The fashion of the whole world is contained within the folk art.
शनिवार, 6 जुलाई 2024
क्या आप धार्मिक फैशन के बारे में जानते हैं-डा. अनुजा भट्ट
मैं इन दिनाें महसूस कर रही हूं कि धर्म और धार्मिक आस्थाएं अब फैशन के जरिए एक नया तरह के ट्रेंड सेट कर रही हैं। खुद मेरे पास भी इस तरह के बहुत से प्रोडक्ट हैं जिसे लाेग खरीदते रहते हैं। यह ज्यादा कीमत से लेकर मामूली कीमत में भी मिल जाते हैं। गायत्री मंत्र ताे अब हर जगह मिल जाता है। सिक्के से लेकर साड़ी दुप्ट्टा, हाेम डेकाेर और आभूषण में भी। नामी गिरामी कंपनियां भी इसे बना और बेच रही हैं । सिलेब्रिटी पुलकित सम्राट से लेका नीता अंबान जैसी कई सिलेब्रिटी अपने पहनावे में धार्मिक मंत्र दर्शन काे महत्व दे रही हैं। यह कितना बाैद्धिक है कितना आध्यात्मिक और कितना व्यवसायिक यह कहना जल्दबाजी हाेगी। पर जिस तरह से पुलकित ने शादी में मिंट ग्रीन कलर की शेरवानी पहनी थी और जिस पर गायत्री मंत्र लिखा था उसी के साथ उन्हाेंने शेरवानी के साथ मैचिंग कलर की धोती, स्टोल और पगड़ी भी पहनी थी । शेरवानी को कॉम्प्लीमेंट करने के लिए उन्होंने मोतियों की माला नहीं, बल्कि ग्रीन स्टोन का हार चुना। हाथों में रिंग और कानों में डायमंड स्टड के साथ पहना। आने वाली इस तरह उन्होंने दूल्हों को एक्सपेरिमेंट करने के काफी सारे ऑप्शन्स दिए। वहीं नीता अंबानी ने अपने बेटे अनंत अंबानी की शादी में एक शानदार लाल रेशमी बनारसी साड़ी पहनी थी, जिस पर बारीक सोने की ज़री का काम और पक्षियों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। हालाँकि यह पहनावा पहले से ही आकर्षक था, लेकिन असली आकर्षण तब सामने आया जब उन्होंने पल्लू दिखाया जिसपर सोने में कढ़ाई करके पवित्र गायत्री मंत्र लिखा हुआ था। मुझे लगता है अब इस धार्मिक आस्थाएं भी बाजार में अपनी जगह बना रही हैं। जिसे हम खरीद रहे हैं। कुछ मंत्र बहुत पापुलर हाे गए हैं। रचनात्मकता का यह प्रयाेग बहुत संजीदा भी है। लेकिन यहां संजीदगी गायब है। मेरा नजरिया है सृजन का विस्तार हाेना चाहिए। पर इस विस्तार के साथ कुछ गाइडलाइंस भी हाेनी चाहिए। यह सब बहुत पवित्र मंत्र हैं। हिंदू धर्म में गायत्री मंत्र को महामंत्र भी कहा जाता है। मान्यता है कि दुनिया की पहली पुस्तक ऋग्वेद की शुरुआत इसी मंत्र से होती है। ब्रह्मा जी ने चार वेदों की रचना से पहले इस मंत्र की रचना की थी। ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। इसका पहला अर्थ है: हम पृथ्वीलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक में व्याप्त उस सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के तेज का ध्यान करते हैं। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की तरफ चलने के लिए परमात्मा अपने तेज से हमें प्रेरित करे। दूसरा अर्थ है: उस दुःखनाशक, तेजस्वी, पापनाशक, प्राणस्वरूप, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें। हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में परमात्मा प्रेरित करे। तीसरा अर्थ है: ॐ: सर्वरक्षक परमात्मा, भू: प्राणों से प्यारा, भुव: दुख विनाशक, स्व: सुखस्वरूप है, तत्: उस, सवितु: उत्पादक, प्रकाशक, प्रेरक, वरेण्य: वरने योग्य, भर्गो: शुद्ध विज्ञान स्वरूप का, देवस्य: देव के, धीमहि: हम ध्यान करें, धियो: बुद्धि को, यो: जो, न: हमारी, प्रचोदयात्: शुभ कार्यों में प्रेरित करें। एक पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषि विश्वामित्र ने इस मंत्र के बल पर ही एक नई सृष्टि का निर्माण किया था। इसी से पता चलता है कि यह मंत्र कितना शक्तिशाली है। ऐसा कहा जाता है कि इसके हर अक्षर के उच्चारण से एक देवता का आह्वान होता है। जब भी इस तरह का पहनावा पहनें ताे याद रखें कि गायत्री मंत्र स्नान करके पहनें। वस्त्र गंदा न हाे। आप इस मंत्र काे धारण करते हैं ताे इसकी पवित्रता का भी ख्याल रखें। पहनने से पहले साेचे आपने क्या पहना है उसका महत्व क्या है। बिना विचारे कुछ भी न पहने। किसी भी चीज काे खरीदते समय भी अगर नहीं पता है तो दुकानदार से पूछिए यह क्या लिखा है इसका अर्थ क्या है। मेरा मानना है धार्मिक शिक्षा मंत्र वाले परिधान और आभूषण काे पहनने वाले की उस पर आस्था भी हाेनी चाहिए। आप क्या कहते हैं.
