शनिवार, 1 सितंबर 2018

कहानी- निर्णय - उर्मिल सत्यभूषण

डा. रत्नाकर की कृति
काम्या ने तीनों ड्रामों में बेस्ट परफार्मेंस दी थी। एक ड्रामे में वह स्कूल गर्ल बनी थी। स्कर्ट में सातवीं आठवीं कक्षा के विद्याार्थी का रोल किया था। कपड़े या परिधान पूरा व्यक्तित्व ही बदल देते हैं। दूसरे में वह एक फ्लर्ट युवती का रोल कर रही थी और तीसरी में युवा विधवा का। तीनों अलग अलग तरह के किरदार थे पर बड़ी निपुणता से उसने निभाए थे।
उम्र उसकी होगी कोई तीसक साल पर लगती बहुत कम थी। शरीर बिल्कुल छरहरा था। चेहरा बेरौनक था बेशक उसे सुसज्जित करके रखती थी हालांकि चुलबुलेपन के आवरण में चेहरे के एक्सप्रेशन दबे छुपे रहते थे। नजदीक से बात करने पर आंखों का खालीपन महसूस होता था और शरीर पर भी नवविवाहिता जैसी लुनाई या स्निग्धता दिखाई नहीं देती थी। ऊपर से वह बेपरवाह खिलंदडी हिरणी सी दिखाई देती थी ‐‐‐‐ सारे ड्रामा ग्रुप की एक्टीविटीस में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती थी। घूमना, माॅल में जाना, पिक्चर देखना, लड़कों के साथ बेबाक बेलौस हो बतियाती, हंसती, मजाक करती, कभी कभी तो फ्लर्ट जैसा व्यवहार करती।
वे लोग खुलकर बातें करते। अपने रिलेशनशिप को भी। ड्रामें के कम्पलीकेटेड चरित्रों को लेकर भी चर्चायें होती कि ऐसे चरित्र भी होते हैं?  तब जाकर थोड़ा सा भेद खुला या बल्कि सभी अभिनेता अभिनेत्रियों के अन्तद्र्वन्द्व और मनोग्रन्थियांे, मनोविकार उजागर होने लगे थे।
पता चला काम्या को भी डिप्रेशन ने ही घेर रखा था कि उसने ड्रामा ग्रुप का विज्ञापन देखकर ही वह ग्रुप ज्वाइन किया था। वह अपनी शादी से संतुष्ट नहीं थी। उसकी शादी हुए दो साल हो गए पर शादीशुदा जीवन का शुभारंभ नहीं हुआ था। सब उससे सहानुभूति रखते थे पर किसी ने उसकी प्यास बुझाने की जाने या अनजाने कोशिश नहीं की थी। सभी खिलाड़ी (अभिनेता लोग) संस्कारी और विचारशील थे। नजदीकियां बढ़ने लगीं तो प्यासे तनमन की पुकारें भी सुनाई देने लगीं। यदाकदा रिहर्सल के दौरान उसकी कामातुर चेष्टायें मर्यादायें पार करने लगी तो उनकी निदेशक को बात करनी पड़ी।
काम्या उन्हंे अपनी स्थिति समझाते समझाते रो पड़ी।  उसका पति अच्छी पोस्ट पर था। सौम्य, सुदर्शन युवक पर पता नहीं क्यों शादी के निकष पर खरा नहीं उतर पा रहा था। उसने पत्नी से संबध नहीं बनाये। उदास सा बना रहता। काम की व्यस्तता भी बहुत थी। कभी खुलकर काम्या ने भी बात नहीं की। संकोच छोड़कर पहल करने की कोशिश काम्या ने की थी पर पति को तो स्त्रीतन से ही शायद एलर्जी थी। वह उसकी छटपटाती देह को छोड़कर चल देता। वह अपमान का घूंट पी कर रह जाती। कैसे बात करे? वह किससे बात करे?
यूं बाहर घूमने के लिए, खाने पर पति उसे ले जाता बल्कि हनीमून पर भी हो लोग गए थे पर ठंडा गोश्त बेजान ही रहा और वे बेजान ही लौट आए।
अब कानाफूसियां होने लगी थीं कि शायद उसका पति गे है। अब उसका पति उसे कहने लगा था कि वह डायर्वोस ले ले, उसकी तो शादी में या सेक्स में कोई रूचि ही नहीं है। अपनी डायरेक्टर के समझाने पर उसने मनोचिकित्सकों से भी संपर्क किया था पर पति उनके पास जाने को राजी ही नहीं हुआ था ‐‐‐
इसी ऊहापोह में दिन बीत रहे थे।
