिरी हूँ...जो सहजता, स्नेह, मदद साथ या डाँट मुझे उनसे मिली वो कहीं और नहीं...खुल कर तारीफ़ करना, सलाह देना और ग़लत होने पर टोक भी देना...मुझे नहीं समझ आता कि सालों साल सुनायी जाने वाली कहानियों की वो कौन सी महिलाएं होती हैं...मुझे तो इनका साथ एक बेहतर इन्सान और स्त्री बनाता है...कितनी सहज होती हूँ मैं इनके साथ जैसी पुरुष मित्रों के साथ कभी नहीं होती...उनमें कोई कमी हो ऐसा नहीं लेकिन फिर भी...इन सहेलियों के होने से जीवन सार्थक सा लगने लगता है..और यहाँ दोस्ती में किसी तरह के नियम व शर्तें हैं ही नहीं...फ़ेसबुक पर हुई दोस्ती में ऐसी आत्मीयता होना सोचा ही नहीं जा सकता...मैं और सुदीप्ति जो कभी मिले ही नहीं...अभी कुछ वक़्त पहले ही फ़ोन पर बात हुई वरना फ़ेसबुक ही कड़ी रहा हमारे बीच...उनसे ऐसी आत्मीयता है मानों सालों पुरानी सहेलियां हों...मैं अपनी महिला मित्रों के साथ जैसी उन्मुक्त हो जाती हूँ कहीं और नहीं हो पाती...यहाँ स्त्रीत्व का उत्सव है.   

आजकल जेब में पैसों की जगह वक़्त और दिमाग में शोर की जगह सुकून ने ले रखी है...तो इधर उधर देख, सुन, समझ और पहचान पाती हूँ...और तभी ये भी याद करती हूँ कि आसपास कितनी ही लड़कियां और महिलाएं हैं जो अपने अपने तरीके से अपने अपने समय में इस व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती रही हैं...कई बार ख़ुद इस बात से बेख़बर कि उन्होंने कितनी मारक चोट दे दी....मैं उन सब को याद करने की कोशिश करती हूँ...मैम, जया आंटी, मानसी, तसनीम, सोना या अब जैसे उस दिन सुजाता (बदला हुआ नाम) मैम से ही मुलाक़ात हुई...85 वर्षीय महिला...ऊर्जा से भरी हुई...संयोग से मुझे उनके साथ थोड़ा अधिक वक़्त बिताने का मौका मिल गया, तो उनकी भी कहानी पता चली...यूँ भी कहानियां – प्रेम कहानियां सुनने में मेरा बड़ा मन लगता है...

तो....सुजाता जी ने अपनी दर्शनशास्त्र पढ़ाई कोलकाता के एक नामी कॉलेज से की...उसके बाद आगे की पढ़ाई और शोध के लिए वे लंदन चली गयींपीएचडी पूरी करने के बाद वतन लौटीं तो लखनऊ विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में नौकरी मिल गयी....उनके लंदन प्रवास के दौरान जॉन (बदला हुआ नाम) से उनकी दोस्ती लौटने के महज़ छः महीने पहले ही हुई थी...हॉस्टल में आते जाते मुलाक़ात हो जाती...जॉन वहां ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे....सुजाता जी के यहाँ आने के बाद पत्र व्यवहार होने लगा और फिर एक पत्र में जॉन ने अपने हिन्दुस्तान आने के बारे में लिखा और कहा कि ‘मुझे लगता है कि आपको मेरे साथ ही यहाँ आ जाना चाहिए’...कोई रूमानी बातें या डायलॉग नहीं...सब सांकेतिक लेकिन स्पष्ट...इससे पहले कभी सुजाता जी ने जॉन के लिए ऐसा महसूस नहीं किया था...और अब भी जो था वो शायद प्रेम नहीं लेकिन एक बेहद कोमल भाव ज़रूर था...“प्रेम तो मुझे शादी के बाद हुआ” उन्होंने खिलखिलाकर बताया...सुजाता से उम्र में 16 वर्ष छोटे जॉन भारत आये...परिवार तो कोलकाता में ही था जो इस विवाह की अनुमति शायद ही देता... साथियों के सहयोग से लखनऊ में ही शादी हुई...यंग वीमेन क्रिस्चियन एसोसिएशन के हॉस्टल में उन्होंने मुझे उत्साह से वो कमरा भी दिखाया जहाँ उनकी शादी हुई और वो भी जो वहां उनका निजी कमरा हुआ करता था...शादी के कुछ वक़्त बाद वे लंदन चली गयीं और दूसरी नौकरी शुरू की...जॉन ने पढ़ाई पूरी की और अकादमिक क्षेत्र में बेहद सफल रहे... “मैंने एक बड़ा रिस्क लिया पर वो तो जीवन में किसी भी तरह होना ही था” वे कहती हैं....मैं विस्मित थी क्यूंकि इन दिनों प्रेम, भावनाओं और ऐसे साथ को व्यवहार में न होकर सिर्फ़ बातों में देखकर मन खिन्न था...मुझे उनकी कहानी परिकथा सी लग रही थी जिसे मैं बड़े चाव से सुनती जा रही थी...70 का दशक, पढ़ाई में बेहद आगे बढ़ना, विदेश हो आना, ख़ुद से 16 वर्ष छोटे व्यक्ति से प्रेम करना और साथ चल देना, उसे उसकी उस वक़्त की ज़रूरतों और प्राथमिकताओं पर पूरा सहयोग दे देना और इस बेहद खूबसूरत साथ के साथ ज़िन्दगी बिताना...ये वैसा था जैसे प्रेम की कल्पना करती थी.      
    
