हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी लिखी थी। नौकरी की तलाश में शहर छूटा साथ में छूट गई और भी बहुत सारी चीजें। पर यह शहर अब भी मेरी आत्मा में बसता है। अब भी जाना होता है साल दो साल में। पर इस बार जाना हुआ एक खास मकसद के साथ। मकसद था लोगों को अपनी संस्कृति को बचाने के लिए एकजुट करना। दूसरा मकसद था हाल ही में कुमाऊंनी भाषा में साहित्य रचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से संयुक्त रूप से नवाजे गए साहित्यकारों चारू चंद्र पांडे जी और मथुरा दत्त मठपाल जी से मिलने का।
उस दिन मौसम बहुत सुहावना था। बारिश की कभी तेज तो कभी रिमझिम फुहारों में भीगते हुए कहीं अंदर मन भी भीगा भीगा सा था। ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर से अजान की आवाज आ रही हो तो कभी यही आवाज मंदिर की घंटी के रूप में सुनाई देने लगी। कहीं पेड़ों पर चिड़ियों की आवाज तो कहीं आम से लदे वृक्ष। पानी की सर सर बहती आवाज, आते-जाते लोग अपनी ही दुनिया में मस्त बेखबर बच्चे मिलते गए और हम चलते गए। यह दोनो भाव एकाकी होकर मेरे मन को छूने लगे। मेरे पति मुझसे भी ज्यादा मिलने के लिए बेसब्र थे। हमें इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि कुमाऊंनी बोली के साहित्यकारों को साहित्य अकादमी सम्मान तो दिया गया और इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। आखिर कहां चली गई है हमारी चेतना। दरअसल हम जिस मायावी दुनिया में जी रहे हैं वहां से संवेदना सिरे में गायब हो गई है। साहित्य कोई पढ़ता नहीं और साहित्य पढ़ने के लिए कोई प्रेरित भी नहीं करता। घर में पत्र पत्रिकाओं का आना बंद है तो ऐसे में सृजन का संसार कैसे पैदा हो। जब इस बरक्स कोई बात की जाए तो अमूमन लोगो का जवाब होता है साहित्य पढ़ने से क्या होगा? खैर छोड़िए इन बातों को और चलिए हमारे साथ इन दोनो शख्सियतों से मिलने।
हल्द्वानी में एक जगह का नाम है ऊंचापुल। हल्द्वानी से दमुवाढूंगा जाते समय यह रास्ते में पड़ता है। आप ऊंचापुल चौराहे पर उतर जाइए। अब अपनी बाई तरफ से गली नंबर 1 से लेकर 10 तक का रास्ता तय कीजिए। जैसे ही गली नंबर 10 आएगा आपको अपनी दाहिनी ओर लीची का बगीचा दिखाई देगा। इसी बगीचे के एन सामने दिखाई देंगे लाल फ्लैट। यहीं रहते हैं उत्तराखंड के कबीर माने जाने वाले साहित्यकार चारूचंद्र पांडे। उम्र 92 साल। गौर वर्ण, लंबा कद, ओजस्वी चेहरा, तीखे नैकनक्श, लंबे कान, मधुर आवाज। सफेद रंग का पैजामा कुर्ता पहने अपने कक्ष में आराम कर रहे है। प्रणाम किया तो हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, पर पहचाना नहीं। वर्षों वाद मिले थे। और जब पहचाना तो बोले हां एक बार पत्र मिला था तुम्हारा। जायसी पर कुछ जानना चाहा था तुमने। हां तब मैं बीए की विद्यार्थी थी। 15 दिन के संक्षिप्त प्रवास के लिए आप हमारे यहां ठहरे थे। और उन दिनों गीता का कुमांऊनी में अनुवाद कर रहे थे। फिर समय चलता रहा और हम उसके पीछे पीछे।
अभी हाल ही में कुमाऊंनी भाषा के लिए पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार की जब घोषणा हुई तो मन फिर से मिलने के लिए बेचैन हो गया। कुमांऊनी भाषा में पहली किताब लिखने का श्रेय उनके खाते में दर्ज है जिसका नाम था,लोक कवि गौर्दा का काव्य दर्शन। कभी आपको कुमाऊ की होली की बैठक में जाने का अवसर मिले तो ऐसी बहुत सारी होली बहुत सारे मांगलिक गान आपको सुनाई देंगे जिनको गाते हुए न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले हुए हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कुमाऊंनी संस्कृति में शाóीयता और राग का खास महत्व है। इसका अपना एक अहं रोल है। यह शाóीयता रामलीला के संवादों से लेकर से लेकर होली में भी दिखाई देती है जहां सब में राग हैं रंग है, छंद हैं बंध हैं। पांडे जी ने कई होली गीत लिखे तो शादी ब्याह के संस्कार गीत भी लिखे।