गुरुवार, 4 जुलाई 2024
गुट्टापुसालू क्या है और इसकी चर्चा आज क्याें है- डा. अनुजा भट्ट
ईश्वर के प्रति आस्था ही है जाे हम प्रतीक के जरिए खुद से जोड़कर रखना चाहते हैं। हमारी जीवनशैली में भी इसका खासा प्रभाव है। गुट्टापुसालू भी एक प्रतीक ही है। गुट्टापुसालू" नाम तेलुगू शब्द "गुट्टा" से लिया गया है जिसका अर्थ है गुच्छा "पुसालू" का अर्थ है मोती। आंध्र प्रदेश के आभूषणाें में यह खास माना जाता है। इसकी विशेषता इसकी बुनावट में हैं। प्रकृति से प्रेरित यह आभूषण सबसे पहले देवी देवता के लिए बनाए गए। उसके बाद दक्षिण भारतीय आभूषणाें में मंदिर के प्रतीक का प्रयाेग सबसे ज्यादा हाेने लगा। साैंदर्य और आस्था का यह अद्भुत मेल था।
आज जब नीता अंबानी ने अपने बेटे के विवाह समारोह में गुट्टापुसालू हार पहना ताे मन में यह सवाल आया कि आखिर उन्हाेंने इसे ही क्याें चुना। इससे पहले भी शादी समाराेह में वह दक्षिण भारतीय लाेकप्रिय साड़ी कांजावरम् पहन चुकी हैं। भारतीय कला और संस्कृति के प्रति प्रेम कभी वह नृत्य के जरिए प्रकट करती हैं कभी पहनावे से। इस बार उन्हाेंने जाे साड़ी पहनी उसमें गायत्री मंत्र लिखा था। सिलेब्रिटी जब कुछ पहनती हैं ताे वह ट्रेंड भी बनता है जाे कला और कलाकार दाेनाें के विकास के लिए जरूरी है।
वैसे भी दक्षिण भारतीय आभूषण, अपनी शिल्पकला, समृद्ध प्रतीकात्मकता और भव्य डिजाइनों के कारण, दुनिया भर में जाने जाते हैं। माना जाता है कि दक्षिण भारतीय आभूषणों की जड़ें सिंधु घाटी और चोल राजवंश जैसी
प्राचीन सभ्यताओं में पाई गई हैं। सोना, जो धन और
समृद्धि का शाश्वत प्रतीक है, दक्षिण भारतीय आभूषणों की नींव बना। मंदिराें ने इसकी कलात्मकता पर गहरा असर डाला। पहले देवताओं की साजसज्जा में आभूषणाें का पहला प्रयाेग हुआ। इसका असर मानव मन पर भी हुआ।
अगर आप भी इस तरह कोे आभूँषण पहनना चाहते हैं पर आपकाे मालूम नहीं है कि इसे कैसे खरीदा जाए ताे अपराजिता आर्गनाइजेशन आपकी मदद कर सकती है। आज ऐसी आर्टीफिशयल ज्वैलरी भी बाजार में माैजूद है।
बुधवार, 19 जून 2024
एक दीवार हूं जिस पर कील नहीं ठुकती
ऊपर से एकदम सपाट सी दिखाई देने वाली सड़क
या फिर
पगडंडी या यूं ही कोई बेनाम सा मैदान
न हरियाली ना पेड़ एकदम सुनसान
नीरव शब्द ठीक नहीं होगा उसके लिए
ठीक उस जगह यकायक धंस गया मेरा पांव
देखा नीचे एकदम भुरभुरी थी जमीन
जैसे दीवार हो कोई जिसकी सीलन नहीं दिखाई देती
कोई कील भुरभुरा कर भीतर की रेत फर्श पर उड़ा
देती है।
धरती और दीवार पर टंगी कील जैसे एक
स्त्री में बदल जाती है वह स्त्री कोई और
नहीं मैं हूं
वेदना से मेरी चीख दुःख के बादल इक्ट्ठे करती है
बुदबुदाती हूं अभी ही यह सब होना था
अभी अभी ही तो मैंने एक सपना बुना था और बादलें में टांग देने की सोच रही थी
बादल जहां जहां उड़े मेरे सपने को भी लेते जाएं
जब और जहां बारिश होगी मेरा सपना भी
उस उस जगह पर अपनी हकीकत की दास्तान लिख आएगा
पर मेरा यह पांव
यह चरम वेदना ..दुःख.. नसों में खिंच
आया है
समय के साथ यह वेदना कम होगी.. दर्द भी कम होगा
दवा मरहम.. सब ठीक कर देंगे
कमोबेश ठीक कर ही देते हैं
पर यह उदासी जम गई है मिट्टी दरक गई है
दरक गई मिट्टी की परतों के साथ यह उदासी जम गई
है
जितना इसकी परतों को हटाती हूं यह और
ज्यादा जम जाती है
दीवार ...... दीवार
पर ठोकी गई कोई कील और मजबूत हथौड़ा
कुछ तो छूटा हुआ है...
बुधवार, 25 मई 2022
कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट
हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी लिखी थी। नौकरी की तलाश में शहर छूटा साथ में छूट गई और भी बहुत सारी चीजें। पर यह शहर अब भी मेरी आत्मा में बसता है। अब भी जाना होता है साल दो साल में। पर इस बार जाना हुआ एक खास मकसद के साथ। मकसद था लोगों को अपनी संस्कृति को बचाने के लिए एकजुट करना। दूसरा मकसद था हाल ही में कुमाऊंनी भाषा में साहित्य रचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से संयुक्त रूप से नवाजे गए साहित्यकारों चारू चंद्र पांडे जी और मथुरा दत्त मठपाल जी से मिलने का।
उस दिन मौसम बहुत सुहावना था। बारिश की कभी तेज तो कभी रिमझिम फुहारों में भीगते हुए कहीं अंदर मन भी भीगा भीगा सा था। ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर से अजान की आवाज आ रही हो तो कभी यही आवाज मंदिर की घंटी के रूप में सुनाई देने लगी। कहीं पेड़ों पर चिड़ियों की आवाज तो कहीं आम से लदे वृक्ष। पानी की सर सर बहती आवाज, आते-जाते लोग अपनी ही दुनिया में मस्त बेखबर बच्चे मिलते गए और हम चलते गए। यह दोनो भाव एकाकी होकर मेरे मन को छूने लगे। मेरे पति मुझसे भी ज्यादा मिलने के लिए बेसब्र थे। हमें इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि कुमाऊंनी बोली के साहित्यकारों को साहित्य अकादमी सम्मान तो दिया गया और इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही। आखिर कहां चली गई है हमारी चेतना। दरअसल हम जिस मायावी दुनिया में जी रहे हैं वहां से संवेदना सिरे में गायब हो गई है। साहित्य कोई पढ़ता नहीं और साहित्य पढ़ने के लिए कोई प्रेरित भी नहीं करता। घर में पत्र पत्रिकाओं का आना बंद है तो ऐसे में सृजन का संसार कैसे पैदा हो। जब इस बरक्स कोई बात की जाए तो अमूमन लोगो का जवाब होता है साहित्य पढ़ने से क्या होगा? खैर छोड़िए इन बातों को और चलिए हमारे साथ इन दोनो शख्सियतों से मिलने।