अब संबंधों को आमतौर पर टूटते बिखरते देखती हूँ...मेरे पास सुजाता जी के सवाल का कोई सीधा जवाब ही नहीं था जब उन्होंने मुझसे मेरे प्रेम संबंधों के बारे में पूछा...कि क्या मुझे कभी प्रेम नहीं हुआ?

मैं गर ईमानदारी से ख़ुद की बात करूँ तो प्रेम की धारणा या ख़याल पर तो मुझे शिद्दत से यकीन है, मैं इसका पुरजोर समर्थन करती हूँ और मानती हूँ कि धर्म, जाति, उम्र, शक्ल सूरत, रंग जैसी समाज द्वारा बनायी गयी तमाम सीमाओं को तोड़कर प्रेम हो तो दुनिया की तमाम मुश्किलें आसान हो जाएँ...लेकिन ये मेरे विचार हैं...इनमें और मेरे व्यवहार में अंतर है...मेरे इर्द गिर्द का माहौल मुझे विश्वास करने की हिम्मत नहीं देता...उसकी एक बड़ी वजह ये भी हो सकती है कि विश्वास न करने से कम से कम छले जाने का डर तो नहीं...प्रेम के तमाम चेहरे जो मुख़ातिब हुए उनसे कम से कम विचार पर अपना यकीन बचा सकी, लगता है वही बहुत है...ये आदर्श स्थिति नहीं पर इसका अभी कोई हल भी नहीं...खैर आगे बढ़ते हैं..

मुझे अपनी रूपरेखा मैम से कभी डर नहीं लगा...नहीं ऐसा भी नहीं, जिन दिनों पढ़ रही थी तब थोड़ा लगता था वो भी शायद इसलिए कि सबने माहौल वैसा बना रखा था...बाद में तो वो मेरे लिए एक दोस्त सी होती गयीं...ये अलग बात है कि आज तक शायद ही कोई हो जिसने ये न कहा हो कि उसे मैम से बहुत डर नहीं लगता...मुझे इसकी वजह कभी समझ नहीं आई...उनकी इज़्ज़त, बड़े होने के नाते एहतराम अपनी जगह पर डर? ये तो वो कभी भी न चाहें...जब भी कभी किसी उलझन में फँस जाऊं तो जैसे अपनी सहेलियों से बात कहती हूँ वैसे ही उनसे पूछ लूं, उनसे कहूँ कि रास्ता दिखायें...और ये भी तय है कि ऐसे दोराहे पर जिधर चलने की सलाह वो दे दें उस पर विश्वास से बढ़ जाऊं...एक परम्परागत हिन्दू ब्राह्मण परिवार से आने वाली मैं, आज कुछ भी वैचारिक समझ बना सकी हूँ या उसे काम में बदल सकी हूँ तो सिर्फ़ उनकी वजह से...साझी दुनिया मेरा वैचारिक घर...उस दिन एक मित्र ने जब कहा कि अच्छा अपनी ‘सेकंड मदर’ के पास गयी हो तो लगा कि हाँ बात तो बिल्कुल सच ही है.

मुझे उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में ज़्यादा पता नहीं...हालाँकि ये ख्वाहिश हमेशा रही की उनकी यात्रा, उनके संघर्ष जानूँ...लेकिन साथ बैठने पर बातों बातों में जो भी पता चलता तो मैं हैरान हो जाती...मैनपुरी जैसे एक छोटे से ज़िले से लखनऊ होते हुए ऑक्सफ़ोर्ड हो आना...उस वक़्त की शायद सबसे कम उम्र की महिला विभागाध्यक्ष हो जाना..वाइस चांसलर हो जाना....बला का अनुशासन, जानकारी, ज्ञान, मज़बूती और इतनी ही सरलता सहजता...समय की पाबन्द ऐसी कि आप उनके आने जाने से आप घड़ी मिला लें...मुद्दों के प्रति उनकी लगन कैसी मज़बूत रही होगी कि लोगों के भरसक विरोध, षड्यंत्रों के बावजूद वे टिकी रहीं...अकेले...कट्टरपंथी ताकतें जब एक होकर किसी के विरोध में आती हैं तो सामने वाले को तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़तीं...कितना मुश्किल है ये सब...पर वे न सिर्फ़ तब बल्कि अब भी उसी ईमानदारी और साफ़गोई से मुद्दों पर मुखर रहीं...इस उम्र में भी ऐसी सक्रियता...कैसा लगता है न कि कैसी ऊंची हस्ती हैं...हैं ही...पर सरलता ऐसी कि जब तब हम उनसे कैसा भी मज़ाक कर लें, छेड़ लें, पढ़ लें, समझ बना लें और जब मुश्किल हो तो अपनी बात भी साझा कर लें...सवाल पूछना ग़लत नहीं बल्कि एक ज़िन्दा दिमाग़ होने की निशानी है, ये कभी न जान पाती अगर उनके संपर्क में न आती..
          
