मंगलवार, 15 मई 2018

TUESDAY PARENTING - सुपर माँम बनने जा रही हैं ताे..... अनुजा भट्ट

भारत की स्थिति तो विदेशों से भी ज्यादा खराब है। महिलाएं घर परिवार और कामकाज के दबाव में बहुत तरह की दिक्कतों को झेल रही हैं। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह हर जगह एकदम फिट हो। मानसिक तनाव को दूर करने के लिए उनके पास कोई सटीक रास्ता नहीं है। तनाव को कम करने के लिए सिर्फ एक रास्ता है सच्ची खुशी। पर खुशी क्या होती है इसका अहसास वह खो चुकी हैं। खुलकर हँसे भी कई दिन बीत गए। पति और परिवार के साथ मिलकर अपने मन की बात कहने का वक्त नहीं। परिवार चलाने के लिए पैसे कमाने का दवाब भी है तो बच्चों की सही परवरिश का जिम्मा भी। सबकुछ संभलने के चक्कर में वह खुद को खो रही है और इसलिए वह फ्रस्टेशन में है। भावनात्मक अनुभूति को महसूस करने की शक्ति उसके भीतर से विलुप्त होती जा रही है। वह इससे छुटकारा पाने के लिए नशे की तरफ अपने कदम बढ़ा रही है। भारत में भी महिलाआं द्रारा नशा करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है।
 ब्रिटेन की ज्यादात्तर नई माँएं इस कदर दबाव महसूस कर रही हैं कि उन्होंने खूब शराब पीना शुरू कर दिया है। यही नहीं उनके पार्टनर भी खूब पीने लगे हैं यानी सुपर डैड भी। हालत यह हो गई है कि ज्यादातर बच्चे ऐसे मां-बाप के साथ रहने पर मजबूर हैं जो खतरनाक स्तर तक शराब के आदी हो चुके हैं। जहां शराब उनके लिए तनाव से निजात दिलाने वाला माध्यम बन रही है वहीं इससे उनके बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। जाहिर है कि भविष्य में इस तरह के परिवारों का समाज पर बहुत बुरा असर पड़ने जा रहा है। यह किसी भी समाज के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसा होने का एक कारण एकल परिवारों का बढ़ते चले जाना है। पहले बुजुर्गों के साथ रहने से परिवार का माहौल खासा आत्मीय और सुकूनदेह हुआ करता था लेकिन जब से परिवार में उनके लिए जगह नहीं रही तब से मॉम सीधे-सीधे बच्चों की डिमांड के निशाने पर आ गई। इसके अलावा एफएमसीजी की आक्रामक मार्केटिंग टीवी और पब्लिक स्कूलों का माहौल बच्चों का इस तरह से ब्रेनवाश कर रहा है कि वे साधारण मम्मी-डैडी से संतुष्ट ही नहीं हैं उन्हें सुपर मॉम-डैड ही चाहिए। इन हालात में मॉम पर दबाव और बढ़ जाता है। वे चाह कर भी सहज नहीं रह पातीं और थोड़ी शांति के लिए नशे की शरण में चली जाती हैं। इसका संबंध महिला के कामकाजी होने-नहीं होने से नहीं है।
 संभलिए अभी वक्त है
 भारत में भी पिछले कुछ दशकों में परिवार का आकार छोटा होता गया है। एकल परिवारों की कामकाजी महिलाओं की अपनी परेशानियां हैं। उन पर भी दोहरी जिम्मेदारी है। बड़े शहरों में यह और अधिक है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि परिवार में पारिवारिकता के भाव को नजरंदाज न किया जाए। इसके लिए सबसे जरूरी चीज है आत्मीय संवाद। जब यह कम होने लगता है तब तनाव की शुरुआत होती है। यह फिर धीरे-धीरे हमें डिप्रेशन की तरफ ले जाता है। एक-दूसरे को उसकी जिम्मेदारियों और सीमाओं के साथ समझने वाला संवाद परिवार को बचा सकता है।

TUESDAY PERENTING बेस्ट मॉम के सुझाव


बेहतर प्रफेशनल हों और करियर में चाहे जिस भी मुकाम पर हों , अपने बच्चे को बेस्ट मॉम बनकर उसे हर खुशी देने की चाहत आपके लिए किसी चैलेंज से कम नहीं। घर और ऑफिस की जद्दोजहद के बीच मां बनते ही वर्किंग वुमन की प्रायॉरिटीज अचानक बदल जाती हैं।
हमेशा खुश रहने की कोशिश करती