हल्द्वानी में एक जगह का नाम है ऊंचापुल। हल्द्वानी से दमुवाढूंगा जाते समय यह रास्ते में पड़ता है। आप ऊंचापुल चौराहे पर उतर जाइए। अब अपनी बाई तरफ से गली नंबर 1 से लेकर 10 तक का रास्ता तय कीजिए। जैसे ही गली नंबर 10 आएगा आपको अपनी दाहिनी ओर लीची का बगीचा दिखाई देगा। इसी बगीचे के एन सामने दिखाई देंगे लाल फ्लैट। यहीं रहते हैं उत्तराखंड के कबीर माने जाने वाले साहित्यकार चारूचंद्र पांडे। उम्र 92 साल। गौर वर्ण, लंबा कद, ओजस्वी चेहरा, तीखे नैकनक्श, लंबे कान, मधुर आवाज। सफेद रंग का पैजामा कुर्ता पहने अपने कक्ष में आराम कर रहे है। प्रणाम किया तो हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, पर पहचाना नहीं। वर्षों वाद मिले थे। और जब पहचाना तो बोले हां एक बार पत्र मिला था तुम्हारा। जायसी पर कुछ जानना चाहा था तुमने। हां तब मैं बीए की विद्यार्थी थी। 15 दिन के संक्षिप्त प्रवास के लिए आप हमारे यहां ठहरे थे। और उन दिनों गीता का कुमांऊनी में अनुवाद कर रहे थे। फिर समय चलता रहा और हम उसके पीछे पीछे।
अभी हाल ही में कुमाऊंनी भाषा के लिए पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार की जब घोषणा हुई तो मन फिर से मिलने के लिए बेचैन हो गया। कुमांऊनी भाषा में पहली किताब लिखने का श्रेय उनके खाते में दर्ज है जिसका नाम था,लोक कवि गौर्दा का काव्य दर्शन। कभी आपको कुमाऊ की होली की बैठक में जाने का अवसर मिले तो ऐसी बहुत सारी होली बहुत सारे मांगलिक गान आपको सुनाई देंगे जिनको गाते हुए न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले हुए हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कुमाऊंनी संस्कृति में शाóीयता और राग का खास महत्व है। इसका अपना एक अहं रोल है। यह शाóीयता रामलीला के संवादों से लेकर से लेकर होली में भी दिखाई देती है जहां सब में राग हैं रंग है, छंद हैं बंध हैं। पांडे जी ने कई होली गीत लिखे तो शादी ब्याह के संस्कार गीत भी लिखे।
श्री पां़डे की को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय प्रसिद्ध कथाकार इलाचंद्र जोशी जी को जाता है जो उन दिनों आकाशवाणी में कार्यरत थे। उन्होंने इनको आकाशवाणी लखनऊ में 30 मिनट का टाक शो करने का निमंत्रण दिया जिसका विषय था कुमाऊंनी लोकगीतो पर प्रकृति का प्रभाव। 30 मिनट का यह टाक शो काफी सुना गया।
पढ़ाई के शुरूआती दौर में विज्ञान पढ़ने वाला विद्यार्थी आगे चलकर साहित्य सृजन की ओर उन्मुख हो गया। इसे नियति का खेल कह सकते हैं जो रास्ते बनाती भी है। अगर आपके भीतर गजब की इच्छाशक्ति है तो गरीबी आपकी महत्वाकांक्षा को दफन नहीं होने देती। अपने अतीत की परछाई के पन्ने पलटते पांडे जी भावुक हो जाते हैं पर अपने बारे में बताना जरूरी समझते हैं अन्यथा हम आप,आम जन कैसे जान सकेंगे उनके जीवन की संघर्ष गाथा को। हां गाथा ही तो है जिसे वह कविता के शब्दों में पिरोते हैं तो कभी नाटक लिखते हैं। पढ़ाई जारी रखनी है तो पैसे चाहिए और पैसे के लिए नौकरी करना जरूरी था। इसीलिए अल्मो़ड़ा से टीकमगढ़ आना हुआ। उस समय वहां महाराजा ओरछा थे। जिनके यहां इनको नौकरी मिल गई। 41 में इंटर करके टीचर बन गए। वहां बनारसीदास चतुर्वेदी रहते थे। उनसे प्रेरणा पाकर इन्होंने बीए किया वहां के महाराजा के कहने पर बीटी करने बीएचयू बनारस आ गए। उस समय राधाकृष्णन कुलपति थे। राजकुमार चौबे जैसे अध्यापक थे जिन्होंने 22 विषयों में एम.ए किया था। वह गणित भी पढ़ाते थे और हिस्ट्री आफ एजूकेशन भी। बीच में साहित्य सृजन बाधित रहा।
1955 में पहली कविता धर्मयुग में छपी। साहित्य संस्कार हो चुका था पर साहित्यक संसार में धमक अभी बाकी थी। इस तरह घूमते घुमाते जीवनयापन करते फिर से अल्मोड़ा आ गए। कहते हैं रचनाशील व्यक्ति का कैनवास बहुत बडा होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने का बीड़ा उठाया। महफिल जमनी भी शुरू हो गई। अल्मोड़ा में अमृतलाल नागर, बनारसीदास चतुर्वेदी, बेगम अखतर और बिरजू महाराज के सुर और घुघरू बजने लगे। आकाशवाणी लखनऊ में उत्तरायण कार्यक्रम तो हवामहल के लिए नाटक प्रस्तुत होने लगे। लेखनी की धारा विकल्प पहाड़ सरस्वती पत्रिका में भी दस्तक देने लगी। सरस्वती में गुमानी पर छपे लेख की चर्चा हुई तो पुरवासी में कविताओं की। आखर, दुधबोली और पहरू के लिए लिखा। रजत सम्मान 2009,1968 में राष्ट्रपति सम्मान, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्रारा सम्मानित, उमेश डोबाल स्मृति सम्मान जैसे कई सम्मानों से सम्मानित। गीता का कुमाऊंनी भाषा में अनुवाद किया। जिसका प्रकाशन होना बाकी है। और भी बहुत कुछ है उनसे जानने के लिए, समझने के लिए पर अभी इजाजत लेनी होगी। वह इस समय पूरे मूड में हैं। होलियां गा रहे हैं। कविताएं सुना रहे है। डायरी में से अपनी प्रिय कविताएं खोज रहे हैं। मैंने रिकार्ड आन किया है। उनकी मधुर आवाज में उनकी कुमाऊंनी कविताएं मैंने रिकार्ड कर ली है। साझ घिर आई है और अभी कई पड़ाव पार करने हैं।
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चारू चंद्र पांडे जी के घर से निकलते ही अंधेरा हो गया था सोचा सुबह उठकर रामनगर जाएंगे। साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजे गए मथुरा दत्त मठपाल जी से भी मिलना होगा।
उस दिन बारिश बहुत थी इसलिए रामनगर जाना नहीं हो सका। लेकिन अगर आप उनसे मिलना चाहते हैं तो पता है पंपापुर-रामनगर में एक जगह है पंपापुर। मथुरा दत्त मठपाल जी का निवास वहीं है। मेरी मथुरा दत्त जी से फोन पर विस्तृत बात हुई। पर हां सामने बैठकर बात करने का जो आनंद है उससे मैं वंचित ही रही। पर अपनी अपनत्व से भरी बोली में उन्होंने कहा कितना अच्छा होता यदि आप कुमाऊंनी में ही बात करती, पर कोई बात नहीं अपनी भाषा संस्कृति के प्रति तो आपने मन में लगाव हुआ ही। चलिए सुनिए मेरी कहानी .. तो 29 जून 1941 को अल्मोड़ा के भिकियासेन गांव में मेरा जन्म हुआ। मेरा जीवन गांव में ही बीता। 35 साल तक राजकीय स्कूल में इतिहास पढ़ाता रहा। इसी क्रम में मुझे खुद को जानने समझने का मौका मिला। अपनी संस्कृति के प्रति एक जवाबदेही तय की। संसाधन थे नहीं और न आज हैं फिर भी जुनून तो है। जब मैं पूछती हूं आपका साहित्यक गुरू कौन है। तो बड़ी जोर का ठहाके लगाते हुए कहते हैं। मेरा कोई गुरू नहीं। किताबे ही मेरी गुरू है। वैसे वह मेरी मां ही हो सकती है जो ठेठ कुमाऊंनी में बोलती थी। हिंदी उसे आती नहीं थी। इसलिए भाषा का परिष्कार वहीं से हुआ। फिर मैंने दुधबोली करके एक कुमाऊंनी भाषा में साहित्यक मैग्जीन निकाली जो पहली मैग्जीन थी। पहले यह त्रैमासिक थी अब साल में एक निकालता हूं। करीब 350 पेज की पत्रिका है। मैं बीच में रोकती हूं, यह तो बहुत सुंदर काम कर रहे हैं आप। यह काफी श्रमसाध्य भी है। पर मेरा एक सवाल है आपसे। आखिर कुमाऊंनी भाषा के विकास में क्या रुकावट है जो इसे अंतरराष्ट्रीय मंच में स्वीकार्यता नहीं है। बहुत जरूरी सवाल पूछा है आपने दरअसल सबसे बड़ी बात यह है कि इस क्षेत्र में की कई उपबोलियां भी हैं। इसलिए मानकीकरण बहुत जरूरी है। यानी एक ऐसी भाषा बनाई जिसमें सब उपबोलियों को भी शामिल किया जाए। यह कार्य कठिन है पर असंभव नहीं है। जिनके भीतर अपनी संस्कृति अपनी भाषा के लिए कुछ करने की इच्छा है। वह इसे कर सकते हैं। प्रयोगों का दौर शुरू हो गया है मैंने करीब 6000 होलियां संकलित कर ली है। होलियां हमारी विरासत भी है और हमारी सांस्कृतिक पहचान भी इससे जुड़ी हुई है। फिल हाल तो मैं होली के रंगों में डूबा हुआ है।
बात तो आगे ले जाने के उद्देश्य से मैं उनको बीच में ही रोकती हूं यह तो बहुत अच्छी शुरूआत है। चलिए अब अपनी रचनात्मक उपलब्धि के बारे में बताएं। उपलब्धि यह सुनकर उनको हँसी आ जाती है। हँसी की यह गूंज मेरे कानों तक सुनाई देती है। तकनीक का असर है कि मैं उनको सुन रही हूं उनकी खनकती हँसी महसूस कर रही हूं पर आमने सामने नहीं. .तो कुल जमा जोड़ यह है पाठकों कि कुमाऊंनी भाषा इनकी पहली किताब है आंग चितेल हैगो( शरीर में खुजली सी है ), पैमे क्याप्प कै बैठ़ड़ू( फिर मैं कुछ का कुछ कह बैठता हू) तीसरी किताब है फिर प्यौली हँसे( फिर प्यौली हँसती है) राम नाम बहुत ठूल इनकी पांचवी किताब है। अब बात पुरस्कार की करते हैं। सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार के अलावा उत्तराखंड भाषा संस्थान का डा. गोविंद चातक सम्मान, शैलवाणी पत्रिका के शैलवाणी सम्मान इनके खाते में दर्ज हैं।
यह थी हमारी सांस्कृतिक यात्रा जिसमें हम उत्तराखंड के साहित्यित शीर्ष पर चमकते दो सितारों से मुखातिब हुए। बहुत सारे सितारों से मिलना बाकी है। बहुत से गुमनाम है जो बर्फ की ओ़ड़नी ओड़े समय की सफेद चादर से घिरे हैं। जब फिजा बदलेगी तो निःसंदेह उत्तराखंड अपनी साहित्यिक सांस्कृतिक चकाचौंध से पूरी दुनिया को विस्मित कर देगा।
शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022
कांथा से सजिए और सजाइए- डॉ अनुजा भट्ट
कांथा कढ़ाई का प्राचीन शिल्प बंगाल के गांवों से होता हुआ अब पूरी दुनिया में अपनी जगह बना रहा है। कांथा की कढ़ाई की कहानी आजकल के फैशन ट्रैंड में खूब सुनी जा रही है। फैशन के मुरीद इसके बारे में जानना चाहते हैं, क्योंकि आज का दौर वोकल फॉर लोकल का है। पुराने समय में कांथा बनाना न केवल एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति थी, बल्कि इसमें प्राकृतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रतीकों का भी प्रयोग सहजता से किया जाता था। चाहे शादी ब्याह हो या जन्म का मौका या फिर सुनी सुनाई पौराणिक कहानियां । सब को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति मिलती रही।कमल, मछलियां, पक्षी, सूरज,चांद तारे, फल फूल, राधा कृष्ण,ज्यामितिक आकृतियां प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत थीं। मूल रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले रंग नीले, हरे, पीले, लाल और काले थे।"
यह
देखना अपने आप में बहुत अच्छा है। हथकरघा शिल्प के पुनरुद्धार से वैश्विक मंच पर भारतीय
शिल्प कौशल को न केवल प्रतिनिधित्व करने
का मौका मिलेगा बल्कि इसके साथ ही ग्रामीण गांवों में लाखों कारीगरों और बुनकरों को
मदद भी मिल सकेगी।
बंगाल
एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने सदियों पुराने शिल्प के लिए जाना जाता है जिसमें कांथा
भी शामिल है।
यह कढ़ाई का एक रूप है। वैदिक साहित्य में भी इसका उल्लेख है। आधुनिक समय के उभरते फैशन में यह मजबूती के साथ टिका हुआ है और फूल
की तरह खिल रहा है।
तो फिर यह कांथा कढ़ाई क्या है और इसने इतनी
लोकप्रियता कैसे हासिल की?
कांथा
के जन्म की कहानी सदियो पुरानी है। इसको बनाने के पीछे मकसद कोई कलात्मक चीज बनाना
नहीं था बल्कि यह आम आदमी की जरूरत था। बंगाल के अलावा राजस्थान और बांग्लादेश में
भी यह बनाया जाता रहा है। पहले जब यह बनाया जाता था तो कांथा कढ़ाई का प्रयोग बार्डर
बनाने के लिए किया जाता था। बार्डर यानी सीमाएं। इसके लिए धागे की मोटी सिलाई की
जाती थी जिसमें एक टांके और दूसरे टांके के बीच में थोड़ा अंतराल होता था। फिर
साड़ी में जो छपाई होती थी उसी के ऊपर इसी तरह से मोटी सिलाई की जाती थी। जिससे
डिजाइन उभर जाता था। तब इसका इस्तेमाल दरी, बिछावन और रजाई के रूप में होता था।
इसे रिसाइक्लिंग भी कह सकते हैं। इसके लिए इस्तेमाल की गई साड़ियों और धोती का
प्रयोग होता था। आज भी गांव में इसे इसी तरह से बनाया जाता है।
धीरे-धीरे
यह एक शिल्प के रूप में विकसित हुआ क्योंकि उन्होंने अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं
बनाना और टांके के साथ छोटे-छोटे सजावटी काम करना भी शुरू कर दिया था। उनके इस
काम से प्रभावित होकर कई डिजाइनरों ने उनके साथ काम करने का नन बनाया और इस तरह
सादा कांथा डिजाइनर कांथा में बदल गया। आज कांथा की बेडशीट बेडकवर साड़ियां,ब्लाउज
जैकेट, पर्दे ,पर्स, स्कार्फ शॉल मफलर, कुर्ते लंहगा, स्कर्ट के अलावा सजावट की कई
चीजें जैसे टेबल क्लाथ टेबल कवर, रनर, कुशन कवर, दिवान सेट बन रही हैं। रंगों, शैलियों, बनावट और पैटर्न के संयोजन पर लगातार काम हो रहा है।
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गुरुवार, 28 अप्रैल 2022
ग्लास से बदलेंं घर का लुक-डॉ. अनुजा भट्ट
घर के इंटीरियर में अब बाजी मारी है ग्लास ने। अभी तक यह मुहावरा ही था कि घर शीशे जैसा चमकना चाहिए पर अब यह हकीकत में बदल चुका है। घर की साज सजावट में ग्लास का इस्तेमाल अब खिड़की , सीढिय़ों, दीवारों और दरवाजों र दस्तक देता हुआ फर्नीचर की दुनिया में कदम रख चुका है। जी हां बाजार में ग्लास के फर्नीचर की डिजाइनर रेंज मन को लुभा रही है। ग्लास का चलन बड़ी तेेजी से बढ़ा है। लिविंग रूम, डायनिंग रूम सभी जगह इसकी चमक है कहीं ग्लास रैक है तो कहीं मल्टी पर्पस टेबल ।
ग्लास की खासियत ये है कि ये एक अनक्लटर्ड लुक के अलावा घर में ज्यादा जगह का अहसास भी करवाता है। यानी अपने घर को एक रॉयल लुक देने के लिए ग्लास का फर्नीचर एक सही विकल्प है। ग्लास के बढ़ते चलन की सबसे बड़ी वजह है कि इसे लगाना बहुत आसान है। इससे एक कलात्मक और परंपरागत छवियां दोनों साथ साथ दिखाई देती हैं। साथ ही धूप की रोशनी सीधे अंदर आती है, जिससे अंधेरा नहीं रहता और इस तरह बिजली के खर्च में भी कटौती की जा सकती है।
ग्लास लाइटवेट, ट्रांस् पेरेंट होने के बावजूद कंक्रीट की तरह बहुत मजबूत होता है। पवीबी और लैमिनेटेड ग्लासों का उपयोग आर्किटेक्ट न सिर्फ एलिवेटर्स, बल्कि फ्लोर, वॉल्स, केबिन, क्यूबिकल्स और पार्टीशन में भी कर रहे हैं जिससे छोटी जगह भी बड़ी लगती है। ग्लास की पारदर्शिता की वजह से बाहर के नजारों का आनंद उठाकर बोरियत तो दूर होती है, और आप ज्यादा सक्रिय रहते हैं। ऐसे लोग जो खुला न चाहते हैं उनके लिए ग्लास से बेहतर और कोई विकल्प नहीं। ग्लास का उपयोग ऐसी जगह पर ज्यादा कारगर होता है जहां धूप नहीं आती ।
सवाल यह भी उठता है कि क्या ग्लास से आने वाली रेडिएशन नुकसानदेह हो सकती है? आर्किटेक्ट की मानें तो, अगर ग्लास में यू फैक्टर प्रयौग किया जाए तो अंदर आते रेडिएशन से काफी हद तक बचा जा सकता है। साथ ही आजकल डबल ग्लास भी मौजूद हैं, जिनके उपयोग से कोई नुकसान नहीं हुंचता है। ग्लास न केवल घर की सज्जा में चार चांद लगाता है, वरन एक सादगी का एहसास भी देता है। दीवारों पर ग्लास लगे होने से ठंडक और गर्मी दोनों का संतुलन बना रहता है। लिविंग रूम में रखी टेबल पर ग्लास लगा होता है। इसमें भी अनेक लेयर्स होती हैं। ऐसी साइड व कॉर्नर टेबल भी विभिन्न आकारों में मिल जाएंगी, जो केवल ग्लास की बनी होती हैं। किचन व बाथरूम में भी ग्लास अपनी एक खास जगह बना चुका है। अब ग्लास से पार्टीशन बनने लगे हैं। लिविंग रूम में ग्लास का पार्टीशन डाल एक से रेट पोर्शन बनाया जा सकता है। ग्लास की शेल्फ बनाकर उस पर कलाकृतियां सजाई जा सकती हैं। ग्लास के बुक शेल्फ भी खूबसूरत लगते हैं और उससे डेकोर भी खिल उठता है। जरूरी नहीं कि ग्लास को केवल वुड के साथ ही प्रयोग में लाया जाए। स्टोन के पिलर्स या टेबल के नीचे लगे स्टोन के पायों के साथ भी वह बेहद अच्छा लगता है।
इंडियन ग्लास एसोसिएशन के द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक, ग्लास लगाने से बिल्डिंग की सार-संभाल में कटौती हो जाती है और सूरज की रोशनी के अंदर आने से बिजली के खर्च में भी कमी आ जाती है। इसके अलावा काम करने वाले लोगों को घुटन का एहसास नहीं होता। गर्म मौसम में बाहर से आने वाली गर्म व सर्दियों में ठंड को अंदर आने से इससे रोका जा सकता है। ग्लास और मैटीरियल की तुलना में सस्ता और पूरी तरह से रीसाइकल होने वाला होता है।
इसकी खासियत है कि इसे प्लेन के साथ सतरंगी रंगों से सजा सकते हैं। फिर चाहे खिड़कियों के पैनल हो या फिर घर में दीवार की शोभा बढ़ाती तस्वीर। अनेक रंगों में उपलब्ध होने के कारण ग्लास हर तरह के डेकोर के साथ मैच करता है।
ग्लास पर जब रोशनी पड़ती है तो अनेक रंग व शेड कमरे में बिखर उठते हैं। इनमें कुछ न कुछ तो खास है। बेहतरीन क्लास और संजीदगी का पैगान देते स्टाइलिश गोबलेट और ग्लास आप के डेकोर डिजाइन में चार चांद लगाने का काम करते हैं। साजसज्जा के अलावा क्राकरी में भी डिजाइनर ग्लास , वाइन ग्लास, ब्रेंडी और मार्तिनी ग्लास, एलिफेंट हेड ग्लास और डेकोरेटिव कोरल कलेक्शन की मांग बढ़ी है। देखने में चांदी की तरह है लेकिन उसकी चमक बरकरार रहती है। वास्तव में जो फिनिश कांसे को दी जा सकती है वह इन्हें ज्यादा आकर्षक और रखरखाव की दृष्टि से बढिय़ा बनाती है। भारत में वरसाचे, रोसेंथाल, बलगारी, रॉयल डोलटन, आईवीवी और मर्डिन्गर जैसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड्स को चाहनेवालों का संख्या बढ़ती जा रही है। इन दिनों लम्बे, ब्रॉड और स्लीक ग्लास की काफी मांग है। ग्लास और क्रिस्टल मिक्स में बढिय़ा फिनिश के साथ तैयार इन स्टाइलिश ग्लासवेयर की कीमत 1500 रु ए से शुरू होती है और यह 18000 रुपए प्रति पीस तक जा सकती है।
कुछ काम की बातें
- अलग-अलग स्टाइल के पॉट्स या लैंप लेकर आप होम डेकोर को अपने अंदाज में तैयार कर सकते हैं।
- दीवारों या दरवाजों र लगी स्टेन ग्लास की पेटिंग मेहमानों का ध्यान आकर्षित करती हैं।
- ग्लास की कलाकृतियाँ घर के किसी भी कमरे में लगाई जा सकती हैं।
- लटकते हुए ग्लास पैनल की फॉल्स सीलिंग का चलन भी इन दिनों खूब बढ़ गया है।
- खिड़कियों पर भी पेंट किए या टिनटेड ग्लास लगाए जा सकते हैं।
- ग्लास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस पर फ्लोरल से लेकर ज्यामितीय डिजाइनों को खूबसूरती से उकेरा जा सकता है।
- ग्लास के फ्रेम हों या ग्लास की मूर्तियाँ, घर में रखी अच्छी लगती हैं।
- ग्लास के डेकोरेटिव पीस फिर चाहे वह चैस बोर्ड हो या झूमर या फिर दीवार पर लगे पैनल, घर के डेकोर को एक शानदार टच प्रदान करते हैं।
- घर के इंटीरियर में जब भी ग्लास का उपयोग करें, यह ध्यान रखें कि दीवारों व फर्नीचर का रंग बहुत ज्यादा डार्क न हो।
- व्हाइट कलर या पेस्टल शेड्स के साथ इसका इफेक्ट बहुत बढिय़ा आता है।
- वुड से ज्यादा ग्लास इंटीरियर के साथ सेरेमिक या मार्बल का ही उपयोग करें।
- इसे साफ करने के लिए साबुन के पानी से कपड़ा मारें व पौछ दें।
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022
फैशन की दुनिया में भी सजा देवी देवता का दरबार
अनुजा भट्ट
अमूमन अध्यात्म और फैशन को एक दूसरे का विरोधी माना
जाता है पर फैशन भी अध्यात्म से ही प्रेरणा लेता है। इसलिए दुनियाभर में भारत की
कला अपना एक विशेष स्थान रखती है। फैशन और अध्यात्म कैसे एक साथ जुड़ जाता है यह
देखना बहुत दिलचस्प है।
आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति शहर के
पास स्थित तिरूमाला और श्रीकालहस्ती नामक मंदिर
हैं। आप में से बहुत सारे लोगों ने इस मंदिर के दर्शन किए होंगे। यहां का प्रसाद
चखा होगा। ये मंदिर स्वर्णामुखी नदी के तट पर बसा है। स्वर्णामुखी नदी पेन्नार नदी
की ही शाखा है। दक्षिण भारत के तीर्थस्थानों में इस स्थान का विशेष महत्व है। लगभग
2000 वर्ष पुराना यह मंदिर दक्षिण कैलाश या दक्षिण काशी
के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के पार्श्व में तिरुमलय की पहाड़ी दिखाई देती
हैं । इस मंदिर के तीन विशाल गोपुरम हैं जो स्थापत्य की दृष्टि से अनुपम हैं।
मंदिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो अपने आप में अनोखा
है। यहां भगवान कालहस्तीश्वर के संग देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी स्थापित हैं। मंदिर
का अंदरूनी भाग ५वीं शताब्दी का बना है और बाहरी भाग बाद में १२वीं शताब्दी में बनाया
गया है। यह मंदिर राहुकाल पूजा के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।
इस स्थान का नाम जीव जन्तु और पशु के नाम से है - श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प तथा हस्ती यानी हाथी के
नाम पर किया गया है। ये तीनों ही शिव के
भक्त थे और उनकी आराधना करके मुक्त
हुए थे। इसलिए इस जगह का नाम श्री कालाहस्ती है। एक जनुश्रुति के अनुसार इस तपस्या
में मकड़ी ने शिवलिंग पर जाल बनाया, सांप ने लिंग से लिपटकर आराधना की और हाथी ने
शिवलिंग को जल से अभिषेक करवाया था। यहाँ पर इन तीनों की मूर्तियाँ भी स्थापित
हैं। श्रीकालहस्ती का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी
मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार एक बार इस स्थान को देखने अर्जुन भी आए थे और
उन्होंने यहां तपस्या भी की। इस स्थान पर भारद्वाज मुनि के आगमन का भी संकेत मिलता
है। कणप्पा नामक एक स्त्री ने यहाँ आराधना
की थी।
फैशन की दुनिया में भारत में
कलमकारी को लेकर जिन जो स्थानो की बात होती है उसमें से एक स्थान यह भी है और
दूसरा स्थान है मछली पट्टनम। मछली पट्टनम पर चर्चा बाद में करूंगी। कलमकारी की
पहचान इन्हीं दो स्थानों से है। श्रीकालहस्ती
कलमकारी का भी तीर्थ है। यहां के हस्तशिल्प में मंदिर की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई
देती है। देवी देवता के चित्र कपड़े पर उकेरे जाते हैं। इन देवीदेवता में शिव के
साथ और भी कई देवी देवता को शिल्प कार अपनी कला में व्यक्त करता है। शिव पार्वती
के साथ राधा कृष्ण हैं तो बुद्ध भी है। जिस तरह गणपति कलाकार को आकृष्ट करते हैं
वैसे ही गौतम बुद्ध की ध्यानमयी आंखें भी। दुर्गा के नेत्र अलग अलग तरह से
अभिव्यक्त पाते हैं।
नए जमाने की भारतीय महिलाएं, परंपरा
और फैशन और आधुनिकता को एक साथ स्वीकार करती है। इसके लिए वह प्रयोगधर्मी कलाकार
के महत्व देती है। कलाकार भी अपने शिल्प में अपनी लोककथाओं, पौराणिक पात्रों मिथकों
को जोड़ते हैं क्योंकि यह हमारे अवचेतन में हमेशा रहते हैं। इसके जरिए डिजाइनर
दुनिया के और तमाम डिजाइनरों पर हमेशा के
लिए अपनी छाप छोड़ने में भी सफल हो जाते हैं। संस्कृति और कला को वह अपनी फैशनेबल शैलियों के
एक साथ फ्रेम करते हैं। यही कारण है कि फैशन की दुनिया में भारतीय कला अपनी लुभावनी सुंदरता और बहुमुखी प्रतिभा के लिए
बहुत सराही जाती है।
कृष्ण रास-लीला, पार्वती, विष्णु, श्री जगन्नाथ जैसे भारतीय
देवी-देवताओं के सुंदर रूपांकनों को चित्रित करने के महाभारत और रामायण से कथा को दृश्य रूप में
चित्रित किए जाते हैं। क्या हम सोच सकते
हैं कि एक ब्लाउज भर से ही साड़ी की पूरी अवधारणा को बदला जा सकता है? सोचिए क्या हाल के दिनों में ऐसा कोई दिन हुआ है
कि आपने बुद्ध का चेहरा, देवी देवता के
चेहरे, गणपति, शिव पार्वती कृष्ण राधा, लक्ष्मी विष्णु, जैसे कई चेहरों को ब्लाउज,
कुर्ते , पैंट, पर्दे, साड़ी, बेडशीट या होम डेकोर पर नहीं देखा है? हथकरघा हो, कांजीवरम, कॉटन या जॉर्जेट साड़ी, कलमकारी डिजाइन सभी के साथ अच्छी तरह से मेल खाते है। क्रॉप टॉप, जैकेट, पैंट, कुर्ता और मैक्सी ड्रेस सभी में यह डिजाइन अपना असर छोड़ते
हैं।
मेरी इन सब बातों से आपको भी यह दिलचस्पी पैदा
हुई होगी कि आखिर क्या है कलमकारी। कलमकारी शब्द एक फ़ारसी शब्द से लिया गया है
जहाँ 'कलाम' का अर्थ है कलम और 'कारी' का अर्थ शिल्प कौशल है। कलमकारी कला
एक प्रकार का हाथ से पेंट या ब्लॉक-मुद्रित सूती कपड़ा है, जिसका उत्पादन ईरान और भारत में किया
जाता है। कई सालों से आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कई
परिवारों द्वारा इस कला का अभ्यास किया जाता रहा है। यह प्राकृतिक रंगों का उपयोग
करके इमली की कलम से सूती या रेशमी कपड़े पर हाथ से पेंट करने की एक प्राचीन शैली
है। इस कला में डाईंग, ब्लीचिंग, हैंड पेंटिंग,
ब्लॉक प्रिंटिंग,
स्टार्चिंग, सफाई आदि 23 कठिन चरण शामिल हैं।
मंदिरों में इसकी उत्पत्ति के कारण यह
शैली एक मजबूत धार्मिक संबंध भी रखती है। इस तरह हम देखते हैं कला का विस्तार और
कलाकार के लिए यह धार्मिक स्थल भी प्रेरणा स्रोत हैं। यह हर इंसान पर निर्भर करता
है कि ईश्वर को वह किस नजरिए से देखता है। मेरा मानना है ईश्वर हर कण कण में हैं।
रविवार, 20 मार्च 2022
वह साल बयालीस था एक पठनीय उपन्यास
रश्मि भारद्वाज का
उपन्यास वह साल बयालीस था एक पठनीय उपन्यास है। उपन्यास की कथावस्तु, संवेदनशीलता
के उस चरम बिंदु को छूती है जहां मानवीयता और संवेदनशीलता के बीच गहरा द्वंद भी है
और सामंजस्य भी। अंततः कहानी अपने रास्ते से होते हुए दोनों को एकाकार कर देती है।
इतिहास, दर्शन कला, साहित्य, प्रकृति को रंगों शब्दों और भावों से एकाकार कर जब वह
गद्य रचती हैं तो उसका सुंदर बनना स्वभाविक ही है।
प्रेम को महसूस करना, प्रेम का छूट जाना, प्रेम
में डूब जाना, प्रेम की दीवानगी, प्रेम का अतिरेक, प्रेम से विराग, प्रेम से राग,
प्रेम से आसक्ति अनासक्ति से लेकर यह कहानी देशप्रेम के लिए न्यौछावर हो जाने वाले
प्रेम की भी कहानी है ।
यहां लेखिका ने प्रेम शाश्वत है, की अवधारणा को
बहुत मजबूती से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। वह उसे अलौकिक दिव्य सा महसूस कराती हैं । यह कैसी
विडंबना है कि इन सबके बावजूद यह शाश्वत प्रेम भी एक बक्से में बंद है और अपनी
मुक्ति चाहता है।
इस उपन्यास में स्त्री की संवेदनशीलता एकरूप है
चाहें वह भारतीय है या विदेशी। प्रेम का कोई रूप रंग नहीं होता उसे महसूस किया जा
सकता है। कहानी की सूत्रधार अना भी यह महसूस करती है, उसकी दादी रुप भी है और अंग्रेजन...
भी।
प्रेम, समर्पण,
कर्तव्य, दायित्व, देय, प्रदेय की इस अद्बभुत कहानी में देश और समाज के सरोकार भी
है। जानेमाने लेखकों के कोट्स, कविताएं रचना की गतिशीलता को और मधुर और सांगेतिक
बनाते हैं।
यह उपन्यास,
कला के उन सभी औजारों से निर्मित है जो आज की रचनाशीलता के लिए बहुत जरूरी है। इस
उपन्यास में शैली के रूप में भी कई प्रयोग हैं। कभी यह आत्मकथा है, कभी संस्मरण,
कभी यात्रावृतांत, कभी डायरी तो कभी रिपोर्ट। रचनाकार ने छोटे छोटे नोट्स का इस्तेमाल भी बहुत
खूबसूरती से किया है ब्रश के स्ट्रोक की तरह।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे पीछे एक
धुन लगातार बज रही हो अपने पूरे माधुर्य के साथ ऊधौ मन न भए दसबीस.. मुझे क़ृष्ण
राधा और ऱूकमणि से जुड़ी पौराणिक कथाएं भी बरबस ही याद आई । इन सबके बावजूद भी उपन्यास में कुछ छूटा सा लगा।
जैसे हाथ में आई गैंद अचानक टप्पा खाकर गिर जाए। मैं तो प्रेम के सरलीकृत रूप पर
मुग्ध थी और सोच रही थी काश प्रेम इतना सहज स्वीकार्य होता जैसा यहां दिखाया गया
है। इसका उत्तर मुझे फिर अना की दादी के बक्से की तरफ ले जाता है जिसकी चाबी दादाजी
ने कभी किसी को नहीं सौंपी। अपने अंत समय में अना को छोड़कर...
एक सवाल जरूर उठा कि वह दादा जी जिन्होंने अपनी
पत्नी रूप के इस सच को स्वीकार किया कि वह
उनसे प्रेम नहीं करती और इसके बावजूद वह पूरे जीवन उससे प्रेम करते रहे औऱ समर्पित
रहे। समर्पण तो उनकी पत्नी रूप ने भी किया, दांपत्य को भी जिया पर प्रेम को नहीं।
इस गुत्थी भरे जीवन को जीने वाले दादा जी ने अना की मां को क्यों नहीं स्वीकार किया।
जबकि वह जानते थे कि उनका बेटा फातिमा से कितना प्यार करता है। उन्होंने अपने बेटे
को जीवन भर माफ नहीं किया। यह विरोधाभास खटकता है।
कुल मिलाकर उपन्यास
पठनीय है और ताजगी से भरपूर भी।
किताबों की दुनिया
वह साल बयालीस था
रचनाकार रश्मि
भारद्वाज
सेतु प्रकाशन
शनिवार, 19 फ़रवरी 2022
तारीख में औरतें एक जरूरी किताब है डॉ. अनुजा भट्ट
तारीख में औरतें
अशोक पांडे
स्त्रियों की कहानियां कहने के लिए अशोक पांडे एक बड़ा कैनवास रचते हैं। एक ऐसा कैनवास जिसमें कई रंग है और रंगों में घुली हुई है महक। यह सारी कहानियां जिस कोमलता, संजीदगी, अपनेपन की हकदार हैं इनको शब्दों में वैसे ही उतारा गया है। पढ़ते हुए कई बार आंखें नम हो जाती है और इन किरदारों के बीच हर आम स्त्री की झलक दिखाई देने लगती है। एक आम स्त्री के नाते मैं भी इसे महसूस करती हूं। विश्व भर की नायिकाएं जिंदगी में जिस मुश्किल दौर से गुजरती हैं, वह चौंकाने वाला है। लेकिन इन कहानियाें का निष्कर्ष यह है कि आखिरकार आदमियों के दबदबे वाली इस दुनिया में वह अपनी मजबूती से अपना हक पा लेती हैं। हालांकि इसके लिए उनको बहुत कुछ खोना पड़ता है। जिस दिन वह इस सच्चाई से रूबरू हाे जाती है कि जिंदगी न मिलेगी दोबारा, इसलिए इसे अपनी खुशी और अपने आसमान के लिए जी लेना एक अच्छी बात है उस दिन से ही उसके सही सफर की शुरूआत हो जाती है। इतिहास के पन्नों में उसका नाम दर्ज हो जाता है। वह यादगार तारीख बन जाती है। बात बात पर उसकाे उसकी औकात और ठेंगा दिखाने वाले पुरुष को पता ही नहीं चलता कि उसने ऐसा करके क्या खोया है।
उसके अहसानाें काे अपने अहसासों में बदलती, संवेदना के हर तंतु को संवारती, संभालती वह बिखरते
हुए भी संवरती जाती है। स्त्री की यही ताकत है जो उसे असीम शक्ति देती है। जिसके साथ चमकीले सपनाें का आसमान लेकर आई थी उसी से दुःख, पीड़ा, अपमान सहती एक दिन पाती है वह ताे कब की जिंदगी के पन्ने में हाशिए से भी बाहर है जिसकी उसे खबर नहीं। तब दो ही स्थितियां बनती है या तो वह बिखर जाती है या उसके भीतर की सजग स्त्री जाग
जाती है। सवाल पूछने वाली स्त्री, विराेध करने वाली स्त्री किसी को पसंद नहीं आती। लेकिन एक दिन वही सवाल पूछने वाली स्त्री समाज की केंद्रबिंदु बन जाती है।
अपनी चोटी में बीज टांगकर वह पूरी दुनिया को
खेती के गुर सिखा देती है तो कहीं वह चित्रकार बनती है कहीं फोटोग्राफर । कहीं दौड़ती स्त्री है तो कहीं
गजल और कविता कहती स्त्री। कहीं अभिनेत्री है तो कहीं गायिका कहीं अपने बच्चे की मेधा को पहचान कर उसे वैज्ञानिक बनाने की साध है तो
कहीं सुर की मखमली आवाज।
स्त्री के हर रूप की झलक यहां है। एक मजबूत
स्त्री की, एक संवेदनशील स्त्री की।
मेरी रंगीन पेंसिलों में
दिखाती हुई
किस रंग की कमी है
मेरे भीतर
माची तवारा की ये
पंक्तियां जैसे भीतर तक असर कर गई है।
बुधवार, 4 अगस्त 2021
Embroidery of Manipur
Embroidery of Manipur has a distinct quality and a style of creation. The local people of Manipur are engaged in intricate embroidery work which displays the typical style and trend of Manipur.

मंगलवार, 3 अगस्त 2021
Gadwal Sari is known for its exquisite and unique motifs
The Saree is known for its exquisite and unique motifs of
borders on the weft of saree. The Gadwal sarees are a blend or combination of
cotton weave fabric in the body and the borders are in contrast with gold zari
weave designs over it instead of a plain panel of zari.www.mainaparajita.blogspot.com
The Gadwal silk sarees are simply the same in silk with a
plain or butti body but with a design weave motif look on edge border of saree
in golden. These motifs of borders can be in anything from floral leaves or
architectural inspiration of motifs.
Origin of Gadwal Sarees
They are woven in Andhra Pradesh and have their motif
influence from South Indian architectural designs to traditional motifs like
lotus and flowers. Cotton use of yarn in the body of saree and zari in the
border is what a gadwal saree is, and the use of silk all over is known as
Gadwal silk saree.
The Borders of a Gadwal Silk Saree
The sarees are lustrous and have their own beauty and
identity for the different weave designs on the side borders. The wit of the
borders can be of different sizes as per design concepts. The saree base or
body can also have butti weaves or different jaal designs like a Banglori silk
saree or Paithani, but the identity is from the border designs.
The designs of the borders are from stripes, temples and
coin motifs, florals, and leaf jaal motifs too. The contrasts of the saree
borders are the most attractive and make these sarees subtle as well as
convenient for all types of occasions.
Most combinations of Gadwal silk sarees are in perfect
contrasts like blue and orange, red and green, or complementary hues like pink
and yellow or orange and green. The pallu may also have pretty flowering motifs
in zari and silk yarn.
The base of the saree is plain with weave in stripes of
checkered look with the blend of cotton or just silk. Each pattern concept
gives a different look to the saree. Woven buttis in shrubs or flower motifs
all over or just a drape panel divided with huge flower wales and leaves.
Go for the colorful checks in cotton as body and paisley
motif’s zari borders, or the plain cotton body with stripes and coin motifs on
borders. In gadwal silk sari go for pain silk body with zari and temple border
design or the floral wale gold weave design on the border
The sarees are perfect for festivals like pujas and Diwali
time, and styling them would be done well with traditional jewelry. Jhumkas,
kadas, and bangles, and also malas of coin design to gold beads long malas. As
the saree is from south India, the cultural style of jewelry suits very well
with the saree.
Try wearing the saree in an open pallu drape or a proper
pleated drape at the shoulder. You can always style your hair according to the
occasion in a bun, braid or open locks like celebrities do.

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