कभी जड़ सा हो जाना और आस पास देखते रहना....अक्सर ही होता है मेरे साथ...बालकनी में खड़ी मोहल्ले में आते जाते लोगों, फेरीवालों, धूप सेंकती, स्वेटर बुनती, बच्चों को डांटती महिलाओं को....या कभी दफ़्तर की खिड़की से स्थिर हो बाहर दुनिया की रफ़्तार देखना...बुध बाज़ार में उमड़ी भीड़...पूरी सड़क पर, तख़्त, बल्लियों के ढांचों पर जैकेट, स्वेटर, जूते, चप्पल, बर्तन, सजावट का सामान...ज़ोर जोर से उठती दुकानदारों की आवाज़ें खरीददारों की उमड़ती भीड़, मोल भाव की चिक चिक....गाड़ियों की चिल पों...या फिर रुकने के सिग्नल पर उन बसों, ऑटो, रिक्शों में बैठे लोगों के चेहरों के पीछे झांकना....एक हलचल, आवाज़, कहानी, बेचैनी, ग़ुस्सा, शिकायतें या कितनी ही दफ़ा एक अजीब सा शोरजाने क्या कुछ पहुँचता रहता है इन जाने अनजाने चेहरों के पार से मुझ तक...कभी कभी एक अजीब उदासी ही उधर से इधर आ जाती और कुछ देर उलझन दे जाती...मैं लौट पड़ती हूँ कहानियों की तरफ़.. 
       
जया आंटी से पहली बार मिलने का मौका दुर्भाग्यवश बहुत दुखद था....सुबह ही मलय का एसएमएस आया कि अंकल नहीं रहे...वे काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे....मैं दोपहर तक मांसी के घर पहुंची...पुराने लखनऊ के इलाके में पुराने ज़माने के मकान का वो एक बड़ा सा कमरा...आंटी के पास बैठी...बातचीत होती रही...वे बिल्कुल सहज थीं, आराम से बातचीत कर रही थीं, हंस बोल रही थीं...मुझे ये देख बड़ी तसल्ली भी हुई और ईमानदारी से कहूं तो आश्चर्य भी...हमारे यहां के समाज और परिवारों में ये आम नहीं है...उनके यहाँ भी नहीं ही था...घर की बड़ी बूढ़ी औरतें इस बात पर नाखुश थीं कि आंटी दहाड़े मार मार कर रो क्यूँ नहीं रहीं...पर उन्होंने कहा “हम क्यों रोये बेटा...इतने समय से अस्पताल में जाने कितनी दफ़ा और कितना रो चुके...किसी को दिखाने के लिए नाटक क्या करना”...उनकी बात बिल्कुल सही थी भी...वे, मांसी, नानी और मैं इधर उधर की तमाम हल्की फुलकी बातें करते रहे...मेरे लिए ये एकदम नया अनुभव था...आंटी से उसके बाद कई बार मुलाकात हुई और उनकी तमाम सारी बातें मुझे प्रभावित करती रहीं...

उत्तर भारतीय या पूरे मुल्क में ही पत्नियों के जीवन में रंग और खुशियों का वजूद पति के होने या न होने पर ही निर्भर करता है....न होने पर अधिकाँश मामलों में सामाजिक यातनाएं अंतहीन हो चलती हैं...उनका ख़ुश होना, अच्छे समारोह या आयोजन में शामिल होना, हँसना बोलना, घूमना फिरना, रंगों से दोस्ती सब बेमेल की बातें हो जाती हैं...पर आंटी के साथ मैं इन सारे बेढब नियमों की व्यवस्था को ध्वस्त होते देखती थी...उनमें वो एक युवा लड़की सा उत्साह, ज़िन्दगी के हर पल से मुहब्बत, शौक –पढ़ना, घूमना, सहेलियों के साथ मिल बैठना, कला आदि आदि...वे बाकी लोगों की तरह ज़िन्दगी के प्रति नाशुक्री नहीं थीं....उत्साह, प्रेम, रचनात्मकता, उम्मीदों और तमाम संभावनाओं से भरीं...साहित्य और सम सामयिक घटनाओं, सामाजिक मुद्दों पर चर्चाएँ करतीं...उत्साह से अपने लड़कपन की बातें करतीं...साथ ठहाके लगाकर हंसतीं...उनके साथ होने पर किसी हमउम्र के साथ होने का आभास होता बल्कि कई बार ऐसा लगता कि हम और मांसी उनके मुकाबले दिमागी तौर पर थके, बुज़ुर्ग और नीरस हैं...ज़िन्दगी से ऐसी मुहब्बत और बेफ़िक्र हो हर पल को जी भर जीने का ऐसा चाव मैंने उनमें ही देखा...

