बुधवार, 25 मई 2022

कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट

 

 हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी लिखी थी। नौकरी की तलाश में शहर छूटा साथ में छूट गई और भी बहुत सारी चीजें। पर यह शहर अब भी मेरी आत्मा में बसता है। अब भी जाना होता है साल दो साल में। पर इस बार जाना हुआ एक खास मकसद के साथ। मकसद था लोगों को अपनी संस्कृति को बचाने के लिए एकजुट करना। दूसरा मकसद था हाल ही में कुमाऊंनी भाषा में साहित्य रचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से  संयुक्त रूप से नवाजे गए साहित्यकारों चारू चंद्र पांडे जी और मथुरा दत्त मठपाल जी से मिलने का।  

उस दिन मौसम बहुत सुहावना था। बारिश की कभी तेज तो कभी रिमझिम फुहारों में भीगते हुए कहीं अंदर मन भी भीगा भीगा सा था। ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर से अजान की आवाज आ रही हो तो कभी यही आवाज मंदिर की घंटी के रूप में सुनाई देने लगी। कहीं पेड़ों पर चिड़ियों की आवाज तो कहीं आम से लदे वृक्ष। पानी की सर सर बहती आवाज, आते-जाते लोग अपनी ही दुनिया में मस्त बेखबर बच्चे मिलते गए और हम चलते गए। यह दोनो भाव एकाकी होकर मेरे मन को छूने लगे।  मेरे पति मुझसे भी ज्यादा मिलने के लिए बेसब्र थे। हमें इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि  कुमाऊंनी बोली के साहित्यकारों को साहित्य अकादमी सम्मान तो दिया गया और इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही।  आखिर कहां चली गई है हमारी चेतना। दरअसल हम जिस मायावी दुनिया में जी रहे हैं वहां से संवेदना सिरे में गायब हो गई है। साहित्य कोई पढ़ता नहीं और साहित्य पढ़ने के लिए कोई प्रेरित भी नहीं करता। घर में पत्र पत्रिकाओं का आना बंद है तो ऐसे में सृजन का संसार कैसे पैदा हो। जब इस बरक्स कोई बात की जाए तो अमूमन लोगो का जवाब होता है साहित्य पढ़ने से क्या होगा? खैर छोड़िए इन बातों को और चलिए हमारे साथ इन दोनो शख्सियतों से मिलने। 

हल्द्वानी में एक जगह का नाम है ऊंचापुल। हल्द्वानी से दमुवाढूंगा जाते समय यह रास्ते में पड़ता है। आप ऊंचापुल चौराहे पर उतर जाइए। अब अपनी बाई तरफ से गली नंबर 1 से लेकर 10 तक का रास्ता तय कीजिए। जैसे ही गली नंबर 10 आएगा आपको अपनी दाहिनी ओर लीची का बगीचा दिखाई देगा। इसी बगीचे के एन सामने दिखाई देंगे लाल फ्लैट। यहीं रहते हैं उत्तराखंड के कबीर माने जाने वाले साहित्यकार चारूचंद्र पांडे। उम्र 92 साल। गौर वर्ण,  लंबा कद, ओजस्वी चेहरा, तीखे नैकनक्श, लंबे कान, मधुर आवाज। सफेद रंग का पैजामा कुर्ता पहने अपने कक्ष में आराम कर रहे है। प्रणाम किया तो हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, पर पहचाना नहीं। वर्षों वाद मिले  थे। और जब पहचाना तो बोले हां एक बार पत्र मिला था तुम्हारा। जायसी पर कुछ जानना चाहा था तुमने। हां तब मैं बीए की विद्यार्थी थी। 15 दिन के संक्षिप्त प्रवास के लिए आप हमारे यहां ठहरे थे। और उन दिनों गीता का कुमांऊनी में  अनुवाद कर रहे थे। फिर समय चलता रहा और हम उसके पीछे पीछे।

 अभी हाल ही में कुमाऊंनी भाषा के लिए पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार  की जब घोषणा हुई तो मन फिर से मिलने के लिए बेचैन हो गया। कुमांऊनी भाषा में पहली किताब लिखने का श्रेय  उनके खाते में दर्ज है जिसका नाम था,लोक कवि गौर्दा का काव्य दर्शन। कभी आपको कुमाऊ की होली की बैठक में जाने का अवसर मिले तो ऐसी बहुत सारी होली बहुत सारे मांगलिक गान आपको सुनाई देंगे  जिनको गाते हुए  न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले हुए हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कुमाऊंनी संस्कृति में शाóीयता और राग का खास महत्व है।  इसका अपना एक अहं रोल है। यह शाóीयता रामलीला के संवादों से लेकर से लेकर होली में भी दिखाई देती है जहां सब में राग हैं रंग है, छंद हैं बंध हैं।  पांडे जी ने कई होली गीत लिखे तो शादी ब्याह के संस्कार गीत भी लिखे।

श्री पां़डे की को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय प्रसिद्ध कथाकार इलाचंद्र जोशी जी को जाता है जो उन दिनों आकाशवाणी में कार्यरत थे। उन्होंने इनको आकाशवाणी लखनऊ में 30 मिनट का टाक शो करने का निमंत्रण दिया जिसका विषय था कुमाऊंनी लोकगीतो पर प्रकृति का प्रभाव। 30 मिनट का यह टाक शो काफी  सुना गया। 

 पढ़ाई के शुरूआती दौर में विज्ञान पढ़ने वाला विद्यार्थी आगे चलकर साहित्य सृजन की ओर  उन्मुख हो गया। इसे नियति का खेल कह सकते हैं जो रास्ते बनाती भी है। अगर आपके भीतर गजब की इच्छाशक्ति है तो गरीबी आपकी महत्वाकांक्षा को दफन नहीं होने देती। अपने  अतीत की परछाई के पन्ने पलटते पांडे जी भावुक हो जाते हैं पर अपने बारे में बताना जरूरी समझते हैं अन्यथा हम आप,आम जन कैसे जान सकेंगे उनके जीवन की संघर्ष गाथा को। हां गाथा ही तो है जिसे वह कविता के शब्दों में पिरोते हैं तो कभी नाटक लिखते हैं। पढ़ाई जारी रखनी है तो पैसे चाहिए और पैसे के लिए नौकरी करना जरूरी था। इसीलिए अल्मो़ड़ा से टीकमगढ़ आना हुआ। उस समय वहां महाराजा ओरछा थे। जिनके यहां इनको नौकरी मिल गई। 41 में इंटर करके  टीचर बन गए। वहां बनारसीदास चतुर्वेदी रहते थे। उनसे प्रेरणा पाकर इन्होंने बीए किया वहां के महाराजा के कहने पर बीटी करने बीएचयू बनारस आ गए। उस समय राधाकृष्णन  कुलपति थे। राजकुमार चौबे जैसे अध्यापक थे जिन्होंने 22 विषयों में एम.ए किया था। वह गणित भी पढ़ाते थे और हिस्ट्री आफ एजूकेशन भी। बीच में साहित्य सृजन बाधित रहा।

