रविवार, 8 जुलाई 2012

जन समुदाय में राजनैतिक चेतना का स्वरूप / अशोक गुप्ता




जन समुदाय में राजनैतिक चेतना की ज़रूरत पर बात, करना बार बार जाने सुने और कहे गये को दोहराने जैसा ही होगा. जिस देश में लोकतंत्र हो, यानि, जिसमें राजनैतिक सत्ता की स्थापना जन समुदाय ही करता हो, उसमें नागरिकों का राजनैतिक चेतना से संपन्न होना तो अनिवार्य है. ऐसे में इसकी ज़रूरत पर बात करना स्वतः सिद्ध को सिद्ध करने जैसा निरर्थक है. लेकिन छाप तिलक से लैस होना, मंदिर मस्जिद गुरद्वारे या चर्च जाना भर सही अर्थ में ईश्वर के प्रति आस्थावान होना नहीं कहा जा सकता. हम जानते ही हैं कि आदि काल से अब तक यह प्रसंग विचार के केंद्र में है कि आस्तिक होना, ईश्वर के सानिध्य में होना क्या है, और इसके विवेक की फिर फिर व्याख्या का क्रम जारी है. ऐसे में इस प्रश्न का भी फिर फिर संधान ज़रूरी है कि जन समुदाय में सार्थक राजनैतिक चेतना होने के लक्षण क्या हैं और उस चेतना का स्वरूप क्या होना चाहिए.
लोकतंत्र में समूचे जन समुदाय की तीन परतें हैं. एक तो वह, जो राजनैतिक व्यवस्था की परिधि में भीतर उतर कर भागीदारी करती है. विभिन्न राजनैतिक दलों का समुदाय इसी श्रेणी में आता है. एक परत वह है जिसे शासकीय नौकरशाह कहा जाता है. यह वर्ग सैद्धांतिक रूप से संविधान द्वारा संचालित होता है और व्यावहारिक रूप से इसकी लगाम राजनीतिक व्यवस्था की परिधि के भीतर होती है. ऐसे में यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि यह दोनों परतें कमोबेश सत्ता नियंत्रित हैं. इस वर्ग में राजनैतिक चेतना का होना वैकल्पिक नहीं है बल्कि एक अनिवार्यता है और इस की राजनैतिक चेतना सत्ता पर काबिज होने या बने रहने के मंसूबे से गढ़ी जाती है. इसके लिये चेतना का अर्थ जन हित हो यह अनिवार्य नहीं है. वस्तुतः है भी नहीं, यह हम इन साठ वर्षों में देख चुके हैं.  
जन समुदाय की तीसरी पर्त में जनहैं. जिनका हित देखना ,जिनके नागरिक अधिकारों की रक्षा करना  यह दायित्व उपरोक्त दोनों घटकों के हाथ में है. एक घटक सत्ता है दूसरा प्रशासन. इस, जन कहे जाने वाले घटक के हाथ में मतपत्रके अलावा और कुछ नहीं है. वह जनादेश देता है, उसके परिणाम स्वरूप अपनी उमीद बांधता है, और रोता झींकता और किंचित भविष्य के सपने देखता टाइम पास करता जाता है. ऐसे में, इस वर्ग की राजनैतिक चेतना का मतलब क्या है... ?
मतलब है. पहला तो यह कि वह वर्ग अपने हित को अपनी दृष्टि से, अपने विवेक से देख समझ सके. उसे अपने संवैधानिक और प्रशासन प्रदत्त अधिकारों की जानकारी हो. और उसमें यह समझ हो कि राजनैतिक परिधि के भीतर विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रत्याशियों की रणनीति क्या है. उसे यह भान हो कि इनकी घोषित और अन्तर्निहित चालों का समीकरण क्या है, और यह पता हो कि इन दर्जनों राजनैतिक दलों के भीतर जुड़ाव और विखंडन की क्या गहमा गहमी चल रही हो. यह सब पता चलना इस वर्ग के लिये आसान नहीं है, लेकिन मीडिया इसे आसान बनाता है. प्रिंट मीडिया यानि मुख्यतः अखबार और इलेक्ट्रौनिक मीडिया यानि मुख्यतः टेलीवीज़न इस जानकारी के वाहक हैं. यह, जन कहे जाने वाला वर्ग स्वतंत्र है कि वह मीडिया के विभिन्न वाहकों की चारित्रिकता को परखे और उस पर विवेक पूर्वक विश्वास-अविश्वास करे. यह सारा क्रिया कलाप जन से निभे और उसे अपनी ताकत के इस्तेमाल के एकमात्र दिन यानि चुनाव के दिन तक अपनी भूमिका के प्रति स्पष्ट दिखे, यही उसकी राजनैतिक चेतना का अर्थ है.