जब तब मांसी उनके किस्से सुनाया करती और सुखद आश्चर्य से मैं सुना करती और भीतर तक ख़ुश हो जाया करती...जाने उन्हें ख़ुद भी पता है या नहीं कि जो कुछ भी वो इस तरह सहजता से करती जातीं हैं वो एक नज़ीर है...उसका असर बाकियों को न सिर्फ़ प्रभावित करता है बल्कि उनके लिए रास्ते बनाता है...उनका मस्त मौला, ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज़ अंदाज़ लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से सीखने की झलक देता...वो मर्ज़ी जिसको नज़रंदाज़ या त्याग देने को हमारी परवरिश का हिस्सा बनाया जाता...कुछ यूं कि मेरे इर्द गिर्द के लोगों, परिवार, मोहल्ले, संस्थाओं की मर्ज़ी को अपनी मर्ज़ी बनाना ही एक ‘अच्छी लड़की’ का लक्षण हो जाता..पर इससे इतर यहां हरदोई ज़िले में पली बढ़ी एक औरत हमें ये बता रही थी कि जो सबसे ऊपर है वो मेरी मर्ज़ी, मेरा नज़रिया  मेरा अंदाज़ और मेरा मिज़ाज़ है क्योंकि ये मेरी ज़िन्दगी है..

ऐसा भी होता है न कि दो मुख्तलिफ़ शख्स भी अपने अपने अंदाज़ में बढ़ एक ही दिशा में रहे होते हैं, उन्हें ये पता भी नहीं होता ...एक नए ढांचे को गढ़ने के लिए एक माहौल भी होता है, एक इच्छा और तमाम अन्य वजहें जो मिलकर एक शख्सियत को गढ़ रही होती हैं...ठीक भी है सबकी इच्छाओं की दुनिया अलग अलग हो सकती है.

मांसी एक अद्भुत शख्सियत की लड़की है....बेहद मज़बूत...और ये मज़बूत होना कठोर होना कतई नहीं...बेहद समझदार, ज़िम्मेदार, जानकार, संजीदा, समर्पित पर उतनी ही खिलंदड़, ख़ुशमिजाज़, ज़िंदादिल और भावुक भी...अपनी कोई निजी बात पर बात करनी हो या काम से जुड़ी...वही समझदारी और व्यवहार एक अजब नेतृत्वक्षमता से भरा...बल्कि व्यवहार में ऐसा संतुलन जो कई बार हैरान कर दे...कभी अपने चुटकुलों से महफ़िल को ठहाकों से भर दे तो कभी काम से जुड़ी बातों पर राय रखे तो बिना मुत्तासिर हुए न रहा जाये...बला की मेहनती, निर्भीक और रौनक से भरी...कभी किसी चटख खिले फूल सी तो कभी पत्थरों से लड़कर पूरे शोर से आगे बढ़ती पहाड़ी नदी सी... ऐसी कामकाजी लड़कियों को देखकर एक अजीब तसल्ली और सुकून होता है कि तस्वीर बदल भी रही है...उम्मीद बंधती है...ये कामयाबियां जब संघर्ष के रास्ते पहुंची हों तो वो और भी कीमती हो जाती हैं...ख़ासतौर पर जब कामयाबी के रास्ते पर बढ़ते हुए इंसान ज़मीन का साथ न छोड़े...ऐसे में इंसानी गुण बने रहते हैं...उनका हल्ला न होकर उनका बने रहना ही तो ज़रूरी भी है...
      