चंद्रा निगम एडवोकेट होने के साथ - साथ पांच साल की बेटी की मां भी हैं। मां बनने के साथ ही वर्किंग वुमन की प्रायॉरिटी बदल सी जाती है। आपको चाहे ऑफिस और क्लाइंट्स की जितनी भी टेंशन हो , घर पहुंचने से पहले मूड ठीक करना ही होता है। बल्कि सच कहूं तो नन्ही बिटिया को देखते ही टेंशन काफूर हो जाती है। कोशिश होती है कि घर पर काम न ले जाऊं , पर मेरा प्रफेशन ऐसा है कि स्टडी के लिए फाइलें घर लानी ही पड़ती हैं। लेकिन , बच्ची के सो जाने पर ही मैं अपना काम करती हूं।
अक्सर मन होता कि जॉबछोड़ दूं
कमर्शल टैक्स डिपार्टमेंट में काम करने वाली गीता बिष्ट अपने पहले चाइल्ड बर्थ को याद करते हुए बताती हैं , वह सिर्फ पैरंटहुड की नहीं , मेरे करियर की भी शुरुआत थी। बच्चे से जुड़ी छोटी - छोटी बातें भी तब परेशान कर जाती थीं। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आते - जाते वक्त हमेशा जल्दी रहती कि कब और कैसे उसके पास पहुंचूं। वैसे तो मैंने कभी साइकल छुई तक नहीं थी , लेकिन सिर्फ अपने लाडले को ज्यादा वक्त देने की खातिर स्कूटी चलानी सीखी। उसके बीमार होने पर ऑफिस में मन नहीं लगता था। यह बात मन को सालती रहती कि जॉब न होती , तो बच्चे को शायद ज्यादा प्यार और बेहतर परवरिश दे पाती। उसकी बेस्ट मॉम बनने की चाहत में अक्सर मनहोता कि जॉब छोड़ दूं। पर जॉब छोड़ना हथियार डालने जैसा होता।अपने हर संघर्ष को मैंने डायरी में नोट किया है। उम्मीद करती हूं कि बड़ा होकर बेटा इसे पढ़कर समझेगा।
जरूरी था उन्हें वक्त देना
हायर एजुकेशन ले रहे दो बच्चों की मां संगीता बताती हैं कि बेहतर टाइम मैनेजमेंट मां के लिए बड़ा चैलेंज है। ग्रैजुएशन खत्म होने से पहले ही मेरी शादी हो गई थी ,इसलिए मां बनने के बाद पढ़ाई और फिर करियर को आगे बढ़ाना भी एक चैलेंज था। मैंने प्राइमरी टीचर बनकर काम शुरू किया। कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई भी साथ - साथ चलती रही। नन्हे बच्चे को धूप में बाहर लाना अच्छा नहीं लगता था , पर स्कूल से लौटते वक्त उसे क्रेच से घर लाना पड़ता था। बड़े होते बच्चों के साथ जिम्मेदारियां भी बढ़ीं। शाम को कभी बेटे को स्केटिंग या स्वमिंग क्लास ले जाना होता था , तो कभी बेटी को डांस क्लास। उनकी पढ़ाई और होमवर्क की जिम्मेदारी थी , सो अलग।
उसकी छुट्टियां बनीं मेरी भी छुट्टियां
कमर्शल मैनेजर चंचल बनर्जी ने बेटी को ज्यादा से ज्यादा समय देने के लिए फुल टाइम जॉब छोड़कर पार्ट टाइमजॉब कर ली। वह कहती हैं कि बेटी जब 9 साल की थी , तो अक्सर पूछती कि आप ऑफिस क्यों जाते हो , घर पर ही क्यों नहीं रहते। तब मैंने उसे वक्त और परिवार की जरूरत समझाई। धीरे - धीरे जब वह अपनी पढ़ाई और करियर को लेकर सीरियस होने लगी, तो उसने ही मुझे पार्ट टाइम से फुल टाइम जॉब लेने का प्रेशर बनाया। यहां तक कि अब एक मां की तरह मेरी केयर करती है। मैं उसके लिए सारे साल छुट्टियां नहीं लेती। जब उसके समर वकेशन पड़ते हैं , उन्हीं दिनों मैं भी 15-20 दिन की छुट्टियां लेती हूं और उसे पूरा वक्त देती हूं।

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