The fashion of the whole world is contained within the folk art.
गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024
विदा - कविता- डा. अनुजा भट्ट
विदा
मैं , मैं नहीं एक शब्द है
हुंकार है
प्रतिकार है
मैं का मैं में विलय है
इस समय खेल पर कोई बात नहीं
फिर भी...
सच में मुझे क्रिक्रेट में कोई रूचि नहीं
फिर भी
मैं सचिन तंडेलुकर की गेंद की तरह उछलना चाहती हूं
टप्पे पर टप्पे मार कर हवा के उस अंतिम छोर पर पहुंचकर
धरती में गिर जाना चाहती हूं
अनगिनत गेंदों से नहीं असंख्य शब्दों से खेलती और जीती उन क्षणों को
खुद और पूरी कायनात के साथ
मैं लेना चाहती हूं अब विदा
न्यूटन का सिद्धांत मुझे प्रिय है
हालांकि मैं विज्ञान के बारे में ज्यादा जानती नहीं
पर शोध से हर रोज गुजरती हूं
फिर भी
अपनी मुट्ठी में भींचकर कोई रूमाल
सर्द रात और कंपकंपाती ठंड में
पसीने से तरबतर हो
ऐसा है मेरा ख्वाब
मैं उस ख्वाब को अपनी उंगुलियों में
महसूस करते हुए
मुट्ठी में भर लेना चाहती हूं
निचोड़ कर रख देना चाहती हूं रूमाल
रूमाल जिसके चार कोने हैं
चार दिशाएं हैं
और चारों दिशाओं की साझेदार एक पोटली है
पोटली जिसमें सिक्के जमाते हैं कुछ
पोटली जिसमें सुदामा ने जमाए तंडुल
सिक्के जमाने वाले और तंडुल जमाने वाले सुदामा में मेरी कोई रूचि नहीं
मुझे न विपन्नता के गीत पसंद हैं
और न संपन्नता के किस्से
मुझे बस सचिन की तरह
अपने मानिंद एक गेंद चाहिए
जिसके हर टप्पे पर टप्पे पर टप्पे पर टप्पे पर
घूमते हुए वह हवा के साथ उछले
उसी को लपकने के लिए उठे हाथ
पर वह गिरे धरती पर
धरती पर
धरती पर
सचिन ने गेंद चूमी कई कई बार
मैं चूमना चाहती हूं
शब्द कई कई बार
सचिन को गेंद को स्पर्श करते दुलराते कई कई बार देखा मैंने
मैं शब्दों को दुलराना चाहती हूं
ओम ही ओम हैं
जिसे जन्मा था प्रकृति ने
प्रकृति की कोख में पहला नाद ओम है
स्त्री की कोख में पहला नाद मां
उस पहली बार सुने शब्द को
मैं अपनी आत्मा के किसी सूक्ष्म से सूक्ष्म कण में
अपनी ही प्राणवायु से खींचकर गर्भ में पुनःस्थापित कर
मैं विदा लेना चाहती हूं
बाकि उसके बाद के सब निरर्थक संवेदनहीन शब्दों को
मैं पोटली में सिक्के और तंडुल की तरह
खुद से अलग कर देना चाहती हूं
हवा में गूंजते इन शब्दों में
अब आक्सीजन नहीं रही
जो प्राणवायु की उम्मीद दे सके
उम्मीद ही तो आपको कमजोर बनाती है
मैं उम्मीद की उस विपरीत धारा में
नाउम्मीद का शपथपत्र भरना चाहती हूं
मैं विदा लेना चाहती हूं।
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