अपनी निजी या बाहरी ज़िन्दगी में भी अक्सर बोझल सा महसूस करने लगती हूँ... प्रेम, सम्मान, स्पेस या अन्य मानवीय भावनात्मक गुणों को इर्द गिर्द नदारद पाती हूँ...रिश्तों को टूटते बिखरते देखती हूँ...धोखा, झूठ, चालाकियां, दोगलापन इस क़दर हावी होता है कि एक अजीब झुंझलाहट, एक कोफ़्त मन में भर जाती है...हर तरफ़ से मन उचटने लगता है...नकारात्मकता जब आती है तो पूरे ज़ोर से आती है...वो ज़िन्दगी की किताब का हर एक पन्ना खोल देती है और आपका ध्यान ख़ासतौर से हर उस जगह खींचती है जो तकलीफ़देह थे...अगर ये लगे कि हालात तब से अब तक लगभग जस के तस बने हैं तो धक्का महसूस होता है...समझ नहीं आता कि हम बढ़ रहे हैं या पिछड़ रहे हैं...बढ़ रहे हैं तो किस तरफ़...उलझनें दुश्वारियां जो ज़िन्दगी में ख़ुद नहीं आतीं बल्कि लोग लाते हैं....हर चेहरे की कहानियां जानने की शौक़ीन मैं, कई दफ़ा उन संघर्षों को जान जानकर परेशान भी हो उठती हूँ कि ख़त्म होना तो दूर की बात है ये सब कभी कम भी होगा या नहीं...ऐसे में ख़ुद को समेट लेने के अलावा कुछ और विकल्प नहीं रहते...हाँ ये सही तरीका नहीं लें फिर भी उस वक़्त तो दिल दिमाग़ को ज़रा सुकून मिलता ही है...अपने एक घरौंदे में सिमट कर बाहरी दुनिया से वास्ता ही तोड़ लें कुछ दिनों....इन स्थितियों में आस पास ऐसे लोग होना तपती ज़मीन पर ठंडी फुहार सा होता है...मेरे इर्द गिर्द हर उम्र वर्ग की ऐसी महिलाएं हैं ये बड़ी तसल्ली की बात है जो मुझे हौसला और उम्मीद देती रहती है...यहाँ ये अंदाज़ा न लगाया जाए कि पुरुषों के संघर्षों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है लेकिन कई बार जो ऊर्जा इन महिलाओं से मिल रही होती है वो अलग है...इनके बारे में बताया जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि अव्वल तो ख़ुद में हिम्मत बनी रहे और दूसरों तक भी ये बात पहुंचे कि मेरे बगल बैठी आम सी दिखने वाली बच्ची/ महिला/ बुज़ुर्ग कितनी असाधारण हैं...और उतने ही ख़ास हम सब हैं बस कोशिशें जारी रखें..

तसनीम को पिछले लगभग 9-10 सालों से देख रही हूँ...मेकओवर या ग्रूमिंग का बेहतरीन उदाहरण है ये लड़की....एक मध्यमवर्गीय पारंपरिक मुस्लिम परिवार से आने वाली साधारण ग्रेजुएट लड़की...मुद्दों से अनभिज्ञ लेकिन चीज़ों को समझने, ख़ुद को और अपने आसपास के माहौल को बदलने की उसकी कोशिशों ने तस्वीर ही बदल दी...परिवार से और उससे भी ज़्यादा ख़ुद से होने वाले टकराव सबसे मुश्किल होते हैं....20-22 साल एक तरह की परवरिश पाने के बाद उन तमाम मान्यताओं, रीति रिवाजों, आदतों, चलन, व्यवहार को बदलना बेहद मुश्किल होता है क्यूंकि आपको पीछे खींचने का काम सिर्फ़ परिवार, रिश्तेदार या समाज नहीं कर रहे होते बल्कि ख़ुद आपके भीतर बैठे हुए यकीन और आस्था भी कर रहे होते हैं...इस उम्र तक वो हमारी शख्सियत का हिस्सा हो चुके होते हैं...मैं ख़ुद इन टकरावों के बीच कितनी ही बार उलझी रहती हूँ....तो इस लड़की ने उस उम्र में समाज के प्रतिकूल माहौल में न सिर्फ़ ख़ुद को बदला बल्कि अपने परिवार में भी तमाम तब्दीलियाँ लायी...बिना किसी ग्लानि के बने बनाए नियम, स्टीरियोटाइप तोड़ना हो, मन का करना, पहनना - ओढ़ना, घूमना फिरना या फिर प्रेम करना और साल दर साल उस रिश्ते के साथ बढ़ते जाना...न सिर्फ़ ख़ुद आगे बढ़ना बल्कि घरवालों का हाथ थाम उन्हें भी वैचारिक स्तर पर आगे बढ़ाना...साथी का सहयोग और ईमानदारी बेहद ज़रूरी होती है, जो उसे लगातार मिली....अभी पिछले दिनों उसकी शादी देखना एक अलग किस्म की ख़ुशी महसूस करना था...कि आज जो लड़की सामने है वो कितनी मज़बूत, सुलझी और तरक्कीपसंद है...ख़ुद से मिलने वालों पर एक सकारात्मक असर ही डालेगी... और इन तमाम सारी बातों में हक़ीक़त में जो एक बात होती है वो ये कि लड़की के कामकाजी होने, बाहर की दुनिया देखने से घर और समाज के रवैये में बड़ा अंतर आता है...जिसकी एक वजह ये भी है कि नौकरीपेशा या कमाऊ लड़कियां एक अलग किस्म के आत्मविश्वास से भरने लगती हैं..