1955 में पहली कविता धर्मयुग में छपी। साहित्य संस्कार हो चुका था पर साहित्यक संसार में धमक अभी बाकी थी। इस तरह घूमते घुमाते जीवनयापन करते फिर से अल्मोड़ा आ गए। कहते हैं रचनाशील व्यक्ति का कैनवास बहुत बडा होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने का बीड़ा उठाया। महफिल जमनी भी शुरू हो गई। अल्मोड़ा में अमृतलाल नागर, बनारसीदास चतुर्वेदी, बेगम अखतर और बिरजू महाराज के सुर और घुघरू बजने लगे। आकाशवाणी  लखनऊ में उत्तरायण कार्यक्रम  तो हवामहल के लिए नाटक प्रस्तुत होने लगे।  लेखनी  की धारा विकल्प पहाड़ सरस्वती पत्रिका में भी दस्तक देने लगी। सरस्वती में गुमानी पर  छपे लेख की चर्चा हुई तो पुरवासी  में  कविताओं की। आखर, दुधबोली और पहरू के लिए लिखा। रजत सम्मान 2009,1968 में राष्ट्रपति सम्मान, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्रारा सम्मानित, उमेश डोबाल स्मृति सम्मान जैसे कई सम्मानों से सम्मानित। गीता का कुमाऊंनी भाषा में अनुवाद किया। जिसका प्रकाशन होना बाकी है। और भी बहुत कुछ है उनसे जानने के लिए, समझने के लिए पर अभी इजाजत लेनी होगी। वह इस समय पूरे मूड में हैं। होलियां गा रहे हैं। कविताएं सुना रहे है। डायरी में से अपनी प्रिय कविताएं खोज रहे हैं। मैंने रिकार्ड आन किया है। उनकी मधुर आवाज में उनकी कुमाऊंनी कविताएं  मैंने रिकार्ड कर ली है। साझ घिर आई है और अभी कई पड़ाव पार करने हैं।

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 चारू चंद्र पांडे जी के घर से निकलते ही अंधेरा हो गया था सोचा सुबह उठकर रामनगर जाएंगे। साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजे गए मथुरा दत्त मठपाल जी से भी मिलना होगा।

 उस दिन बारिश बहुत थी इसलिए रामनगर जाना नहीं हो सका। लेकिन अगर आप उनसे मिलना चाहते  हैं तो पता है पंपापुर-रामनगर में एक जगह है पंपापुर। मथुरा दत्त मठपाल जी का निवास वहीं है। मेरी मथुरा दत्त जी से फोन पर विस्तृत बात हुई। पर हां सामने बैठकर बात करने का जो आनंद है उससे मैं  वंचित ही रही। पर अपनी अपनत्व से भरी बोली में उन्होंने कहा कितना अच्छा होता यदि आप कुमाऊंनी में ही बात करती, पर कोई बात नहीं अपनी भाषा संस्कृति के प्रति तो आपने मन में लगाव हुआ ही।  चलिए सुनिए मेरी कहानी .. तो 29 जून 1941 को अल्मोड़ा के भिकियासेन गांव में मेरा जन्म हुआ। मेरा जीवन गांव में ही बीता। 35 साल तक राजकीय स्कूल में इतिहास पढ़ाता रहा। इसी क्रम में मुझे खुद को जानने समझने का मौका मिला। अपनी संस्कृति के प्रति एक जवाबदेही तय की। संसाधन थे नहीं और न आज हैं फिर भी जुनून तो है।  जब मैं पूछती हूं आपका साहित्यक गुरू कौन है। तो बड़ी जोर का ठहाके लगाते हुए कहते हैं। मेरा कोई  गुरू नहीं। किताबे ही मेरी गुरू है। वैसे वह मेरी मां  ही हो सकती है जो ठेठ कुमाऊंनी में बोलती थी। हिंदी उसे आती नहीं थी। इसलिए भाषा का परिष्कार वहीं से हुआ। फिर मैंने दुधबोली करके एक कुमाऊंनी भाषा में साहित्यक मैग्जीन निकाली जो पहली मैग्जीन थी। पहले यह त्रैमासिक थी अब साल में एक निकालता हूं। करीब 350 पेज की पत्रिका है। मैं बीच में रोकती हूं, यह तो बहुत सुंदर काम कर रहे हैं आप। यह काफी श्रमसाध्य भी है।  पर मेरा एक सवाल है आपसे। आखिर कुमाऊंनी भाषा के विकास में क्या रुकावट है जो इसे अंतरराष्ट्रीय मंच में स्वीकार्यता नहीं है। बहुत जरूरी सवाल पूछा है आपने दरअसल सबसे बड़ी बात यह है कि इस  क्षेत्र में की कई उपबोलियां  भी हैं। इसलिए  मानकीकरण बहुत जरूरी है। यानी एक ऐसी भाषा बनाई  जिसमें सब उपबोलियों को भी शामिल किया जाए। यह कार्य कठिन है पर असंभव नहीं है। जिनके भीतर अपनी संस्कृति अपनी भाषा के लिए कुछ करने की इच्छा है।  वह इसे कर सकते हैं। प्रयोगों का दौर शुरू हो गया है मैंने करीब 6000 होलियां संकलित कर ली है। होलियां हमारी विरासत भी है और हमारी सांस्कृतिक पहचान भी इससे जुड़ी हुई है। फिल हाल तो मैं होली के रंगों में डूबा हुआ है। 

 बात तो आगे  ले जाने के उद्देश्य से मैं उनको बीच में ही रोकती हूं  यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है। चलिए अब अपनी रचनात्मक  उपलब्धि के बारे में बताएं।  उपलब्धि यह सुनकर उनको हँसी  आ जाती है। हँसी की यह गूंज मेरे कानों  तक सुनाई देती है। तकनीक  का असर है कि मैं उनको सुन रही हूं उनकी खनकती हँसी महसूस कर रही हूं पर आमने सामने नहीं. .तो कुल जमा जोड़ यह है पाठकों कि कुमाऊंनी भाषा  इनकी पहली किताब है आंग  चितेल हैगो( शरीर में खुजली सी है ), पैमे क्याप्प कै बैठ़ड़ू( फिर मैं  कुछ का कुछ कह बैठता हू)  तीसरी किताब है फिर प्यौली हँसे( फिर प्यौली हँसती है) राम नाम बहुत ठूल इनकी पांचवी किताब है। अब बात पुरस्कार की करते हैं। सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार के अलावा  उत्तराखंड भाषा संस्थान का डा. गोविंद चातक सम्मान, शैलवाणी पत्रिका के शैलवाणी सम्मान इनके खाते में दर्ज हैं।  

यह थी हमारी सांस्कृतिक यात्रा जिसमें हम  उत्तराखंड के साहित्यित शीर्ष पर चमकते दो सितारों से मुखातिब हुए। बहुत सारे सितारों से मिलना बाकी है। बहुत से गुमनाम है जो बर्फ की ओ़ड़नी ओड़े समय की सफेद चादर से  घिरे हैं। जब फिजा बदलेगी तो निःसंदेह उत्तराखंड अपनी साहित्यिक सांस्कृतिक चकाचौंध से पूरी दुनिया को विस्मित कर देगा।


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

कांथा से सजिए और सजाइए- डॉ अनुजा भट्ट

 


