अपने बचपन की हल्की सी स्मृतियों में मुझे बायस्कोप की याद है। एक बड़ा सा डिब्बा नुमा यंत्र जो हाथ से चलता था और उसमें कई तरह के रंगीन कागज का प्रयोग होता था। ये रंगीन कागज चमकीले होते थे। उस यंत्र में एक गोलाकार छेद होता था। यह छेद उतना ही बड़ा होता था जिसमें आप अपना चेहरा टिका सकें। उस बक्से के अंदर चित्रों का एक रोल लगा होता था। बक्से के बाहर एक हैंडल होता था। यह हैंडल उसी तरह का था जैसा जूस वाले अंकल के जूसर का था। अंकल जिस तरह जूस निकालकर देते उसी तरह बायस्कोप वाले अंकल भी हमारे चेहरे को फंसाकर बाहर से उसी तरह घुमाते औऱ अंदर चित्र घूमने लगते। इस तरह से चित्र देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। तब क्या पता था कि स्क्राल शब्द हमारी जिंदगी में इतना घुलमिल जाएगा कि हमारी उंगलियां सुबह से शाम स्क्राल ही करती रहेंगी।
मुझे यह
देखकर हैरानी हुई कि किस तरह चीजें एक जगह से दूसरी जगह जाकर बदलती तो जरूर है पर
स्थायी ढांचा एक ही होता है। जादोपटिया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मैं आपको जादोपटिया
की कहानी सुनाऊं इससे पहले कुछ बातें करना भी जरूरी है। 'जादोपटिया'
शब्द
का अर्थ है जादूई चित्रकार। जादोपटिया कला को संथाल समाज का पुश्तैनी पेशा कहा जा
सकता है। हरियाणा के सुरजकुंड मेले में जब झारखंड को थीम स्टेट बनाया गया था, वहां जादोपटिया को प्रदर्शित किया गया था।
झारक्राफ्ट के माध्यम से इसे बेचा भी जा रहा है।
दरअसल, जादो संथाल में
चित्रकार को कहा जाता है. इन्हें पुरोहित भी कहते हैं. ये कपड़े या कागज को जोड़कर
एक पट्ट बनाते हैं फिर प्राकृतिक रंगों से उसमें चित्र उकेरते हैं. जादो द्वारा
कपड़े या कागज के छोटे–छोटे टुकड़ों को जोड़कर तैयार पट्टों को जोड़ने के लिए बेल
की गोंद का प्रयोग किया जाता है। प्राकृतिक रंगों की चमक बनाए रखने के लिए बबूल के
गोंद भी मिलाया जाता है। चित्र को उकेरने के लिए लाल, पीला, हरा, काला, नीला आदि रंगों
का प्रयोग किया जाता है। खास बात यह कि ये रंग प्राकृतिक होते हैं हरे रंग के लिए
सेम के पत्ते, काले रंग के लिए कोयले की राख, पीले रंग के लिए हल्दी, सफेद रंग के लिए पिसा हुआ चावल आदि का प्रयोग
किया जाता है. रंगों को भरने के लिए बकरी के बाल से बनी कूची या फिर चिडि़या के
पंखों का प्रयोग करने की परंपरा है। प्रकृति
से प्राप्त जल-आधारित रंग जादोपटिया कारीगरों द्वारा अपने स्क्रॉल को चित्रित करने
के लिए उपयोग किया जाने वाला माध्यम था। लाल रंग आमतौर पर धार्मिक और पौराणिक
चित्रों में प्रयोग किया जाता है। सफेद रंग उपयोग करने के बजाय यह उसे
"खाली" के रूप में छोड़ देते हैं।
आज हम पट्टा पेंटिंग को जादोपतिया पेंटिंग की
विविधता के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। लंबी स्क्रॉल पेंटिंग को पट्टा पेंटिंग
या पटचित्र के नाम से जाना जाता है। झारखंड से पैटकर पेंटिंग, पश्चिम बंगाल औऱ उड़ीसा से पट्टचित्र इसी तरह की
पेंटिंग का विकास है। पश्चिम बंगाल में, पटचित्र-चित्रकारी
समुदायों को पटुआ के नाम से जाना जाता है। इन्हें झारखंड में पाटीदार, पाटेकर या पैटकर के नाम से भी जानते हैं। पद्य, पटचित्र का स्रोत है। पद्य या पद दो पंक्तियों की
छंदबद्ध कविता है। पैतकर पेंटिंग की कथात्मक स्क्रॉल शैली पांडुलिपि से ली गई है, जिसका उपयोग राजाओं द्वारा अन्य राजाओं को संदेश
देने के लिए किया जाता था।
चित्रों के जरिए इस कहानी में मिथक, साथ ही आदिवासी जीवन, अनुष्ठान की बातें बतायी जाती हैं। चित्रित विषय
की प्रस्तुति कथा या गीत के रूप में लयबद्ध कर की जाती है । चित्रकारी के लिए
बनाया जानेवाला यह पट्ट पांच से बीस फीट तक लंबा और डेढ़-दो फीट चौड़ा होता है।
इसमें कई चित्रों का संयोजन होता है। चित्रों में बॉर्डर का भी प्रयोग होता है।
चित्रकला का विषय सिद्धू-कान्हू, तिलका मांझी, बिरसा मुंडा जैसे शहीदों की शौर्य गाथा के अलावा
रामायण, महाभारत, कृष्ण लीला भी होती है।
मृत्यु का शोक औऱ उम्मीद की कहानी है यह
जादोपतिया चित्रकार उन घरों में जाते थे जहाँ पहले
किसी की मृत्यु हो गई थी। सभी लोग एक बैठक में जमा हे जाते हैं। गांव समुदाय और बिरादरी
के लोग इसमें शामिल होते हैं। सब लोगो के
आसन ग्रहण करने के बाद जादोपतिया चित्रकार अपना आसन ग्रहण करते हैं। उसके बाद एक
जादोपतिया चित्रों का एक रोल लेकर उसे घुमाता जाता है एक के बाद एक चित्र आता रहता
है और दूसरा कथावाचक कहानी सुनाता है। यह कहानी, एक मृत
व्यक्ति की है जिसकी आंखों में पुतली को नहीं चित्रित किया है। कथावाचक
परिवार को उसकी पीड़ा के बारे में बताया है और उसकी मुक्ति के लिए पुतली (चक्षु दान) दान का अनुरोध करता है। कहानी
सुनने के बाद सब उसे दान देते हैं और आत्मा की मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। इसके
बाद जादोपतिया अपनी एड़ी पर बैठ जाता है
और अपने स्क्रॉल खोलता है। वह बताता है कि मृत व्यक्ति स्वर्ग में खुश है। यह जानकर परिवार
संतुष्ट हो जाता है। इस कथा का या इस तरह की रीतिनीति का मूलतत्व यह है कि ऐसा करने से
शोक मनाने वालों को उनके दुख से उबरने में मदद मिल सके। इस उपाय का जब अच्छा
प्रभाव पड़ा तो इन चित्रकारों का नाम जादोपटिया पड़ गया। संथाल मृतक के जले हुए
अवशेषों को पवित्र दामोदर नदी में बहाते हैं। अस्थि
चुनने के लिए संथाल जादोपटिया को दामोदर की यात्रा करने के लिए आमंत्रित करते हैं।