वैसे हैरान करने का काम 20-25 साल की लड़की ही करे ऐसा नहीं...इस काम में तो मेरी सोना भी कम नहीं...सोना, 15 साल की मेरी भांजी...इस उम्र में ज़िम्मेदारी का ऐसा अहसास और लगन होना बमुश्किल देखने को मिलता है...चंचलता से भरी ये नाज़ुक उम्र आमतौर पर किशोरियों को भटकाने लगती है....तरह तरह के सवाल, जिज्ञासाएं और इच्छाएं जिन्हें संभालने और सही रास्ते पर लेकर चलने की हमारे समाज में कोई ख़ास व्यवस्था नहीं...माता पिता और बच्चों के बीच के संवादों में ऐसे ज़िक्र और चर्चाएँ उतनी नहीं (हालांकि अपने समय को देखती हूँ तो लगता है हमारे समय में तो संवाद शून्य ही था, आज कम से कम बच्चे मुखर हैं)...ऐसे में इस बच्ची की अपने काम, पढ़ाई और जानकारी इकठ्ठा करने के शौक के प्रति लगन, छोटे भाई को साथ लेकर चलने और मां की सहेली बने रहने का ज़िम्मेदारी भरा अहसास हैरान करेगा ही...आठवीं में प्रतियोगिता में जब बच्चे अपनी किसी किताब से हल्की फुलकी कविता पढ़ रहे थे तब सोना टैगोर की ‘Where the mind is without fear’सुनाकर आई...उसकी अध्यापिका ने हैरानी से पूछा कि क्या वो इस कविता का अर्थ समझती है तो सोना उन्हें अर्थ भी समझा आई...कविता लिखने चली तो उसके ज़ेहन में एक भूखे ज़रूरतमंद बच्चे का ख़याल था और अपनी कविता में ज़रुरतमंदों के लिए लोगों से अपील...रास्ते में एक बुज़ुर्ग भिखारी को 10 की जगह 20 रूपए देते हुए बोली कि बाबा इससे खाना ही खाना अच्छा.. कुछ पीने मत बैठ जाना...अपने यहाँ के भाषण प्रतियोगिता के लिए ‘देश में लैंगिक असामनता’ विषय को चुना व बहुत अच्छे से पेश किया... इस संवेदनशीलता के साथ ही वो मजबूती और आत्मविश्वास भी कि अपनी मदद और अपने मामले सबसे पहले ख़ुद ही सुलझा ले... ऐसी सोना जब ये कह देती है कि मौसी मैं आप सी हूँ या मुझे आप सा बनना है तो बड़ा दबाव महसूस होता है...इस उम्र में मैं एकदम उलट व्यवहार की थी...बल्कि आज भी उस सी मज़बूत नहीं... उसका ऐसा होना कितनी तसल्ली देता है कि हमारे इर्द गिर्द अगली पीढ़ी की सब नहीं भी तो कई बच्चियां जानकारी, संवेदनशीलता, ज़िम्मेदारी, और आत्मविश्वास से भरी हुई भी हैं...जिन्हें मेहनत करने, धूप में तपने से कोई गुरेज़ नहीं....इनको देखकर लगता है इतना घबराने की भी ज़रूरत नहीं...

जानती हूँ चीज़ें बेहद नकारात्मक हैं....हर पल तोड़कर रख देने को भरमार में इंतज़ाम है...हर पल एक नया संघर्ष है...विश्वास के अपने मसले हैं...लेकिन उन सब बंजर ज़मीन सी मुश्किलों पर ये सभी लड़कियां और महिलाएं मुहब्बत और बदलाव के खिलते फूल हैं...सदियों से होने वाले संघर्ष ज़ाया नहीं जा रहे, हाँ कुछ अलग सी चुनौतियाँ आने लगी है...पर इन्हें देख हिम्मत बंधती है कि उनसे भी निपट ही लिया जाएगा...और फिर एकल अभिभावक होने के मसले हों या रिश्तों और बाहर की दुनिया में आती मुश्किलें, इन पक्षों पर भी बेफ़िक्र होकर आगे बढ़ ही लिया जाएगा...जानती हूँ सही और ईमानदार पुरुष और अन्य साथियों बिना ये संभव नहीं...पर ये कुछ ज्यादा ही निजी सा था, जो याद आ रहा था वो ख़ुशगवार नहीं और मनः स्थिति भी फ़र्क तो आज उस पक्ष पर बात करने का दिल नहीं....आज बस अपनी सहेलियों को याद कर ख़ुश होने का मन था...    


(शीर्षक: नागार्जुन जी की एक कविता से प्रेरित)