कांथा कढ़ाई का प्राचीन शिल्प बंगाल के गांवों से होता हुआ अब पूरी दुनिया में अपनी जगह बना रहा है। कांथा की कढ़ाई की कहानी आजकल के फैशन ट्रैंड में खूब सुनी जा रही है।   फैशन के मुरीद इसके बारे में जानना चाहते हैं, क्योंकि आज का दौर वोकल फॉर लोकल का है। पुराने समय में कांथा बनाना न केवल एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति थी, बल्कि इसमें प्राकृतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रतीकों का भी प्रयोग सहजता से किया जाता था। चाहे शादी ब्याह हो या जन्म का मौका या फिर सुनी सुनाई पौराणिक कहानियां । सब को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति मिलती रही।कमल, मछलियां, पक्षी, सूरज,चांद तारे, फल फूल, राधा कृष्ण,ज्यामितिक आकृतियां प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत थीं। मूल रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले रंग नीले, हरे, पीले, लाल और काले थे।"

यह देखना अपने आप में बहुत अच्छा है। हथकरघा शिल्प के पुनरुद्धार से वैश्विक मंच पर भारतीय शिल्प कौशल को न केवल  प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा बल्कि इसके साथ ही ग्रामीण गांवों में लाखों कारीगरों और बुनकरों को मदद भी मिल सकेगी।

बंगाल एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने सदियों पुराने शिल्प के लिए जाना जाता है जिसमें कांथा भी शामिल है।

 यह कढ़ाई का एक रूप है। वैदिक साहित्य में भी इसका उल्लेख है। आधुनिक समय के उभरते फैशन में यह मजबूती के साथ टिका हुआ है और फूल की तरह खिल रहा है।

 तो फिर यह कांथा कढ़ाई क्या है और इसने इतनी लोकप्रियता कैसे हासिल की?

कांथा के जन्म की कहानी सदियो पुरानी है। इसको बनाने के पीछे मकसद कोई कलात्मक चीज बनाना नहीं था बल्कि यह आम आदमी की जरूरत था। बंगाल के अलावा राजस्थान और बांग्लादेश में भी यह बनाया जाता रहा है। पहले जब यह बनाया जाता था तो कांथा कढ़ाई का प्रयोग बार्डर बनाने के लिए किया जाता था। बार्डर यानी सीमाएं। इसके लिए धागे की मोटी सिलाई की जाती थी जिसमें एक टांके और दूसरे टांके के बीच में थोड़ा अंतराल होता था। फिर साड़ी में जो छपाई होती थी उसी के ऊपर इसी तरह से मोटी सिलाई की जाती थी। जिससे डिजाइन उभर जाता था। तब इसका इस्तेमाल दरी, बिछावन और रजाई के रूप में होता था। इसे रिसाइक्लिंग भी कह सकते हैं। इसके लिए इस्तेमाल की गई साड़ियों और धोती का प्रयोग होता था। आज भी गांव में इसे इसी तरह से बनाया जाता है।

धीरे-धीरे यह एक शिल्प के रूप में विकसित हुआ क्योंकि उन्होंने अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं बनाना और टांके के साथ छोटे-छोटे सजावटी काम करना  भी शुरू कर दिया था।   उनके इस काम से प्रभावित होकर कई डिजाइनरों ने उनके साथ काम करने का नन बनाया और इस तरह सादा कांथा डिजाइनर कांथा में बदल गया। आज कांथा की बेडशीट बेडकवर साड़ियां,ब्लाउज जैकेट, पर्दे ,पर्स, स्कार्फ शॉल मफलर, कुर्ते लंहगा, स्कर्ट के अलावा सजावट की कई चीजें जैसे टेबल क्लाथ टेबल कवर, रनर, कुशन कवर, दिवान सेट बन रही हैं। रंगों, शैलियों, बनावट और पैटर्न के संयोजन पर लगातार काम हो रहा है।

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गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

ग्लास से बदलेंं घर का लुक-डॉ. अनुजा भट्ट

 


घर के इंटीरियर में अब बाजी मारी है ग्लास ने। अभी तक यह मुहावरा ही था कि घर शीशे जैसा चमकना चाहिए  पर अब  यह हकीकत में बदल चुका है। घर की साज सजावट में ग्लास का इस्तेमाल अब  खिड़की , सीढिय़ों, दीवारों और दरवाजों  र दस्तक देता  हुआ फर्नीचर की दुनिया में कदम रख चुका है। जी हां बाजार में ग्लास के फर्नीचर की डिजाइनर रेंज मन को लुभा रही है। ग्लास का चलन बड़ी तेेजी से बढ़ा है। लिविंग रूम, डायनिंग रूम सभी जगह इसकी चमक है कहीं ग्लास रैक है तो कहीं मल्टी पर्पस टेबल ।

ग्लास की खासियत ये है कि ये एक अनक्लटर्ड लुक के अलावा घर में ज्यादा जगह का अहसास भी करवाता है। यानी अपने घर को एक रॉयल लुक देने के लिए ग्लास का फर्नीचर एक सही विकल्प है। ग्लास  के बढ़ते चलन की सबसे बड़ी वजह है कि इसे लगाना बहुत आसान है।  इससे एक कलात्मक और परंपरागत  छवियां दोनों साथ साथ दिखाई देती हैं। साथ ही धूप  की रोशनी सीधे अंदर आती है, जिससे अंधेरा नहीं रहता और इस तरह बिजली के खर्च में भी कटौती की जा सकती है।

ग्लास लाइटवेट, ट्रांस् पेरेंट होने के बावजूद कंक्रीट की तरह बहुत मजबूत होता है। पवीबी और लैमिनेटेड ग्लासों का उपयोग आर्किटेक्ट न सिर्फ एलिवेटर्स, बल्कि फ्लोर, वॉल्स, केबिन, क्यूबिकल्स और पार्टीशन में भी कर रहे हैं जिससे छोटी जगह भी बड़ी लगती है।  ग्लास की  पारदर्शिता की वजह से बाहर के नजारों का आनंद उठाकर बोरियत तो दूर होती  है, और आप  ज्यादा सक्रिय रहते हैं।  ऐसे लोग जो खुला न चाहते हैं उनके लिए ग्लास से बेहतर  और कोई विकल्प  नहीं। ग्लास का उपयोग  ऐसी जगह  पर ज्यादा कारगर होता है जहां धूप  नहीं आती । 

 सवाल यह भी उठता है कि  क्या ग्लास  से आने वाली रेडिएशन नुकसानदेह हो सकती है?   आर्किटेक्ट की मानें तो, अगर ग्लास में यू फैक्टर प्रयौग किया जाए तो अंदर आते रेडिएशन से काफी हद तक बचा जा सकता है। साथ ही आजकल डबल ग्लास भी मौजूद हैं, जिनके उपयोग से कोई नुकसान नहीं  हुंचता है। ग्लास न केवल घर की सज्जा में चार चांद लगाता है, वरन एक सादगी का एहसास भी देता है। दीवारों पर ग्लास लगे होने से ठंडक और गर्मी दोनों का संतुलन बना रहता है। लिविंग रूम में रखी टेबल  पर ग्लास लगा होता है। इसमें भी अनेक लेयर्स होती हैं। ऐसी साइड व कॉर्नर टेबल भी विभिन्न आकारों में मिल जाएंगी, जो केवल ग्लास की बनी होती हैं। किचन व बाथरूम में भी ग्लास अपनी एक खास जगह बना चुका है। अब ग्लास से  पार्टीशन बनने लगे हैं। लिविंग रूम में ग्लास का पार्टीशन डाल एक से रेट पोर्शन बनाया जा सकता है। ग्लास की शेल्फ बनाकर उस  पर कलाकृतियां सजाई जा सकती हैं। ग्लास के बुक शेल्फ भी खूबसूरत लगते हैं और उससे डेकोर भी खिल उठता है। जरूरी नहीं कि ग्लास को केवल वुड के साथ ही  प्रयोग में लाया जाए। स्टोन के  पिलर्स या टेबल के नीचे लगे स्टोन के पायों के साथ भी वह बेहद अच्छा लगता है।