श्री पां़डे की को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय प्रसिद्ध कथाकार इलाचंद्र जोशी जी को जाता है जो उन दिनों आकाशवाणी में कार्यरत थे। उन्होंने इनको आकाशवाणी लखनऊ में 30 मिनट का टाक शो करने का निमंत्रण दिया जिसका विषय था कुमाऊंनी लोकगीतो पर प्रकृति का प्रभाव। 30 मिनट का यह टाक शो काफी सुना गया।
पढ़ाई के शुरूआती दौर में विज्ञान पढ़ने वाला विद्यार्थी आगे चलकर साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हो गया। इसे नियति का खेल कह सकते हैं जो रास्ते बनाती भी है। अगर आपके भीतर गजब की इच्छाशक्ति है तो गरीबी आपकी महत्वाकांक्षा को दफन नहीं होने देती। अपने अतीत की परछाई के पन्ने पलटते पांडे जी भावुक हो जाते हैं पर अपने बारे में बताना जरूरी समझते हैं अन्यथा हम आप,आम जन कैसे जान सकेंगे उनके जीवन की संघर्ष गाथा को। हां गाथा ही तो है जिसे वह कविता के शब्दों में पिरोते हैं तो कभी नाटक लिखते हैं। पढ़ाई जारी रखनी है तो पैसे चाहिए और पैसे के लिए नौकरी करना जरूरी था। इसीलिए अल्मो़ड़ा से टीकमगढ़ आना हुआ। उस समय वहां महाराजा ओरछा थे। जिनके यहां इनको नौकरी मिल गई। 41 में इंटर करके टीचर बन गए। वहां बनारसीदास चतुर्वेदी रहते थे। उनसे प्रेरणा पाकर इन्होंने बीए किया वहां के महाराजा के कहने पर बीटी करने बीएचयू बनारस आ गए। उस समय राधाकृष्णन कुलपति थे। राजकुमार चौबे जैसे अध्यापक थे जिन्होंने 22 विषयों में एम.ए किया था। वह गणित भी पढ़ाते थे और हिस्ट्री आफ एजूकेशन भी। बीच में साहित्य सृजन बाधित रहा।
1955 में पहली कविता धर्मयुग में छपी। साहित्य संस्कार हो चुका था पर साहित्यक संसार में धमक अभी बाकी थी। इस तरह घूमते घुमाते जीवनयापन करते फिर से अल्मोड़ा आ गए। कहते हैं रचनाशील व्यक्ति का कैनवास बहुत बडा होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने का बीड़ा उठाया। महफिल जमनी भी शुरू हो गई। अल्मोड़ा में अमृतलाल नागर, बनारसीदास चतुर्वेदी, बेगम अखतर और बिरजू महाराज के सुर और घुघरू बजने लगे। आकाशवाणी लखनऊ में उत्तरायण कार्यक्रम तो हवामहल के लिए नाटक प्रस्तुत होने लगे। लेखनी की धारा विकल्प पहाड़ सरस्वती पत्रिका में भी दस्तक देने लगी। सरस्वती में गुमानी पर छपे लेख की चर्चा हुई तो पुरवासी में कविताओं की। आखर, दुधबोली और पहरू के लिए लिखा। रजत सम्मान 2009,1968 में राष्ट्रपति सम्मान, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्रारा सम्मानित, उमेश डोबाल स्मृति सम्मान जैसे कई सम्मानों से सम्मानित। गीता का कुमाऊंनी भाषा में अनुवाद किया। जिसका प्रकाशन होना बाकी है। और भी बहुत कुछ है उनसे जानने के लिए, समझने के लिए पर अभी इजाजत लेनी होगी। वह इस समय पूरे मूड में हैं। होलियां गा रहे हैं। कविताएं सुना रहे है। डायरी में से अपनी प्रिय कविताएं खोज रहे हैं। मैंने रिकार्ड आन किया है। उनकी मधुर आवाज में उनकी कुमाऊंनी कविताएं मैंने रिकार्ड कर ली है। साझ घिर आई है और अभी कई पड़ाव पार करने हैं।
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चारू चंद्र पांडे जी के घर से निकलते ही अंधेरा हो गया था सोचा सुबह उठकर रामनगर जाएंगे। साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजे गए मथुरा दत्त मठपाल जी से भी मिलना होगा।