रविवार, 25 मार्च 2018

नहीं जाएंगे हम आेल्ड एज हाेम- डा. अनुजा भट्ट


उम्र है तो चेहरे पर झुर्रिया आना, हाथ पैरों का उस तरह न चल पाना, कंपकंपी होना, घबराहट होना, समय का तकाजा है। पर चाहे आपकी उम्र तेजी से अपनी सीढ़ियां चढ़ने लगे अौर आपको लगे कि अब बस पता नहीं कितने दिन शेष हैं तो बस इस उदासी को घर के बाहर ही छोड़ आइए अौर जिंदगी के हर पल का आनंद लीजिए। आज मैं आपको मिलवाती हूं एक ऐसे समूहों से जिसने सबसे पहले अपनी सोसायटी में अपनी उम्र के साथियों को खोजा अौर उसके बाद अपना एक समूह बनाया। मेट्रोपालियन सिटी में आजकल इस तरह क¢ समूह बहुत तेजी से बन रहा है। इसकी कई वजहें हैं- अकेले पड़ जाते हैं बुजुर्ग घर में सब सुबह सुबह अपने काम पर निकल जाते हैं बच्चे अपने स्कूल। घर में रह जाते हैं बुजुर्ग। आखिर कितना टीवी देखें। आंखे भी तो उतना काम नहीं करती। रिश्तेदारों का आना जाना नहीं के बराबर है। नौकरी के बाद यह अकलेलापन सालने लगता है। क्या किया जाए? फिर भी कुछ हिम्मती महिलाएं छोटा मोटा बिजनेस करने लगती हैं। घरेलू मेड की सहायता से अचार पापड़ जैसे काम वह सहजता से कर लेती है पर बिना सहायक के यह संभव नहीं। कुछ होम बिजनेस से जुड़ जाती हैं जिनको प्रोडक्ट का आर्डर करना होता है। जो लोग आडर देते हैं वह खुद सामान ले जाते हैं। पर यह सब काम वह इसलिए करती हैं ताकि अकेलेलापन न लगे। कभी सामान लेने के लिए ही सही कोई आएगा। दो चार पल बात हो पाएगी। किससे बात करें घर में उनकी बातें सुनने वाला कोई नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि बच्चे पेरेंट्स को इग्नोर करना चाहते हैं या उनका उनसे कोई लगाव नहीं है। वह भी अपने समय को पकड़ना चाहते हैं। हम सब जानते हैं कि समय की गति पहले से बहुत तेज हैं। अौर हर पीढ़ी को अपने समय के हिसाब से चलना पड़ता है। बनाया अपना समूह यह सब देखकर उन्होंने अपना समूह बनाया। हर महीने कुछ मामूली पैसे इक्ट्ठे किए ताकि गेट डब गेदर किया जा सकेंगे। सोसायटी के क्लब हाउस में एक टेबल अपने लिए रिजर्व की अौर की मन भर बातें। याद किया अपना समय। खाया पिया, अंताक्षरी की,गेम खेले एक दूसरे का हाल चाल जाना। सबने एक दूसरे से नंबर लिए अौर अपना वाट्सएप ग्रुप बनाया। अपने मन की बातें शेयर की, चुतकुले भेजे या फि कोई संदेश। इस तरह जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली। फिर बना पिकनिक का कार्यक्रम सब मिले तो फिर घूमने, फिल्म देखने, अपने मन का पहनने ओड़ने के दिन आ गए। बेवजह जो चिड़चिड़ाहट अौर झुझलाहट थी वह गायब हो गई। ब्लडप्रेशर नार्मल हो गया। कोई साथी बीमार है तो उसकी सब तीमारदारी में लग गए। सजग हुए तो सोसायटी में आया बदलाव सोसायटी में होने वाले कार्यक्रमों की बागडोर संभाली। बच्चों के साथ नानी दादी अौर दादा-दादी ने किया फैशन शो। उनके बीच तो गैप आया था वह दूर हुआ। बुजुर्गों के लिए सोसायटी में नि.शुल्क कैम्प लगने लगे। ट्रेवल एजेंट बुजुर्गों को अच्छा डिस्काउंट देने लगे। रस्तरां में स्नेक्स के साथ काफी फ्री मिलने लगी। जिसके अंदर जो हुनर उसने वह बांटा किसी ने अपना बनाया अचार खिलाया किसी ने पेंटिंग दिखाई किसी ने शेरो शायरी की किसी ने कहानी सुनाई किसी ने स्वेटर दिखाए। सबने अपने अपने अनुभव से अपने समूह को मजबूत बनाया। देश से लेकर विदेश तक के विषयों पर चर्चा की। सतसंग किया। अलग अलग धर्मों से जुड़े आडियो वीडियो देखे अौर फिर अपने विचार किया। जाति के बंधन टूटे इन समूहों में सबसे अच्छी बात जो हुई वह यह कि जातियों के बंधन टूटे अौर मानवीयता के तार जुड़े। अलग अलग धर्म के लोग जुड़े तो जैसे साझी विरासत का सपना एक हुआ। कभी समानता को देखकर मंत्रमुग्ध हुए तो कभी विचित्र रस्मों को देखकर कौतुहल जागा। परिवार में भी आया बदलाव अब रोज रोज की नोक झोंक बंद हो गई। घर से काम पर निकलने वाले बच्चे भी बेफिक्र हुए कि अब अकेले नहीं हैं मम्मी पापा। आखिर यह बुजुर्ग हैं तो हमारे ही घर के। इनको भी अधिकार है आजाद परिंदे की तरह रहने का।