अब देखिये, क्या जन के अतिरिक्त, उपरोक्त बताये गये दोनो घटक, इस बात में अपना हित समझेंगे कि नागरिकों की मानसिकता में स्वतंत्र विवेक और चयन की समझ का विकास हो..? कतई नहीं. सारे राजनैतिक दलों का तो यही मंसूबा होगा कि जन मानस के सोच के ऊपर उनके तिलस्म का जादू रहे, जनता अपने अनुभवों और अपनी स्मृतियों के संकेत से बाहर आकर, बस उनके मसूबों का मोहरा बन जाए. ऐसा करनें में, बिना जन समुदाय के विवेक को कुंद  किये, वह  कैसे सफल हो सकते है ? लेकिन वह सफल हो तो रहे हैं.
कैसे...?
ऐसे, कि वह जन समुदाय की राजनैतिक चेतना का स्वरूप खुद तय कर रहे हैं. उन्होंने जन समुदाय के बीच यह छद्म उपजा दिया है कि राजनैतिक चेतना का अर्थ है किसी न किसी राजनैतिक दल का पक्षधर हो जाना. इस तरीके से जन समूह का सोच, राजनैतिक लोगों की रचित परिधि की यथास्थिति बाहर जाएगा ही नहीं. जन समुदाय का स्वतंत्र विवेक और विश्लेषण तंत्र काम करना बंद कर देगा और जन समुदाय को इस बात का भ्रामक गर्व भी रहेगा कि वह राजनैतिक चेतना से संपन्न नागरिक है. उस दशा में जन की सक्रियता अपने वांछित राजनैतिक दल की प्रस्तुत अच्छाइयों को खूब याद रक्खेगी और उसका गायन करेगी, लेकिन उस दल की काली करतूतों पर पर्दा डालने में पीछे नहीं रहेगी  . इस तरह सत्ता, राजनैतिक दलों की ही तरह जन समुदाय को भी बांटने में सफल रहेगी.
यहाँ संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जब तक समूचा जन समुदाय देश के बंटवारे की चूक को, 1975   के आपातकाल को, 1984 के प्रायोजित दंगों को, गुजरात के मोदी रचित नर संहार को, बावरी मस्जिद गिराए जाने को, सिंगूर नंदीग्राम कांड को और किसी भी दौर में हुए भ्रष्टाचार को एक नज़र से देख कर इनके प्रति अपना विरोध जाहिर करना नहीं सीखेगी, तब तक उसकी यह तथाकथित राजनैतिक चेतना, निरर्थक ही होगी. अभी तो नरेंद्र मोदी के हत्या कांड को उचित ठहराने वाला जन समुदाय भी है, और चौरासी के प्रायोजित दंगों को भी बस यही माना जाता रहेगा कि जब कोई बड़ा पेड़ उखाड़ता है तो धरती हिलती ही है... और तो और, एक दल के अत्याचार के खुलासे से दूसरे दल की पक्षधर जनता खुश ही होती है कि चलो उनके दल के बचाव के लिये कोई मुद्दा हाथ आया. लेकिन यह तो राजनैतिक चेतना का प्रतिफल नहीं हुआ.
तो, जन समुदाय की राजनैतिक चेतना केवल तब अपनी सही भूमिका पाएगी जब वह अपने हितों और अपने अधिकारों के पक्ष में जन विवेक से पैदा होगी. उस से राजनैतिक दलों की करतूतों पर भी अंकुश लगेगा और नौकरशाही को भी जन पक्षधर होने में मदद मिलेगी.
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सदन में शहीदे आजम- असगर वजाहत



 हमारे लोकतंत्र पर चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। लेकिन हमारे प्रतिनिधि इन हमलों को नाकाम कर देते हैं। हो सकता है कि हमारे प्रतिनिधि अपनी सज्जनता और भोलेपन के कारण पहले हमलों को न समझ पाते हों लेकिन जब समझ जाते हैं तो जान पर खेल कर लोकतंत्र को बचा लेते हैं। दु:ख और चिंता की बात यह है कि उनके जान पर खेलकर लोकतंत्र बचाने के प्रयासों की सराहना उनको खुद ही करनी पड़ती है। जबकियह काम जनता का है लेकिन जनता आजकल क्रिकेट मैच, भोंडे टेलीविजन कार्यक्रम, शेयर मार्केट का उतार चढ़ाव, सोने का बाजार, प्रापर्टी की कीमती हेरफेर, बिना किए करोड़पति हो जाने के सपने ही देखती है। खैर हमारे जन प्रतिनिधि किसी बात का बुरा नहीं मानते। वे मानते हैं कि जनता को न बदला जा सकता है न वे किसी दूसरे देश में जाकर जनप्रतिनिधि बन सकते हैं।
 हमारे लोकतंत्र पर ताजा हमला एक बदबू ने कर दिया है। हमारे कर्मठ, प्रतिभावान, समर्पित प्रतिनिधि चाहते हैं कि सदन की कार्यवाही साल में कम से कम दो सौ दिन तो चले पर व्यवधान डालने वाले इस कार्यवाही को समेट कर सौ से भी कम आकड़ें पर खड़ा कर देते हैं। इन दिनों सदन की कार्यवाही बहुत सुंदरता से चल रही थी कि अचानक सदन पर बदबू ने हमला कर दिया। यदि हमला करने वाला कोई ओर होता तो हमारे प्रतिनिधि सीना तानकर खड़े हो जाते। चूंकि हमलावर अदृश्य था। इसीलिए हमारे प्रतिनिधि विवश हो गए। पर यह बहस  चलने लगी कि यह दुर्गंध कैसी है। कुछ ने कहा कि यह गैस की बदबू है। इस पर  पूछा गया कि किस कंपनी की गैस की बदबू है। थोड़ा  खुलकर कंपनी का नाम बताया जाए। बदबू से कंपनी का नाम बता देना सरल था लेकिन सदन खामोश रहा। बहस यह होने लगी कि दुर्गंध कहां से आ रही है। एक सदस्य ने कहा कि वह जब से जनप्रतिनिधि चुनकर आया है तब से उसे यह दुर्गंध आ रही है। इस पर पूछा गया कि इससे पहले दुर्गंध की शिकायत क्यों नहीं की ? प्रतिनिधि ने बताया कि वह तो दो साल पहले ही चुनकर आया है। उसे लगा था कि शायद जिसे वह दुर्गंध समझ रहा है वह दुर्गंध नहीं सुगंध है जिसे सदन में बड़े प्रयासों से फैलाया गया है। नए सदस्य के इस वक्तव्य पर कुछ दूसरे सदस्य  नाराज हो गए और उन्होंने नए सदस्य पर जातिवादी होने का आरोप लगाया। अब बहस जातीय आधार पर बंट गई और जाति- विशेष की तरफ इशारे होने लगे। बहस को लाइन में लाते हुए एक अनुभवी सदस्य ने कहा कि पिछले पच्चीस साल से वह यह दुर्गंध महसूस कर रहा है। बात पीछे खिसकते खिसकते यहां तक पहुंची कि अंग्रेज जब हमारे देस को आजाद करके गए थे तब से यह दुर्गंध सदन में है। यह अंग्रेजों द्रारा छोड़ी गई दुर्गंध है। इस मत का पूरे सदन ने समर्थन किया और कहा गया कि विदेश मंत्रालय इस पर सख्त कार्यवाही करे और ब्रितानी सरकार से कड़े शब्दों में पूछा जाए कि यह मामला क्या है। कुछ सदस्य बदबू के ब्रितानी षड्यंत्र होने वाले बिंदु से इतना उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि अंग्रेज तो जो भी छोड़ गए सब से बदबू  आती है। रेल की पटरियां गंधाती है, गेट वे ऑफ इंडिया से लेकर इंडिया गेट तक बदबू ही बदबू है। नौकर-शाही से दुर्गंध आती है। आई.पी. सी से सड़ी गंद आती है। शिक्षा- व्यवस्था की हालत तो गंदे नाले जैसी है। सदन के जिम्मेदार सदस्यों ने जब बहस को यह मोड़ लेता देखा तो बोले यह सब छोडि़ए, यहां इस सदन में इस गंध के लिए जो जिम्मेदार है उससे जवाब तलब किया जाना चाहिए। इस पर मेजे बजने लगीं।
 सदन के कुछ प्रभावशाली यह बहस होने से पहले सदन की कैण्टीन में सस्ते दरों मे मिलने वाली बिरयानी खाने चले गए थे। वे वापस आए तो  उन्होंने यह बहस होते देखी। वे बहुत नाराज हो गए। एक सीनियर सदस्य ने कहा- आप लोगों को शर्म नहीं आती?
 आप इसे बदबू कह रहे हैं?
फिर यह क्या है?    
 यह तो लोकतंत्र की सुगंध है।
 ये कैसे?
 अरे आप को शर्म नहीं आ रही? यह तो डूब मरने की जगह है। आपको मालूम है कि हमने लोकतंत्र कितने बलिदान देकर हासिल किया है? कितने शहीदों का खून बहा है। कितने घर उजड़े हैं। कितनों ने काला पानी काटा है। कितने फांसी के फंदे पर झूले हैं। कितनी बहनों का सुहाग उजड़ा है। कितनी माओं की गोदें सूनी हुई हैं। तब हमें लोकतंत्र मिला है।  आप लोगों की इन ओछी हरकतों से आज स्वर्ग में राष्ट्र्पिता पर क्या गुजर रही होगा। सुभाषचंद्र बोस कितना दु:खी होंगे और शहीदे आजम का कलेजा टुकड़े- टुकड़े हो गया होगा . . . . अगर उनके सामने .. .. ..अगर उनके सामने
 अचानक सभी सदस्यों की आंखें एक तरफ को उठ गईं। धीरे धीरे  नपे तुले कदमों से एक नवयुवक सदन में दाखिल हो  रहा था। उसका तेजवान लंबोत्तर चेहरा था। बड़ी बड़ी संवेदना और विचार में डूबी आंखों से वह सबको देख रहा था। उसने फ्लैट हैट लगाई हुई थी। चेहरे पर शानदार मूछें फब रही थी। नौजवान धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा। उसने अपने हाथ में कुछ लिया हुआ था। नौजवान के रोबदाब के आगे सबकी घिग्गी बंध गयी थी। बड़ी हिम्मत करके एक सीनियर सदस्य ने पूछा- आप कौन हैं?
  नौजवान ने जोर का ठहाका लगाया। उसकी आवाज देर तक सदन में गूंजती रही। कुछ क्षण बाद वह बोला- क्य यह बताने की जरूरत है कि मैं कौन हूं।
 एक सदस्य ने पूछा- चलिए यही बता दीजिए कि आप किस चुनाव क्षेत्र से चुनाव जीतकर आए हैं.?
 अब की नौजवान ने फिर जोर का ठहाका लगाय। लेकिन यह डरावना ठहाक था। चुने हुए प्रतिनिधि कांप गए। सदन की दीवारें  थर्रा गईं। नौजवान ने आग उगलती आंखों से आंखें मिलाने की हिम्मत किसी में न थी। कुछ ठहरकर एक सदस्य ने पूछा- आप का धर्म? आपकी जाति। नौजवान ने नफरत से का- मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरी कोई जाति नहीं है।
 तीसरे प्रतिनिधि ने कहा- तब तो श्रीमान जी आज की तारीख में आपको किसी चुनाव क्षेत्र से हजार वोट भी न मिलेंगे।
 मैं यहां  वोट लेने नहीं आया हूं। वह आत्मविश्वास के साथ बोला।
 फिर श्रीमान जी यह तो लोकतंत्र का मंदिर है .. . यहां ..?
 एक सीनियर सदस्य बात काटकर बोला- मैं इन्हें पहचान गया हूं यह शहीदेआजम हैं।
 अरे बाप रे बाप। पूरे सदन में यह वाक्य गूंज गया। सभी सदस्य हैरान परेशान हो गए।
 ये आपके हाथ में क्या है शहीदेआजम?
 ये बम है।
 बम?
 हां बम?
 इसे यहां क्यों लाए हैं?
 इसे यहां फेंकने लाया हूं।
 यहां फेंकने?
क्यों शहीदेआजम?
 यहां बदबू आती हैं ना?
 हां आती है।
 बदबू का यही इलाज है।
 लेकिन ये बम
 सदन एक जोरदार धमाके की आवाज से थर्रा गया। चारों तरफ धुआं ही धुआं हो गया। जन प्रतिनिधि मेजों से नीचे छिप गए। जब धुआं छटा तो उनमें से कुछ ने मेज के नीचे से सिर निकाले।
 एक बोला क्या चले गए शहीदेआजम?
 तुम देखो।
 नहीं तुम देखो।
 चले तो गए हैं पर जाने कब चले आएं।
 हां यार ये तो है।
 तो मेज के नीचे ही रहें।
 सदन की कार्यवाही?
 चलती ही रहेगी क्योंकि सभी मेजों के नीचे हैं।
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