एक दिन वह रात को ड्रामें की पोशाक में ही लौट आई थी, रात बहुत हो चुकी थी, मेकअप नहीं उतरा था। वह दुल्हन के वेश में थी। दरवाजा कुशाग्र ने ही खोला था। काम्या की मांग में सिंदूर की जगरमग रेखा ने कुशाग्र की आंखो में कामना के डोरे खींच दिये। वह बेहद थकी थी। बोली:- मुझे नींद आ रही है:- मैं सोने जा रही हूं। डायवोर्स पेपर्स तैयार करवा दिये हैं। ये रहे पेपर्स - देख लेना - गुड नाइट और वह साड़ी उतारकर बेहोश सी पलंग पर गिर गई।
कुशाग्र बेडरूम में चला आया। उसकी अस्त व्यस्त देह देखकर घबरा सा गया। उसने उसके खुले बालों को धीरे से छुआ, एक पुलकित लहर उसके भीतर दौड़ गई। उसने उसे स्वतःचालित ही सीधा किया एक चित्ताकर्षक सुगंध उसके नासापुटों में भर गई। उसकी नजर उसकी मांग की रेख और नाक की जगमगाती लौ पर ठहर गई जो उसे बार बार विहृल करने लगी।
एक आंसू काम्या के गाल पर रूका हुआ था धीरे से झुककर कुशाग्र ‐ने उसे होंठों में समेट लिया। अधजगी अधसोई काम्या ने उसके गालों में बाहों का हार डाल दिया। वह उत्तेजित होकर उसे चूमने लगा। वह भी सचेत होकर उससे लिपट गई। जाने कैसे उसके ठंडे तन मन में स्पंदन उठ उठकर बिजलियों में परिवर्तित होते चले गए।  समुद्र ठाठें मारता रहा, मर्यादायें पार करता रहा:
वह कामना के ज्वारों में जानें कितनी उम्रों तक डूबती उतराती रही।
‘सुबह की चाय - आवाज देकर कुशाग्र ने उसे जगाया।
एक नशा सा तारी था। चाय पीकर थोड़ा नशा उतरा, होश आया ‐ ‐‐ पेपर्स पर नजर गई।
ये तुम्हारे डायवोर्स पेपरज काम्या - डायवोर्स चाहिए न तुम्हें।
हां हो डायवोर्स: चाहिए चाहिए मुझे डायवोर्स।
ठीक है:- पहले मैं अपना हक तो ले लूं। कुशाग्र ने फिर उसका मुंह हथेलियों में लेकर लौंग पर उंगली रखी। सिंदूर की रेखा पर आंख गडाई: फिर चूम लिया।
‘काम्या, तुम इतनी सुंदर हो। पहले तो कभी सिंदूर नहीं लगाया। कभी नाक में कील क्यों नहीं पहनी। इन्होंने कितना सुंदर बनाया तुम्हें।
‘‘सुहागरात के लिए क्या इन शर्तों की जरूरत थी कुशाग्र, मेरी देह, मेरा व्यक्तित्व अपने आप में पूर्ण नहीं हैं क्या?
काम्या नहीं: मैंने दो साल तक अपना अपमान सहा। आपको पाने का इंतजार करती रही।कुशाग्र: मेरी सुंदरता के पाने के लिए ये उपादान चाहिए? सिंदूर, लौंग, आभूषण। नहीं कुशाग्र मेरी चेतना जाग चुकी है। कामना का ज्वार मेरे जागरण को अब फिर सुला नहीं सकता। दाम्पत्य की जो अनिवार्य शर्त है वह हमारे बीच में नहीं है।
हम निरंतर सुलग सुलग कर नहीं जी सकते। पूर तरह अजनबी बनकर हम नई शुरूआत करेंगें।
काम्या के ठंडे ठीर शब्दों की फुरैरी उसके कामना ज्वारों को भाटों में बदल चुकी थी। वह फिर स्पंदनहीन सन्नाटों से घिर रहा था।  वह उसके पास सरक आई: ठंडा बेगान हाथ अपने हाथ में लेकर काम्या कहने लगी:- कुशाग्र, मुझे समझ आ गई है कि हम एक दूसरे के लिए नहीं बने। मेरी अतृप्त देह को तृप्ति का स्वाद तुमने चखाया मैं आभारी हूं पर ऐसी तृप्ति काम्य नहीं हैं। हम जल्दी ही इक दूजे को भूल जायेंगें। हम डायवोर्स पेपर्स पर साईन करेंगें और एक दूसरे को शुभकामनाएं देंगें।  जब तक यह सारी कार्यवाही पूरी नहीं होती हम वैसे ही मित्रवत रहते रहेंगें: शांत - सन्नाटों से घिरे - चुपचाप।
ठीक है
ठीक
धीरे से उसका हाथ चूमकर उठ गई काम्या।
AJC-6-300

Special Post

मिथक यथार्थ और फेंटेसी का दस्तावेज-डॉ. अनुजा भट्ट

  (अब पहले की तरह किस्से कहानियों की कल्पनाएं हमें किसी रहस्यमय संसार में नहीं ले जाती क्योंकि हमारी दुनिया में ज्ञान, विज्ञान और समाज विज्...