इंडियन ग्लास एसोसिएशन के द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक, ग्लास लगाने से बिल्डिंग की सार-संभाल में कटौती हो जाती है और सूरज की रोशनी के अंदर आने से बिजली के खर्च में भी कमी आ जाती है। इसके अलावा काम करने वाले लोगों को घुटन का एहसास नहीं  होता। गर्म मौसम में बाहर से आने वाली गर्म  व  सर्दियों में ठंड को अंदर आने से इससे रोका जा सकता है। ग्लास और मैटीरियल की तुलना में सस्ता और पूरी तरह से रीसाइकल होने वाला होता है। 

इसकी खासियत है कि इसे प्लेन के साथ सतरंगी रंगों से सजा सकते हैं। फिर चाहे खिड़कियों के पैनल हो या फिर घर में दीवार की शोभा बढ़ाती तस्वीर। अनेक रंगों में उपलब्ध होने के कारण ग्लास हर तरह के डेकोर के साथ मैच करता है। 

 ग्लास  पर जब रोशनी पड़ती है तो अनेक रंग व शेड कमरे में बिखर उठते हैं। इनमें कुछ न कुछ तो खास है। बेहतरीन क्लास और संजीदगी का  पैगान देते स्टाइलिश गोबलेट और ग्लास आप के डेकोर डिजाइन में चार चांद लगाने का काम करते हैं।  साजसज्जा के अलावा क्राकरी में भी  डिजाइनर ग्लास , वाइन ग्लास, ब्रेंडी और मार्तिनी ग्लास, एलिफेंट हेड ग्लास और डेकोरेटिव कोरल कलेक्शन  की मांग बढ़ी है। देखने में चांदी की तरह है लेकिन उसकी चमक बरकरार रहती है। वास्तव में जो फिनिश कांसे को दी जा सकती है वह इन्हें ज्यादा आकर्षक और रखरखाव की दृष्टि से बढिय़ा बनाती है। भारत में वरसाचे, रोसेंथाल, बलगारी, रॉयल डोलटन, आईवीवी और मर्डिन्गर जैसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड्स  को चाहनेवालों का संख्या बढ़ती जा रही है। इन दिनों लम्बे, ब्रॉड और स्लीक ग्लास की काफी मांग है। ग्लास और क्रिस्टल मिक्स में बढिय़ा फिनिश के साथ तैयार इन स्टाइलिश ग्लासवेयर की कीमत 1500 रु ए से शुरू होती है और यह 18000 रुपए प्रति पीस तक जा सकती है। 

कुछ काम की बातें

  • अलग-अलग स्टाइल के पॉट्स या लैंप  लेकर आप  होम डेकोर को अपने अंदाज में तैयार कर सकते हैं। 
  • दीवारों या दरवाजों  र लगी स्टेन ग्लास की  पेटिंग मेहमानों का ध्यान आकर्षित करती हैं। 
  • ग्लास की कलाकृतियाँ घर के किसी भी कमरे में लगाई जा सकती हैं। 
  • लटकते हुए ग्लास पैनल की फॉल्स सीलिंग का चलन भी इन दिनों खूब बढ़ गया है।
  • खिड़कियों  पर भी पेंट किए या टिनटेड ग्लास लगाए जा सकते हैं। 
  • ग्लास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस पर फ्लोरल से लेकर ज्यामितीय डिजाइनों को खूबसूरती से उकेरा जा सकता है। 
  • ग्लास के फ्रेम हों या ग्लास की मूर्तियाँ, घर में रखी अच्छी लगती हैं। 
  • ग्लास के डेकोरेटिव  पीस फिर चाहे वह चैस बोर्ड हो या झूमर या फिर दीवार  पर लगे पैनल, घर के डेकोर को एक शानदार टच  प्रदान करते हैं। 
  • घर के इंटीरियर में  जब भी ग्लास का उपयोग करें, यह ध्यान रखें कि दीवारों व फर्नीचर का रंग बहुत ज्यादा डार्क न हो। 
  • व्हाइट कलर या पेस्टल शेड्स के साथ इसका इफेक्ट बहुत बढिय़ा आता है। 
  • वुड से ज्यादा ग्लास इंटीरियर के साथ सेरेमिक या मार्बल का ही उपयोग करें। 
  • इसे साफ करने के लिए साबुन के  पानी से कपड़ा मारें व पौछ दें।


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

फैशन की दुनिया में भी सजा देवी देवता का दरबार

 


 


अनुजा भट्ट

अमूमन अध्यात्म और फैशन को एक दूसरे का विरोधी माना जाता है पर फैशन भी अध्यात्म से ही प्रेरणा लेता है। इसलिए दुनियाभर में भारत की कला अपना एक विशेष स्थान रखती है। फैशन और अध्यात्म कैसे एक साथ जुड़ जाता है यह देखना बहुत दिलचस्प है।

 आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति शहर के पास स्थित तिरूमाला और श्रीकालहस्ती नामक  मंदिर हैं। आप में से बहुत सारे लोगों ने इस मंदिर के दर्शन किए होंगे। यहां का प्रसाद चखा होगा। ये मंदिर स्वर्णामुखी नदी के तट पर बसा है। स्वर्णामुखी नदी पेन्नार नदी की ही शाखा है। दक्षिण भारत के तीर्थस्थानों में इस स्थान का विशेष महत्व है। लगभग 2000 वर्ष पुराना यह मंदिर दक्षिण कैलाश या दक्षिण काशी के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के पार्श्व में तिरुमलय की पहाड़ी दिखाई देती हैं । इस मंदिर के तीन विशाल गोपुरम हैं जो स्थापत्य की दृष्टि से अनुपम हैं। मंदिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो अपने आप में अनोखा है। यहां भगवान कालहस्तीश्वर के संग देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी स्थापित हैं। मंदिर का अंदरूनी भाग ५वीं शताब्दी का बना है और बाहरी भाग बाद में १२वीं शताब्दी में बनाया गया है। यह मंदिर राहुकाल पूजा के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।

 

 इस स्थान का नाम  जीव जन्तु और पशु के नाम से  है - श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प तथा हस्ती यानी हाथी के नाम पर किया गया है। ये तीनों ही शिव के  भक्त थे और उनकी  आराधना करके मुक्त हुए थे। इसलिए इस जगह का नाम श्री कालाहस्ती है। एक जनुश्रुति के अनुसार इस तपस्या में मकड़ी ने शिवलिंग पर जाल बनाया, सांप ने लिंग से लिपटकर आराधना की और हाथी ने शिवलिंग को जल से अभिषेक करवाया था। यहाँ पर इन तीनों की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। श्रीकालहस्ती का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार एक बार इस स्थान को देखने अर्जुन भी आए थे और उन्होंने यहां तपस्या भी की। इस स्थान पर भारद्वाज मुनि के आगमन का भी संकेत मिलता है।  कणप्पा नामक एक स्त्री ने यहाँ आराधना की थी।

 फैशन की दुनिया में भारत में कलमकारी को लेकर जिन जो स्थानो की बात होती है उसमें से एक स्थान यह भी है और दूसरा स्थान है मछली पट्टनम। मछली पट्टनम पर चर्चा बाद में करूंगी। कलमकारी की पहचान इन्हीं दो स्थानों से है। श्रीकालहस्ती कलमकारी का भी तीर्थ है। यहां के हस्तशिल्प में मंदिर की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। देवी देवता के चित्र कपड़े पर उकेरे जाते हैं। इन देवीदेवता में शिव के साथ और भी कई देवी देवता को शिल्प कार अपनी कला में व्यक्त करता है। शिव पार्वती के साथ राधा कृष्ण हैं तो बुद्ध भी है। जिस तरह गणपति कलाकार को आकृष्ट करते हैं वैसे ही गौतम बुद्ध की ध्यानमयी आंखें भी। दुर्गा के नेत्र अलग अलग तरह से अभिव्यक्त  पाते हैं।

नए जमाने की भारतीय महिलाएं, परंपरा और फैशन और आधुनिकता को एक साथ स्वीकार करती है। इसके लिए वह प्रयोगधर्मी कलाकार के महत्व देती है। कलाकार भी अपने शिल्प में अपनी लोककथाओं, पौराणिक पात्रों मिथकों को जोड़ते हैं क्योंकि यह हमारे अवचेतन में हमेशा रहते हैं। इसके जरिए डिजाइनर दुनिया के और तमाम डिजाइनरों  पर हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ने में भी सफल हो जाते हैं।  संस्कृति और कला को वह अपनी फैशनेबल शैलियों के एक साथ फ्रेम करते हैं। यही कारण है कि फैशन की दुनिया में भारतीय कला  अपनी लुभावनी सुंदरता और बहुमुखी प्रतिभा के लिए बहुत सराही जाती है।

 कृष्ण रास-लीला, पार्वती, विष्णु, श्री जगन्नाथ जैसे भारतीय देवी-देवताओं के सुंदर रूपांकनों को चित्रित करने के  महाभारत और रामायण से कथा को दृश्य रूप में चित्रित किए जाते हैं।  क्या हम सोच सकते हैं कि एक ब्लाउज भर से ही साड़ी की पूरी अवधारणा को बदला जा सकता है?  सोचिए क्या हाल के दिनों में ऐसा कोई दिन हुआ है कि आपने बुद्ध  का चेहरा,  देवी देवता के चेहरे, गणपति, शिव पार्वती कृष्ण राधा, लक्ष्मी विष्णु, जैसे कई चेहरों को ब्लाउज, कुर्ते , पैंट, पर्दे, साड़ी, बेडशीट या होम डेकोर पर नहीं देखा है? हथकरघा हो, कांजीवरम, कॉटन या जॉर्जेट साड़ी, कलमकारी डिजाइन  सभी के साथ अच्छी तरह से मेल खाते है।  क्रॉप टॉप, जैकेट, पैंट, कुर्ता और  मैक्सी ड्रेस सभी में यह डिजाइन अपना असर छोड़ते हैं।

 मेरी इन सब बातों से आपको भी यह दिलचस्पी पैदा हुई होगी कि आखिर क्या है कलमकारी। कलमकारी शब्द एक फ़ारसी शब्द से लिया गया है जहाँ 'कलाम' का अर्थ है कलम और 'कारी' का अर्थ शिल्प कौशल है। कलमकारी कला एक प्रकार का हाथ से पेंट या ब्लॉक-मुद्रित सूती कपड़ा है, जिसका उत्पादन ईरान और भारत में किया जाता है।  कई सालों से आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कई परिवारों द्वारा इस कला का अभ्यास किया जाता रहा है। यह प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके इमली की कलम से सूती या रेशमी कपड़े पर हाथ से पेंट करने की एक प्राचीन शैली है। इस कला में डाईंग, ब्लीचिंग, हैंड पेंटिंग, ब्लॉक प्रिंटिंग, स्टार्चिंग, सफाई आदि  23 कठिन चरण शामिल हैं।

मंदिरों में इसकी उत्पत्ति के कारण यह शैली एक मजबूत धार्मिक संबंध भी रखती है। इस तरह हम देखते हैं कला का विस्तार और कलाकार के लिए यह धार्मिक स्थल भी प्रेरणा स्रोत हैं। यह हर इंसान पर निर्भर करता है कि ईश्वर को वह किस नजरिए से देखता है। मेरा मानना है ईश्वर हर कण कण में हैं।


रविवार, 20 मार्च 2022

वह साल बयालीस था एक पठनीय उपन्यास

रश्मि भारद्वाज का उपन्यास वह साल बयालीस था एक पठनीय उपन्यास है। उपन्यास की कथावस्तु, संवेदनशीलता के उस चरम बिंदु को छूती है जहां मानवीयता और संवेदनशीलता के बीच गहरा द्वंद भी है और सामंजस्य भी। अंततः कहानी अपने रास्ते से होते हुए दोनों को एकाकार कर देती है। इतिहास, दर्शन कला, साहित्य, प्रकृति को रंगों शब्दों और भावों से एकाकार कर जब वह गद्य रचती हैं तो उसका सुंदर बनना स्वभाविक ही है।

 प्रेम को महसूस करना, प्रेम का छूट जाना, प्रेम में डूब जाना, प्रेम की दीवानगी, प्रेम का अतिरेक, प्रेम से विराग, प्रेम से राग, प्रेम से आसक्ति अनासक्ति से लेकर यह कहानी देशप्रेम के लिए न्यौछावर हो जाने वाले प्रेम की भी कहानी है ।

 यहां लेखिका ने प्रेम शाश्वत है, की अवधारणा को बहुत मजबूती से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। वह उसे  अलौकिक दिव्य सा महसूस कराती हैं । यह कैसी विडंबना है कि इन सबके बावजूद यह शाश्वत प्रेम भी एक बक्से में बंद है और अपनी मुक्ति चाहता है।

 इस उपन्यास में स्त्री की संवेदनशीलता एकरूप है चाहें वह भारतीय है या विदेशी। प्रेम का कोई रूप रंग नहीं होता उसे महसूस किया जा सकता है। कहानी की सूत्रधार अना भी यह महसूस करती है, उसकी दादी रुप भी है और अंग्रेजन... भी।

प्रेम, समर्पण, कर्तव्य, दायित्व, देय, प्रदेय की इस अद्बभुत कहानी में देश और समाज के सरोकार भी है। जानेमाने लेखकों के कोट्स, कविताएं रचना की गतिशीलता को और मधुर और सांगेतिक बनाते हैं।

  यह उपन्यास, कला के उन सभी औजारों से निर्मित है जो आज की रचनाशीलता के लिए बहुत जरूरी है। इस उपन्यास में शैली के रूप में भी कई प्रयोग हैं। कभी यह आत्मकथा है, कभी संस्मरण, कभी यात्रावृतांत, कभी डायरी तो कभी रिपोर्ट।  रचनाकार ने छोटे छोटे नोट्स का इस्तेमाल भी बहुत खूबसूरती से किया है ब्रश के स्ट्रोक की तरह।

  इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे पीछे एक धुन लगातार बज रही हो अपने पूरे माधुर्य के साथ ऊधौ मन न भए दसबीस.. मुझे क़ृष्ण राधा और ऱूकमणि से जुड़ी पौराणिक कथाएं भी बरबस ही याद आई ।  इन सबके बावजूद भी उपन्यास में कुछ छूटा सा लगा। जैसे हाथ में आई गैंद अचानक टप्पा खाकर गिर जाए। मैं तो प्रेम के सरलीकृत रूप पर मुग्ध थी और सोच रही थी काश प्रेम इतना सहज स्वीकार्य होता जैसा यहां दिखाया गया है। इसका उत्तर मुझे फिर अना की दादी के बक्से की तरफ ले जाता है जिसकी चाबी दादाजी ने कभी किसी को नहीं सौंपी। अपने अंत समय में अना को छोड़कर...

 एक सवाल जरूर उठा कि वह दादा जी जिन्होंने अपनी पत्नी रूप के  इस सच को स्वीकार किया कि वह उनसे प्रेम नहीं करती और इसके बावजूद वह पूरे जीवन उससे प्रेम करते रहे औऱ समर्पित रहे। समर्पण तो उनकी पत्नी रूप ने भी किया, दांपत्य को भी जिया पर प्रेम को नहीं। इस गुत्थी भरे जीवन को जीने वाले दादा जी ने अना की मां को क्यों नहीं स्वीकार किया। जबकि वह जानते थे कि उनका बेटा फातिमा से कितना प्यार करता है। उन्होंने अपने बेटे को जीवन भर माफ नहीं किया। यह विरोधाभास खटकता है।

कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय है और ताजगी से भरपूर भी।

किताबों की दुनिया   

वह साल बयालीस था

रचनाकार रश्मि भारद्वाज

सेतु प्रकाशन

 

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

तारीख में औरतें एक जरूरी किताब है डॉ. अनुजा भट्ट


 

तारीख में औरतें

अशोक पांडे

 स्त्रियों की कहानियां कहने के लिए अशोक पांडे एक बड़ा कैनवास रचते हैं। एक ऐसा कैनवास जिसमें कई रंग है और रंगों में घुली हुई है महक। यह सारी कहानियां जिस कोमलता, संजीदगी, अपनेपन की हकदार हैं इनको शब्दों में वैसे ही उतारा गया है। पढ़ते हुए कई बार आंखें नम हो जाती है और इन किरदारों के बीच हर आम स्त्री की झलक दिखाई देने लगती है। एक आम स्त्री के नाते मैं भी इसे महसूस करती हूं। विश्व भर की नायिकाएं जिंदगी में जिस मुश्किल दौर से गुजरती हैं, वह चौंकाने वाला है। लेकिन इन कहानियाें का निष्कर्ष यह है कि आखिरकार आदमियों के दबदबे वाली इस दुनिया में वह अपनी मजबूती से अपना हक पा लेती हैं। हालांकि इसके लिए उनको बहुत कुछ खोना पड़ता है। जिस दिन वह इस सच्चाई से रूबरू हाे जाती है कि जिंदगी न मिलेगी दोबारा, इसलिए इसे अपनी खुशी और अपने आसमान के लिए जी लेना एक अच्छी बात है उस दिन से ही उसके सही सफर की शुरूआत हो जाती है। इतिहास के पन्नों में उसका नाम दर्ज हो जाता है। वह यादगार तारीख बन जाती है। बात बात पर उसकाे उसकी औकात और  ठेंगा दिखाने वाले पुरुष को पता ही नहीं चलता कि उसने ऐसा करके क्या खोया है। 

 उसके अहसानाें काे अपने अहसासों में बदलती, संवेदना के हर तंतु को संवारती, संभालती वह बिखरते हुए भी संवरती जाती है। स्त्री की यही ताकत है जो उसे असीम शक्ति देती है। जिसके साथ चमकीले सपनाें का आसमान लेकर आई थी  उसी से दुःख, पीड़ा, अपमान सहती एक दिन पाती है वह ताे कब की जिंदगी के पन्ने में  हाशिए से भी बाहर है जिसकी उसे खबर नहीं। तब दो ही स्थितियां बनती है या तो वह बिखर जाती है या उसके भीतर की सजग स्त्री जाग जाती है। सवाल पूछने वाली स्त्री, विराेध करने वाली स्त्री किसी को पसंद नहीं आती। लेकिन एक दिन वही सवाल पूछने वाली स्त्री समाज की केंद्रबिंदु बन जाती है।

      अपनी चोटी में बीज टांगकर वह पूरी दुनिया को खेती के गुर सिखा देती है तो कहीं वह चित्रकार बनती है कहीं फोटोग्राफर । कहीं दौड़ती स्त्री है तो कहीं गजल और कविता कहती स्त्री। कहीं अभिनेत्री है तो कहीं गायिका  कहीं अपने बच्चे की मेधा  को पहचान कर उसे वैज्ञानिक बनाने की साध है तो कहीं सुर की मखमली आवाज।

 स्त्री के हर रूप की झलक यहां है। एक मजबूत स्त्री की, एक संवेदनशील स्त्री की।

 मेरी रंगीन पेंसिलों में

 सिर्फ हरी वाली हो गई है छोटी

दिखाती हुई

किस रंग की कमी है मेरे भीतर

माची तवारा की ये पंक्तियां जैसे भीतर तक असर कर गई है।

    

बुधवार, 4 अगस्त 2021

Embroidery of Manipur

 Embroidery of Manipur has a distinct quality and a style of creation. The local people of Manipur are engaged in intricate embroidery work which displays the typical style and trend of Manipur.