शनिवार, 24 मार्च 2018

जीने दाे- पार्ट 1 श्रेया श्रीवास्तव

पड़ोस में कथा थी।लता ने बहुत दिनों के बाद एक साड़ी पहनी बाल बनाये बिंदी लगाई पर जैसे ही सिंदूर लगाने चली उसे 25 साल पहले की वो रात याद आ गई जब कमल से उसकी शादी हुई थी।लता एक सुशिक्षित परिवार की पढ़ी लिखी लड़की थी।देखने में साधारण थी कई बहनें थीं पिता के पास दहेज में देने के लिये अधिक कुछ था नहीं सो 22साल की आयु में मामूली प्राइवेट नौकरी करने वाले कमल से उसकी शादी कर दी गई।लता भी पिता की मज़बूरी समझती थी तो अपने कुछ छोटे छोटे सपने मन में ही दफ़न करके
ससुराल चली आई ।पहली रात ही पति ने जता दिया कि उसके लिये लता का होना न होना उसके लिये कोई मायने नहीं रखता था कमल के लिये उसके मा बाप ही सब कुछ थे।लता सुबह 5 बजे उठ जाती झाड़ू लगाती खाना बनाती बरतन कपड़े धोती।बरतन में ज़रा भी कालिख रह जाती तो सास आसमान सिर पर उठा लेती।मसाला सिल पर पीसा जाता जितना और जो कहा जाता लता उतना ही करती।न तो वो अपने मन का खा सकती थी न पहन सकती थी।कहीं बाहर जाना तो दूर छत पर भी नहीं जा। कती थी।ज़रा सा भी काम बिगड़ जाता तो लता के पुरखे तार दिये जाते।
पति श्रवण कुमार थे माँ एक बार बोलती तो वो चार बार मारते।इस बीच लता के कई मिसकैरिज हो गये।लता चुपचाप अपनी बेबसी पर रोती रहती बूढे माँ बाप को बता कर दुख नहीं देना चाहती थी। समय बीता अब कमल की दूसरे शहर में सरकारी नौकरी लग गई।कुछ दिनों बाद कमल के साथ लता को भी भेज दिया गया।नये शहर में लता को बहुत अपनापन मिला इस बीच लता एक बेटी और एक बेटे की माँ बन गई थी।पति का रवैया अभी भी वैसा ही था पर लता का समय बेटी बेटे की परवरिश में और खाली समय सहेलियों के साथ बीत जाता।लता ने भी मन को समझाया कि सब को सब कुछ नहीं मिलता। शादी के 25सालों के बाद एक दिन लता को पता चला कि कमल ने दूसरी शादी कर ली है।लता ने सारा जीवन दुख झेले थे।बेटे बेटी की पैदाइश पर भी पति ने गले न लगाया।करवाचौथ पर भी पानी पिलाने का रिवाज़ तक नहीं पूरा किया कभी।लता के माँ बाप भी चल बसे थे।इस खबर से तो मानो लता की कमर ही टूट गई।लता पति के आगे रोई गिड़गिड़ाई पैर भी छुएपर इससे पति का अहं और बढ़ गया उसे लगा कि इसकी औकात ही कितनी है।धीरे धीरे कमल ने घर के लिये राशन तक लाना बंद कर दिया।ये सब लता के लिये असहनीय हो गया था।फिर एक दिन साहस जुटा कर लता ने कमल का पुरजोर विरोध किया।उसने कमल को साफ़ बता दिया कि अब वो और नहीं सहेगी।लता का ये नया भेष देखकर कमल दंग रह गया।ऐसा तो उसने सोचा भी नहीं था उसे तो काँपती और रोती हुई लता को देखने की आदत थी।
लता ने जब देखा कि उसके सास ससुर भी बेटे का साथ दे रहे हैं तो उसे खुद साहस दिखाना पड़ा।लता कोई कानूनी लड़ाई तो नहीं लड़ सकती उसके पास न तो संसाधन हैं न ठोस सबूत पर उसने कुछ हद तक झुका तो दिया ही।लता के पास आय का कोई साधन नहीं है और उसके सामने बेटे बेटी की परवरिश का भी सवाल है।आज लता सबसे यही कहना चाहती है कि अधिक मौन जीवन मिटा देता है अतःमुखर बनें और अपने अधिकारों के लिये सजग रहें ताकि मेरी तरह किसी और को ऐसा दुखदायी और अपमानजनक जीवन न जीना पड़े।

गुरुवार, 22 मार्च 2018

छलिया है वो छलिया प्रीती कविता

"छलिया है वो छलिया "

छलिया है वो छलिया,
वो तो छलता जाता है,

मंद मंद मुस्कानो से,
अपना बनाता जाता है ।

सूरज जैसा तेज सदा,
उसके चेहरे पर गहराता है ।

मीठी मीठी बातों से वो,
मन को मोहता जाता है ।

बाँट सबका दुःख दर्द,
चेहरे पर खुशियाँ लाता है ।

मद मस्त पवन का झोंका,
शीतलता बरसाता है ।

इस धरती पर वो फरिश्ता,
ईश्वर का कहलाता है।

छलिया है वो छलिया,
वो तो छलता जाता है ।

मंद मंद मुस्कानो से,
अपना बनाता जाता है ।

     

special post

कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट

   हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी ...