(अब पहले की तरह किस्से कहानियों की कल्पनाएं हमें किसी रहस्यमय संसार में नहीं ले जाती क्योंकि हमारी दुनिया में ज्ञान, विज्ञान और समाज विज्ञानों की उपलब्धियों ने इस तरह की घुसपैठ कर ली है कि वे सारी चीजें हमारी जानकारियों आदतों और कल्पनाओं का हिस्सा बन गई हैं। ) यह वाक्य इस किताब का सार कहता है। एक नजर इस किताब पर.
कलबिष्ट खसिया कुल देवता की कहानी एक प्रेमकहानी है। यह कहानी दो जातियों के वर्चस्व और क्षरण की भी कहानी है। इसमें एक और कहानी भी छिपी है जिसमें प्रेम प्रतिदान मांगता है। मुझे इस कहानी में कलबिष्ट के साथ कृष्ण और कमला के साथ राधा भी दिखते है। कलबिष्ट और कृष्ण दोनों ग्वाले हैं और बांसुरी बजाते हैं। राधा और कमला मोहित हैं बांसुरी की तान पर और बांसुरी वाले पर।
दोनो का प्रेम परवान चढ़ता है पर समाज में स्वीकार्य नहीं। कृष्ण और राधा एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं पर कलबिष्ट और कमला नहीं। कलबिष्ट अहं, जातिवाद और शोषक और शोषित की भेंट चढ़ जाता है और अंततः एक लोकदेवता के रूप में मूर्ति में निरूपित। क्योंकि वह अजातशत्रु के रूप में जाना जाता है इसलिए वह न्याय का देवता है। जागर उसके बिना अधूरा है।
लोक देवी देवता जो हमारे पुरखे हैं उनको प्रसन्न करने के लिए जागर लगाया जाता है और इस जागर में कलबिष्ट को कई तरह से याद किया जाता है। उसे खुश करने के लिए कई तरह की युक्तियां है संगीत है, आग है और है भयभीत वातावरण। मुक्ति की कामना में उठे हाथ।
कलबिष्ट ग्वाला चरवाहा अपनी बांसुरी के उदास सुरों में समूची बिनसर पहाड़ी में नोमेद संगीत का जादू बिखरेने वाले के रूप में ख्यात हो गया और उस ग्वाले में चंद राजा के दीवान सकाराम पांडे की कलाप्रेमी पत्नी कमला का दिल आ गया। वह पूरा दिन उससे बांसुरी सुना करती।
सकाराम पांडे जिसकी ख्याति नौ लाख का राजस्व उगाहने के कारण नौलखा पांडे के नाम से थी उसके लिए यह सब सुन और देखपाना असहनीय था। जैसा हर पारंपरिक कथा कहानी में होता है वैसा ही यहां भी हुआ कल बिष्ट की बहुत वीभत्स तरीके से हत्या करवा दी गई। उसे मारना आसान नहीं था। उसे सदाशयता का वरदान मिला था इस कारण वह बार बार बच जाता था।
कलबिष्ट मारा जाता है पर उसकी आत्मा विचरती रहती है। अब उसकी पूजा होने लगती है और वह मंदिर में स्थापित हो जाता है। जैसे जैसे प्रसंग आगे बढ़ने लगता है तार्किकता संवेदनशीलता और यथार्थवादी बाजारीकरण की कथा के बीच में आते हैं पुरखे। अन्याय और शोषण सहे पुरखे तथाकथिततौर पर औतरने (नाराज) लगते हैं और फिर धीरे धीरे एक दिन मंदिर में स्थापित हो जाते हैं। उनके बहाने से समाज के पैरोकार एक नया समाजशास्त्र रचते हैं जिसे मानव मन की चाशनी में इस तरह डुबोया जाता है कि यह जानते हुए भी यह सब झूठ है हम सच कहने में डरने लगते है। हमें मानने पर मजबूर किया जाता है कि हमारे पुरखे अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने आ गए हैं वह हमारे सपनों में दस्तक देते हैं और जीवन में जितने भी कष्ट हैं उसके लिए उत्तरदायी है। उनको शांत करने के लिए कुछ किया जाना है। इस कुछ के भीतर एक मायाजाल है। इस मायाजाल में आधुनिक सुखसुविधाओं से लेस यह सामाजिक है जिसे मंहगी गाड़ी फोन जूते घडियां और रत्नों से भरी अंगूठियां से पहचाना जा सकता है। अंगूठियां राशियों पर छाए संकट हरण का प्रतीक हैं। गांव में सौ साल पहले की दादी और ग्वाल्वेकोट की गोपुल्दी जैसे अनेकों किरदार अगल अलग समय में अलग अलग लोगों से रचे जाते हैं। यह किरदार हर बार कहानी में कुछ नया टिवस्ट लाते हैं लिहाजा औतरना (नाराज) भी पहले से ज्यादा भयभीत करता है। कहानी में रोमांच, भविष्य और जिंदगी की ऐसी डोज भरी जाती है कि हर एक के लिए बस यही एक दवा है और इससे मुक्ति के लिए जागर लगता है। वास्तव में जिन जिन को यह पुरखे परेशान कर रहे हैं वास्तव में वह मनोरोगी हैं उनका इलाज किया जाना जाना चाहिए।