Embroidery of Lamphie: Embroidery of Manipur demonstrates a wide variety. Some of the embroidered items are made for warriors, which the king presents the warrior as a mark of distinction. The artisans of Manipur create war cloths which is a special type of shawl called Lamphie. These are created by the women of Manipur and the warriors use them while stepping out for war.www.mainaparajita.blogspot.com
Embroidery of Ningthouphee and Phanek: A type of waist coat, which is popular by the name of Ningthouphee among the local people, is presented by the king to the warriors of the country. The artisans of this area use a unique type of embroidery that uses one stitch. This embroidery employs dark matching shade with untwisted silk thread on the border of the 'phanek' which is a lungi or lower body wrap worn by the local women of Manipur. The fabrics are embroidered with dark red, plum or chocolate colour threads and are usually seen in the local market. The motifs of butterfly, elephant, cockerel etc are used to bedeck the 'phanek' items. The most commonly used embroidery is "Akyobi" design that employs elegant motifs of red with a bit of black and white shade. This embroidery of Manipur is done in an elegant snake-like pattern. This particular design is said to be derived from the legendary snake, pakhamba, which was killed by the husband of a goddess. This design has a circular shape and one circle is joined to the other. Each circle is further broken up into patterns with significant motif and special name. The designs of bee and petals of lotus are created on the base materials. The designs are termed as 'moil', 'khoi mayek', 'tendwa' etc.
Embroidery on Saijounba, Phirananba, Zamphie: The artisans of Manipur create some embroidered items that are well admired by the local people. These embroidered items include Saijounba which is a long coat that is prepared with special embroideries for the very trusted courtiers of the king, Phirananba which are delicately embroidered small flags, Zamphie which is a war cloth worn by warriors, Ningthoupee the king’s cloth, Kumil or ras shirt etc. The artisans involved in the embroidery work of Manipur employ designs like Namthang-khut-hut, Khamenchatpa etc with satin stitch and the Romanian stitch.
Embroidery on Angami Naga shawls: The excellent embroidery work of Manipur display Angami Naga shawls that are embellished with animal motifs in black. Previously, this shawl was termed as 'sami lami phee' (which means warrior cloth of wild animals). This cloth was presented to the brave distinguished warriors by the monarchs for showing appreciation of their prowess and ability. The artisans use bright colours like bright green, red, yellow, and white to create designs on the shawls.
Embroidery on Hijai Mayek: One of the embroidered pieces of cloth, called Hijai mayek worn by widows and elderly women and at funerals, are made by the artisans of Manipur. This is embroidered in black and white with patterns of running lines and circular movements including motifs of battle scenes, swords etc.
Mirror-Embroidery Work: Apart from creating different items using different designs, the local inhabitants of Manipur has mastered Abhala or mirror-embroidery work which they use for creating costumes for rasa dance. The meithei community of Manipur is excelled in the tindogbi design which has received inspiration from a silk caterpillar sitting on a castor leaf and eating it.
Weaving and Embroidery Work: The local people are also adept in the art of creating Shamilami fabric, a combination of weaving and embroidery work. The artisans of this state create different items decorated with Maibung design that stands unique in its appearance and usage of outstanding coloured yarns.
Embroidery of Manipur has an indigenous style to exhibit in the creations of the artisans. The items that are created with much effort of the artisans are much coveted in the local market of Manipur.



मंगलवार, 3 अगस्त 2021

Gadwal Sari is known for its exquisite and unique motifs

The Saree is known for its exquisite and unique motifs of borders on the weft of saree. The Gadwal sarees are a blend or combination of cotton weave fabric in the body and the borders are in contrast with gold zari weave designs over it instead of a plain panel of zari.www.mainaparajita.blogspot.com

The Gadwal silk sarees are simply the same in silk with a plain or butti body but with a design weave motif look on edge border of saree in golden. These motifs of borders can be in anything from floral leaves or architectural inspiration of motifs.

Origin of Gadwal Sarees

They are woven in Andhra Pradesh and have their motif influence from South Indian architectural designs to traditional motifs like lotus and flowers. Cotton use of yarn in the body of saree and zari in the border is what a gadwal saree is, and the use of silk all over is known as Gadwal silk saree.

The Borders of a Gadwal Silk Saree

The sarees are lustrous and have their own beauty and identity for the different weave designs on the side borders. The wit of the borders can be of different sizes as per design concepts. The saree base or body can also have butti weaves or different jaal designs like a Banglori silk saree or Paithani, but the identity is from the border designs.

The designs of the borders are from stripes, temples and coin motifs, florals, and leaf jaal motifs too. The contrasts of the saree borders are the most attractive and make these sarees subtle as well as convenient for all types of occasions.

Most combinations of Gadwal silk sarees are in perfect contrasts like blue and orange, red and green, or complementary hues like pink and yellow or orange and green. The pallu may also have pretty flowering motifs in zari and silk yarn.

The base of the saree is plain with weave in stripes of checkered look with the blend of cotton or just silk. Each pattern concept gives a different look to the saree. Woven buttis in shrubs or flower motifs all over or just a drape panel divided with huge flower wales and leaves. 

Go for the colorful checks in cotton as body and paisley motif’s zari borders, or the plain cotton body with stripes and coin motifs on borders. In gadwal silk sari go for pain silk body with zari and temple border design or the floral wale gold weave design on the border

The sarees are perfect for festivals like pujas and Diwali time, and styling them would be done well with traditional jewelry. Jhumkas, kadas, and bangles, and also malas of coin design to gold beads long malas. As the saree is from south India, the cultural style of jewelry suits very well with the saree.

Try wearing the saree in an open pallu drape or a proper pleated drape at the shoulder. You can always style your hair according to the occasion in a bun, braid or open locks like celebrities do.

 You can also choose to style silk plain blouses with these sarees in contrast colors. Go for silk or brocade blouses as per the kind of pure gadwal silk sarees. For other kinds of gadwal saree choose contrast likes weave designs or motifs on blouse if saree is plain or vice versa.see our productshttps://www.facebook.com/groups/CLUBV


शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

What do you and I do when we have to pass time?

 

What do you and I do when we have to pass time? Books, magazines, internet, games, music, conversations …?
   Here is an account of what tribal women of Kutchh do, they ‘create’ symbols of their culture and custom…
The women of Kutchh carry out embroidery on products that are used at home – wall hangings, quilts, wedding couture, skirts & blouses (ghahgra choli), for children’s clothes, on shirts (kurtas) worn by their husbands, on scarves… basically anything and mostly everything. Some handmade pieces take them months to complete as they also need to tend to household chores and farming.www.mainaparajita.blogspot.com
Broadly there are 7 types of embroideries done in Kutchh – Jat, Soof, Kharek, Rabari, Aahir, Pakko and Mutwa. Let us give you an account of each for better appreciation…Jats are pastoral communities who migrated from western Asia to India centuries ago. The Jat women generally use cross stitch embroidery to cover the whole of fabric in a pre-planned geometric design. They also extensively use mirrors in their work.Soof embroidery is done by the Sodha, Rajput and Meghwal communities of Kutchh. The designs by them are largely geometric patterns developed using satin stitch from reverse side of the fabric. Keen eyesight, knowledge of mathematics and geometry are a must to produce Soof work. Soof motifs include rhythmic patterns from lives of artisans like peacocks, mandalas, etc. and are used to create articles like garments, bedspreads, wall hangings, quilts, torans, cradle cloths, animal trappings and cushion covers…
 Kharek embroidery is done by Sodha, Rajput and Meghwal communities. Artisans outline geometric patterns on a fabric and then fill in the spaces with bands of satin stitching that are worked along warp and weft from the front.
 

Rabari embroidery is done by Rabari communities of Kutch which are predominantly pastoral nomadic communities that rear cattle. The designs produced by them are bold and usually derived from mythology and daily lives. The outline on fabric is made in chain stitch and then filled closely using buttonhole single chain, herringbone stitches. Usually black colored base is used for Rabari embroideries.
Aahir embroidery is done by outlining freehand designs on a fabric using square chain stitch and then filling using closed herringbone stitch. Mirrors are extensively used in this form of embroidery as well.
Pakko embroidery is done by outlining using square chain stitch and tightly filling geometrical patterns using double buttonhole stitches. This embroidery is done by Sodha, Rajput and Meghwal communities of Kutchh Mutawa embroidery is practiced by Muslim herders of Banni grasslands in northern Kutchh. They tiny patterns of Mutawa embroidery employ combinations of square chain, buttonhole, chain, satin, herringbone stitches.

Indeed, when creations reflect essence of cultures and colors of life, it is bound to create magic – thanks to the tribes of kutch..https://www.facebook.com/groups/CLUBV

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

5 WAYS OF ELEVATING YOUR HOME INTERIORS WITH FLORAL


While many are claiming that floral ambience décor is making a comeback in home interiors, we strongly feel that floral décor never went away or lost its charm;Like a timeless marvel, time and again, the florals have led the way to invigorating home spaces, adding new life to them. Be it the statement of singular floral pieces, or floral pattern furnishings, there’s so much you can do with them to power up your home with freshness and a new look.loral prints and patterns are highly versatile and can blend well with all sorts of home aesthetics. While the vintage floral charm is still a classic and a favourite amongst people who like minimalistic décor, the new-age, contemporary floral décor is all about having fun with prints, mix-matched patterns, quirky colours, and a lot more floral drama. 

So, with so much to choose from, here, we give you five stunning ways of decorating with floral prints, as per your taste and personal style so that you can spruce up your interiors with fresh floral motifs, myriad of hues, and breathtaking nature-inspired patterns. 

1.) FLORAL WALLPAPER & WALL ART

The way a floral print can revamp any given wall is just incredible. If you are looking for a vintage look, you can go for symmetrical detail floral print wallpaper for your wall.  For fresh bedroom decorating ideas, the back wall of your bed is ideal for a floral wallpaper or floral wall art. And, for living spaces, either you can go for a corner wall or the central wall, as per your preference and mood.

However, the colours and patterns that you choose when you are going for a floral wallpaper or wall art should complement your home décor and personal taste. So, if you are a maximalist person with a strong liking for dark solid colours, you can go for bold floral prints in deep colours. But, if you are more into minimalism, subdued patterns of wall art in pastel shades will suit you better.

2.) FLORAL FURNISHINGS

In floral decoration ideas, the easiest and super-affordable way to go about is through furnishings.

If you are going for floral bedroom décor, hand block printed floral bedsheets are classics that you simply cannot miss. You can supplement the floral touch with quilts, dohars, and other floral linens.

For living room and other spaces, you can experiment with floral cushion covers, table runners and mats, and even a floral rug to add that extra spice to your sofa sitting area. Again, the idea is to work around your personal choices when choosing the type and size of floral prints. Always go with something that you would love waking up to, after all, a home is your personal space and should exhibit your individual style, right?

Floral Furnishings

3.) FLORAL FIXTURES

If you are looking to totally spice up your home décor with floral prints and patterns, ingraining the flower-power in your upholstery, curtains, and blinds are some ways to embrace them. Also, this is one place where floral designs have surely made a deserving comeback. With contemporary modern floral prints and patterns, there are a lot of options available in floral sofa sets, dining table chairs, and curtains.

However, this being a permanent and long-term investment in florals, you should bear in mind a few important things like the type of floral print you want to use, the durability and feel of the fabric, the colour combinations, how it complements your other decor elements etc.

4.) THE SMALL TOUCHES OF FLORAL ACCESSORIES

For the minimalistic souls in you, who want to play it subtle can go for decorating with floral prints in the form of small elements, décor items, and other things. For example, having a few floral paintings stuck up on the wall can add that flavour of floral without it overpowering the place. Floral lighting is another accessory that would add a delicate touch to your home décor and enliven your space.

Floral table accessories, metal art items, mirrors, etc., can just add that right amount of vintage floral or contemporary floral elegance to your living spaces.

5.) INCORPORATE SOME BUNCH OF REAL FLORALS.

Now, the easiest and freshest way to work around floral is to go au-naturel. We mean why do you only need the prints and patterns of flowers when you can have them for real. Right? Include more plants in your home décor diet and see the wonders that it makes to enliven your ambience. Not only will it keep your home looking fresh as a daisy but having indoor plants can act as air-purifiers, mood relaxants, stress busters, too.

Apart from having some indoor plants, you can also have a variety of flower-blooming plants in your balcony, garden, or terrace garden. Trust us, they’ll just elevate your home style and your vibe!

Experiment. Experiment. Experiment.

If we had to give you one expert advice on home décor and incorporating various prints and patterns, be it floral or any other, we would just say that do not be afraid of trying new things. All of the points that we have mentioned above are your guide to incorporating floral in your homes.

However, all these points come with a couple of common considerations. One, do not go overboard with the floral décor elements, i.e., avoid cluttering your living spaces with just too many floral things at one time, because that’s the last thing you’ll want is an overcrowded home ambience.

Two, work around your individual preferences and aesthetic sense. Go with what your heart says and experiment with various floral prints and patterns and allow yourself to go with your imagination. After all, your home should be your personal style statement.

So, go ahead, find your floral fascinations and work around it and trust us it’ll all turn out good


बुधवार, 28 जुलाई 2021

बारिश के माैसम में बात करेंगे फैशन की


 

मॉनसून के दौरान मरून कलर की मैक्सी ड्रेस, जंपसूट, ऑफ शोल्डर टॉप, रफल्स टॉप, कोल्ड शोल्डर टॉप और ड्रेसेज के साथ शॉर्ट ड्रेसेज की भी मांग बढ़ गई है। चूंकि आजकल लोग फैशन में एक्सपेरिमेंट करना ज्यादा पसंद करते हैं लिहाजा आप भी चाहें तो मरून कलर के साथ ही ट्रेंड में भी अपने कंफर्ट के हिसाब से चेंजेज कर सकती हैं। 

 ग्रीन कलर फ्रेशनेस का प्रतीक है और मॉनसून के लिए परफेक्ट माना जाता है। साथ ही हर तरह के कॉप्लेक्शन पर यह कलर सूट करता है। अगर आपको वॉर्म टोन वाले कलर्स ज्यादा पसंद हैं तो आप मस्टर्ड ग्रीन, खाकी और डार्क ग्रीन के शेड्स पहन सकती हैं और अगर कूल टोन वाले कलर्स पसंद हैं तो ब्राइट ग्रीन या पैरट ग्रीन कलर के ऑप्शन्स पर जाएं। वाइट या येलो जैसे ब्राइट कलर्स के साथ भी आप ग्रीन को मिलाकर पहन सकती हैं। 
पीच शेड पीच एक ऐसा कलर है जो डार्क और लाइट हर तरह के टोन के साथ मैच करता है और मॉनसून के लिहाज से एक क्लासिक शेड है। वैसे तो इस कलर को हर तरह के स्टाइल वाले कपड़ों में पहन सकती हैं लेकिन चूंकि इन दिनों बेल स्लीव्स का फैशन जोरों पर है लिहाजा आप पीच कलर का बेल स्लीव टॉप या शॉर्ट ड्रेस ट्राई कर सकती हैं। साथ ही अपनी ही ड्रेस को हाइलाइट करने के लिए इसे अच्छी तरह से अक्सेसराइज करना न भूलें। 
चॉकलेट ब्राउन एक वक्त था जब चॉकलेट ब्राउन को सिर्फ ट्रेंच कोट या बूट्स के कलर के तौर पर ही देखा जाता था लेकिन आज के समय में यह कलर यूथ को काफी पसंद आ रहा है। खासकर अगर आप मॉनसून के सीजन में किसी पार्टी में जा रही हैं तो चॉकलेट ब्राउन कलर की मैक्सी पार्टी ड्रेस आपके लिए क्लासी ऑप्शन है।


special post

कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट

   हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी ...