रविवार, 18 मार्च 2018

चाहने लगी हूं मैं-अनन्या सिंह


तुम सोचते तो होगे,
कि सोचती क्यों हूँ तुम्हे
शायद खुश भी होते होगे
मन ही मन।
ये मन ही तो है जो
बेपरवाह सभी बातों से
बस लग जाता है यूँ ही किसी से
बिना सोचे समझे।।
मुझे भी नहीं पता कि
तुम क्यों उतरते जा रहे हो
रगों में मेरी
धीरे धीरे बेतहाशा
मगर तुम्हारा ना होना
विचलित करता है
तुम्हारा जवाब ना देना भी
परेशां करता है
तुम्हारी बेरुखी बेचैन
और तुम्हारा ना समझ पाना,
निराश करता है
पर जब तुम बात कर ते हो
तो मेरे होंठ ही केवल नही मुस्कुराते
मुस्कुराता है मेरा अंतर्मन
एक अरसे बाद कुछ गीत फिर गुनगुनाने लगी हूँ मैं
आईने में खुद को देख मुस्कुराने लगी हूँ मै
शायद बता दूं शब्दो मे तुम्हे किसी दिन
तुम्हारी प्रतिक्रिया से डरते रहूं कितने दिन
सच है कि तुम्हे चाहने लगी हूँ मैं।

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