पुरखों का डर बिठाना और फिर शांति के लिए एक बड़े इवेंट जागर का आयोजन करना और इस बहाने घर गांव में अपनी पहचान सुरक्षित करना और इस सेल्फी युग में रील बनाना प्रचारित और प्रसारित करना हिट की जद्दोजहद और इसमें भी रार के साथ पुरखा पुराण का पटाक्षेप होता है।
इन सबके खिलाफ बोलने वाला टारगेट किया जाता है और यह टारगेट विश्वव्यापी है। भोज जैसा एक सामान्य सा शिष्टाचार जिसमें परिवार के सब लोग मिलजुलकर हाथ बटाते थे अब केटरर के हाथों में है। मैं उस दौर की प्रत्यक्ष गवाह हूं जिसे मैंने अपने बचपन में जिया। सामूहिकता का अर्थ जहां सृजन था। एपण हो रंग्वाली का पिछौड़ा बनना हो या फिर मिठाई। स्वेटर की बुनाई हो या फिर बहुत कुछ और। सभी के चेहरे पर उल्लास की दीप्ति थी। आधुनिकता और बाजार ने सबसे पहले सामूहिकता पर प्रहार किया। और हमारे भीतर के डर को और मजबूत। कारण यह था कि अपना मन साझा करने के लिए हमारे पास विश्वास के चंद लोग भी नहीं थे। हस्तशिल्प के विकल्प के तौर पर रेडीमेड ने दस्तक दी। तो मोबाइल के मैसेज और स्टेटस ने इन शब्दों का अर्थ पूरी तरह बदल दिया।
इस किताब में लेखक की मनोदशा हमें घर घर की कहानी लगती है। जिस संवेदनशीलता से लेखक ने इस प्रसंग को लिखा है वह साहस और दूरगामी सोच को लक्षित करता है। इतिहास में हम देखते हैं कि जब जब सामाजिक जागरण की बात हुई तब तब ऐसे नायक को समाज ने किस तरह लिया। राजाराम मोहन राय जैसे लोगों की आज भी जरूरत है क्योंकि अधिकांश कहानियों में पात्र स्त्री ही है। वह ही दंडित है वह ही लक्षित।
लेखक भी समाज की इस विसंगति का शिकार होने से बच नहीं पाता। वह लिखता है
अपने ही जीवन में मानो मेरा पुनर्जन्म हो चुका था जिसे मैं महसूस कर रहा था मगर स्वीकार नहीं कर पा रहा था मैं ऐसी विसंगति का हिस्सा बन चुका था जो मेरी वास्तविकता तो थी मगर मैं उससे जल्दी से जल्दी मुक्त होना चाहता था।
इस किताब में कई सवाल है जो साथ साथ चलते हैं जाति का सवाल भी इससे ही जुड़ा है। लेखक जैसे खुद की खोज भी करता है। वह इसके लिए इतिहास मिथक और भूगोल के साथ सामाजिक तानेबाने पर भी नजर रखता है। वह बार बार दोहराता है कि जब सब जातियां एक बराबर है जब सब मनुष्य एक जैसे हैं तो यह वर्ण व्यवस्था कहां से आई। क्यों बनाई गई। मनुष्य के मन में मनुष्य के प्रति सीमाएं क्यों तय की गई। अगर ऐसा न होता तो राधा कृष्ण के बीच में कोई न होता और कमला और कलबिष्ट के बीच में भी।
इस किताब में लोकोक्ति की भी विवेचना है जो कहानी सा रस देती है। कई लेखकों और विचारों को भी लिया गया है। यह इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि इससे हमें कथा के नए आयाम भी पता चलते हैं जो एक नया दृष्टिकोण बनाते हैं। मिथकीय कहानियां हमें देवीदेवता के परंपरागत रूप से अलग रूप का भी परिचय देती हैं। यह मूर्तियां उस समय के समाज और उसका मन पढ़ने के लिए काफी है।
कलबिष्ट- खसिया कुलदेवता
लोकदेवता के बहाने उत्तराखंड का सांस्कृतिक आख्यान
लेखक- बटरोही
प्रकाशक -समय साक्ष्य देहरादून
मूल्य- 125 रुपये
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