उस दिन बारिश बहुत थी इसलिए रामनगर जाना नहीं हो सका। लेकिन अगर आप उनसे मिलना चाहते हैं तो पता है पंपापुर-रामनगर में एक जगह है पंपापुर। मथुरा दत्त मठपाल जी का निवास वहीं है। मेरी मथुरा दत्त जी से फोन पर विस्तृत बात हुई। पर हां सामने बैठकर बात करने का जो आनंद है उससे मैं वंचित ही रही। पर अपनी अपनत्व से भरी बोली में उन्होंने कहा कितना अच्छा होता यदि आप कुमाऊंनी में ही बात करती, पर कोई बात नहीं अपनी भाषा संस्कृति के प्रति तो आपने मन में लगाव हुआ ही। चलिए सुनिए मेरी कहानी .. तो 29 जून 1941 को अल्मोड़ा के भिकियासेन गांव में मेरा जन्म हुआ। मेरा जीवन गांव में ही बीता। 35 साल तक राजकीय स्कूल में इतिहास पढ़ाता रहा। इसी क्रम में मुझे खुद को जानने समझने का मौका मिला। अपनी संस्कृति के प्रति एक जवाबदेही तय की। संसाधन थे नहीं और न आज हैं फिर भी जुनून तो है। जब मैं पूछती हूं आपका साहित्यक गुरू कौन है। तो बड़ी जोर का ठहाके लगाते हुए कहते हैं। मेरा कोई गुरू नहीं। किताबे ही मेरी गुरू है। वैसे वह मेरी मां ही हो सकती है जो ठेठ कुमाऊंनी में बोलती थी। हिंदी उसे आती नहीं थी। इसलिए भाषा का परिष्कार वहीं से हुआ। फिर मैंने दुधबोली करके एक कुमाऊंनी भाषा में साहित्यक मैग्जीन निकाली जो पहली मैग्जीन थी। पहले यह त्रैमासिक थी अब साल में एक निकालता हूं। करीब 350 पेज की पत्रिका है। मैं बीच में रोकती हूं, यह तो बहुत सुंदर काम कर रहे हैं आप। यह काफी श्रमसाध्य भी है। पर मेरा एक सवाल है आपसे। आखिर कुमाऊंनी भाषा के विकास में क्या रुकावट है जो इसे अंतरराष्ट्रीय मंच में स्वीकार्यता नहीं है। बहुत जरूरी सवाल पूछा है आपने दरअसल सबसे बड़ी बात यह है कि इस क्षेत्र में की कई उपबोलियां भी हैं। इसलिए मानकीकरण बहुत जरूरी है। यानी एक ऐसी भाषा बनाई जिसमें सब उपबोलियों को भी शामिल किया जाए। यह कार्य कठिन है पर असंभव नहीं है। जिनके भीतर अपनी संस्कृति अपनी भाषा के लिए कुछ करने की इच्छा है। वह इसे कर सकते हैं। प्रयोगों का दौर शुरू हो गया है मैंने करीब 6000 होलियां संकलित कर ली है। होलियां हमारी विरासत भी है और हमारी सांस्कृतिक पहचान भी इससे जुड़ी हुई है। फिल हाल तो मैं होली के रंगों में डूबा हुआ है।
बात तो आगे ले जाने के उद्देश्य से मैं उनको बीच में ही रोकती हूं यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है। चलिए अब अपनी रचनात्मक उपलब्धि के बारे में बताएं। उपलब्धि यह सुनकर उनको हँसी आ जाती है। हँसी की यह गूंज मेरे कानों तक सुनाई देती है। तकनीक का असर है कि मैं उनको सुन रही हूं उनकी खनकती हँसी महसूस कर रही हूं पर आमने सामने नहीं. .तो कुल जमा जोड़ यह है पाठकों कि कुमाऊंनी भाषा इनकी पहली किताब है आंग चितेल हैगो( शरीर में खुजली सी है ), पैमे क्याप्प कै बैठ़ड़ू( फिर मैं कुछ का कुछ कह बैठता हू) तीसरी किताब है फिर प्यौली हँसे( फिर प्यौली हँसती है) राम नाम बहुत ठूल इनकी पांचवी किताब है। अब बात पुरस्कार की करते हैं। सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार के अलावा उत्तराखंड भाषा संस्थान का डा. गोविंद चातक सम्मान, शैलवाणी पत्रिका के शैलवाणी सम्मान इनके खाते में दर्ज हैं।
यह थी हमारी सांस्कृतिक यात्रा जिसमें हम उत्तराखंड के साहित्यित शीर्ष पर चमकते दो सितारों से मुखातिब हुए। बहुत सारे सितारों से मिलना बाकी है। बहुत से गुमनाम है जो बर्फ की ओ़ड़नी ओड़े समय की सफेद चादर से घिरे हैं। जब फिजा बदलेगी तो निःसंदेह उत्तराखंड अपनी साहित्यिक सांस्कृतिक चकाचौंध से पूरी दुनिया को विस्मित कर देगा।