शनिवार, 31 मार्च 2018

'me too' (मैं भी)-खयालात- सदन झा


आजकल वैश्विक स्तर पर 'me too' (मैं भी) अभियान चल रहा है। लड़कियां, महिलाएं, यौन अल्पसंख्यक तथा यौनउत्पीड़ित पुरुष हर कोई अपने साथ हुई यौन हिंसा को बेबाकी से, सार्वजनिक रुप में दर्ज कर रहे हैं। अपने ऊपर हुए हिंसा की स्वीकृति दरअसल एक सार्वभौमिक समुदाय का रुप अख्तियार कर रहा है।
अन्य प्रगतिशील कदमों की ही तरह यह पहल भी स्त्रियों की तरफ से ही आया है। परन्तु जैसा कि इस मुहिम में शामिल लिख भी रहे हैं कि यौन हिंसा के शिकार स्त्री पुरुष दोनो ही हुआ करते हैं। ऐसे में एक बेहतर और सुरक्षित समाज के निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि हमारा लिंग चाहे जो भी हो, हमारी इच्छाओं का रंग जो भी, हम चाहे जिस सामाजिक पायदान पर हो और जिस किसी भौगोलिक धरातल पर खड़े हों वहीं से इस मुहिम में शामिल हों।
इस मुहिम का हिस्सा बनने से अपने ऊपर हुई हिंसा की आत्म स्वीकृति से इतना तो तय है कि हममें उस हिंसा से उपजे डर का सामना करने की हिम्मत जगती है। चुपचाप सहते जाने से जो अंधकार का माहौल बनता है वह टूटता है।हम दुनिया के साथ अपने आत्म को यह संदेश देते हैं कि हमारे साथ जो हुआ वह गलत तो था ही पर, साथ ही वहीं उस लम्हे जिंदगी खत्म नहीं हो जाती। कि हम वहीं अटक कर, थमकर नहीं रह गये। कि हमारे यौन हत्यारे हमारी हत्या करने की तमाम घिनौनी करतुतों के बाद भी हमारे वजूद को नेस्तनाबूत करने में नाकामयाब रहे। कि उनके तमाम मंशाओं को मटियामेट करता मेरा देह और मेरा मन मेरा ही है। इस आत्म अभियक्ति और मुहिम का हिस्सा बनने से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि हमारा चेतन भविष्य में दूसरे के प्रति यौन हिंसा का पाप करने से हमें रोके।
जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा 'मी टू' हमें अपनी जिंदगी के अंधकार का सामना करने में मदद करता है। हम उन शक्तियों के खिलाफ एकजूट होते हैं जो इस अंधेरे का निर्माण करते हैं। जो अंधकार को संजोये रखना चाहते। ये अंधेरे के पुजारी हमारे चारो तरफ पसरे होते हैं। इनकी शक्तियां कुछ कदर संक्रामक हुआ करती है कि हमें पता भी नहीं चलता और कि कब यह हिंसा हमारे भीतर उग आता है। हम शोषित से शोषक हो जाते हैं। इस कायांतरण से बचने के लिये भी 'मी टू' मददगार हो सकता है।
आजकल हम भारत में दीपों का उत्सब मना रहे हैं। तमसो मा ज्योर्तिगमय कहते हमारी जिह्वा कभी थकती नहीं। पर, क्या हमें अहसास है कि ऐसे त्योहारों और खुशियों के मौके पर कितने ही हिंसक पशु अपने शिकार की तलाश में जुगत लगाये रहते हैं? हमें देह, नेह और गेह को इनसे सुरक्षित रखने की जरुरत है। इस दीपाबली और उसके परे भी हमें अपने अंदर उग आये अंधकार का प्रतिकार करने की जरुरत है।
यह दुखद है कि जहां वैश्विक स्तर पर इतना कुछ हो रहा है हिंदी जगत और मीडिया की दुनिया इसको तबज्जो नहीं दे रहा। पर, हम औरों की परबाह करे क्यों? वहां जो अंधकार के पुजारियों का कब्जा है उनसे उम्मीद भी कितनी रखें? हम खुद ही तो सक्षम हैं यह कहने को कि 'मी टू'।

special post

कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट

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