शनिवार, 18 मई 2013

पिता से दूरी पर गुरू भी पिता ही


एक अजीब कशमकश से भरा रिश्ता जहां पिता- पुत्र के रिश्ते में एक दूरी है लेकिन मामा को गुरू के रूप में स्वीकार्य है तो वह नाना ही। वह नाना के शिष्य है एक ऐसे शिष्य जो अपने गुरू की कही बात टालता नहीं। अभ्यास का कोई भी क्षण वह गंवाता नहीं। लेकिन एक पुत्र की तरह कोई जिद वह करता नहीं। जो चाहिए उसके लिए मां है। मां तो सबकुछ है पर एक उम्र में आने के बाद मां से भी हिचकिचाहट है। मां समझती है और धीरे धीरे समझाती है। किशोर होते बच्चे के कई सारे सवालों के उत्तर भी मां ही देती है और साथ में बड़ा हो रहा छोटा भाई, जिसे चचेरा भाई उसने जाना ही नहीं, उसकी मदद करता है। वह जानने लगा है कि मैं बड़ा हो रहा हूं। त्रिलोकी की तरह मेरी भी दाड़ी मूंछ उग आई हैं। एक गौरव उसे महसूस होता है पर वह मदद तो नहीं कर सकता अपने भाई को पिटने से बचा नहीं सकता, फिर वह कैसा बड़ा भाई है? अकेले में वह सोचता त्रिलोकी कह रहा है हम बड़े हो रहे हैं, अब हम अकेले बाहर जा सकते हैं, सिनेमा देख सकते हैं।
क्या होता है सिनेमा? वह अचरज से पूछता है क्या तूने सिनेमा देखा है। त्रिलोकी उसे विश्वास में लेता है। वह उसका प्यारा भाई है वह ही उसे साइकिल से ले जाता है । उसके लिए सभी सामान ले आता है। उसने ही तो उसे सबसे पहले वह सब सिखाया जिसे मां करने में हिचकिचाती थी, नहाना धोना, पानी डालना..
त्रिलोकी के जरिए ही तो मैं दुनिया का वह हिस्सा देख पाता हूं जिसे मैं खुद नहीं देख पाता। इन छुट्टियों में पिता जी की ड्यूटी कॉपी जांचने के लिए लगेगी। वहां तो 6 बजे के बाद छुट्टी होती है। तब मुझे त्रिलोकी साइकिल में बिठाकर सिनेमा दिखाने ले जाएगा।
सिनेमा देखकर लौटा हूं। अद्भुत अनुभव है। गीत, संगीत, सौंदर्य, दृश्य का अद्भुत मेल है। मां से कहकर अन्नपूर्णा को संगीत सीखना चाहिए। मुन्नी भी नाटक में भाग ले सकती है। त्रिलोकी नाथ भी हीरो में खूब जमेगा। वैसे श्रीनिवास भी कम नहीं है पर अभी वह बच्चा है। सोचसोचकर वह आप ही हँसने लगा। पर क्या करें यह सारे रास्ते उसके लिए बंद है। पर संगीत वह महसूस कर सकता है।
जिस दोपहर उसने न जाने कितने ख्वाब बुने वह शाम इतनी खतरनाक होगी उसे नहीं पता था। उसे यह भी नहीं पता था कि जिस रिक्शेवाले से त्रिलोकी नाथ का झगड़ा हुआ था वह स्कूल में जाकर शिकायत कर देगा। नाना ने पहले तो त्रिलोकी नाथ को बुलाया तो उसने अपना सिर एकदम झुका लिया। अगर श्रीधर गिर जाता तो?
त्रिलोकी कोई उत्तर दे या न दे न जाने क्या हुआ कि वह किशोर श्रीधर एकदम सामने खड़ा हो गया। अगर ऐसा हो जाता तो बचाता भी वही। इतना यकीन है मुझे कि यह मुझे मरने नहीं देगा। हमने तय कर लिया है कि हम सिनेमा देखने जाएंगे। बस फर्क इतना है कि अब अम्मा, अन्नपूर्णा, मुन्नी भी साथ जाएंगे। इस बार सुना है धार्मिक फिल्म आने वाली है। अम्मा ने हां कर दी है।
चलो त्रिलोकी तुम्हारा बड़ा भाई बोल रहा है, चलो। एक किशोर किस तरह खुद को बड़ा महसूस करने लगता है यह उस उम्र में अपने पिता से मेरा पहला विद्रोह था।
नाना जानते थे। श्रीधर को महसूस हो रहा है कि वह बड़ा भाई है। शरीर से नहीं सही शब्दों के जरिए तो वह उसकी रक्षा कर सकता है आज श्रीधर ने त्रिलोकी को मार खाने से बचा लिया, उसने संरक्षण करना सीखा। नाना भीतर ही भीतर खुश थे पर यह उन्होंने जाहिर नहीं किया। बस खुद रात को जब अम्मा खाना खिला रही थी तो नाना ने कहा कि कोई धार्मिक फिल्म आए तो देख आना। इस सप्ताह रानी साहिबा आएंगी कुछ अच्छा सा बना लेना। तेरे बनाए खाने की तो वह बहुत तारीफ करती हैं और सुन श्रीधर को संभाल यह बड़ा हो रहा है। मुझे मालूम है त्रिलोकी नाथ उसकी बहुत मदद करता है।
रविवार है आज रानी साहिबा आई हैं इस बार बहुत सारी किताबे लेकर आई हैं लेकिन न जाने क्यों मुझे गुनाहों के देवता बहुत पसंद आ रही है।

गुरुवार, 16 मई 2013

मुक्ति की प्रार्थना

जब मेरे मामा की मृत्यु हुई तब मेरे नाना जिंदा थे। वह लोगों से कह रहे थे अच्छा हुआ उसे मुझसे पहले इसे मुक्ति मिल गई। किसी भी समाज का पिता यह चाहता है कि मेरे शव को मेरा पुत्र कंधा दे, मुझे मुखा िग ्न देकर विदा करे। पर मेरे नाना का यह उलट व्यवहार लोगों के लिए कानाफूंसी का विषय बनता जा रहा था।
जब मामा की मृत्यु हुई उस समय हम दीदी की शादी में लखनऊ गए हुए थे। पर मामा की डोली हमारे आने पर ही उठी। मैंने सुना मेरे कई रिश्तेदारों कह रहे थे, कैसे पिता हैं यह। बेटे का शोक होना चाहिए और यह .. ..
मैंने नाना के पास बैठते हुए उनकी हथेली मे अपनी हथेली टिकाई। वह कान कम सुनते थे इसलिए उनसे बात करने का मेरा यही तरीका था अन्य दिनों वह हासपरिहास में कहा करते मेरा हाथ मत तोड़ देना पर यह बेला हास परिहास की नहीं थी। वह लिखकर बात करते थे। मैंने लिखा आप यह सब क्या बोल रहे हैं लोग आपकी बात नहीं समझ रहे हैं। वह मेरी ओर देखने लगे। मैंने अपने होंठां पर उंगली रख ली। उन्होंने कहा अच्छा. और चुप हो गए। मैंने लिखा बाद में बात करेंगे। फिर मैंने लिखा आखिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं लोग आपकी बात का गलत अर्थ निकाल रहे हैं । नाना ने क्या लिखा आप भी पढि़ए -
मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं कि अगर वह जिंदा रहता और मैं मर जाता तो कौन उसकी देखभाल करता। मैं उसकी सेवा तो नहीं कर सकता और न उस तरह की देखभाल पर उसे देख तो सकता था। उसकी तकलीफ पर किसी को बुला तो सकता था। उसकी सेवा करवा सकता था। पर अब मैं ही कितने दिन रहूंगा इसका पता नहीं फिर मैं अपने बेटे को इस हाल में देखकर मर भी तो नहीं पाता उसे मुक्ति मिली और अब मुझे भी मुक्ति मिल जाएगी।
मैंने उसे बहुत तकलीफ दी वह इसलिए कि वह लाचार न बनें। और तेरे मामा ने वह सब कर दिखाया जो एक सामान्य आदमी भी नहीं कर सकता। उनकी बूढ़ी आंखों में अपने बेटे के लिए पहली बार आँसू थे। वह क्षमायाचना कर रहे थे। अपने बेटे के लिए प्रार्थना कर रहे थे। अपने बेटे के जीवट को सराह रहे थे। बिना पतझड़ के भी मेरे नाना बिखर रहे थे उनके मन के तार एक विषाद संगीत सुना रहे थे जिसके तार आज पहली बार बज रहे थे। नाना की कठोरता का कवच एक हिम पिंड बन गया था जहां वह पक्षाघात से अवसन्न पड़े बेटे की मुक्ति की प्रार्थना कर रहे थे।

सपनों की उड़ान 1

3- 4 साल की उम्र में ही वह पक्षाघात के शिकार हो गए थे और उनका एक पैर बिलकुल टेढ़़ा हो गया। उस उम्र में जब उनके साथी बाहर मैदान में खेला करते आपस में झगड़ा करते मारते पीटते वह बस उनको देखता रहता और अचानक से उसका ध्यान अपने पैर पर जाता। वह अपनी अम्मा पूछता कि क्या मेरे पैदा होते समय से ही मेरा पैर ऐसा है। वह कहता मेरा पैर टेढ़ा क्यों है? देखो ना अम्मा अन्नपूर्णा
कितना इठला इठलाकर डांस कर रही हैं, कितनी सुंदर लग रही है और मुन्नी अपनी सहेलियों के साथ दौड़ती भागती रहती है। इनका पैर तो टेढ़ा नहीं है फिर मेरा क्यों है। अपनी ही संतान द्रारा पूछे गए मासूम सवालों का मां क्या उत्तर दे। पास ही खड़े पिता ने उत्तर दिया एक शिक्षक होने के नाते वह महसूस करते थे कि बच्चो के हर सवाल का उत्तर दिया जाए।
तुमको पक्षाघात हुआ है श्रीधर। यह किसी को भी हो सकता है और जरूरी नहीं कि हर किसी को हो। यह क्यों होता है यह मुझे मालूम नहीं है। बस तुम यह जान लो कि शायद तुम्हारी किस्मत में खेलना -कूदना नहीं है। पर तुम पढ़ाई कर सकते हो और अपने भाई- बहन में सबसे ज्यादा आगे निकल सकते हो। तुमको सिर्फ पढऩे का ही काम है वैसे भी घर के किसी काम में तुम मदद नहीं कर सकते इसलिए अपना ध्यान पढ़ाई- लिखाई में लगाओ। रामरक्षा याद करो। हो सकता है रामरक्षा पढक़र तुम्हारे पांव भी सीधे हो जाए। ऐसे चमत्कार हुए हैं। यह देवीय प्रकोप भी हो सकता है जिसे पूजा- पाठ से ही ठीक किया सकता है। कल से रामरक्षा याद करना शुरू कर दो।
एक तरफ रामरक्षा उसके सबक और दूसरी तरफ वह नन्हा बालक। बचपन से ही उसे इस कर्मकांड से चिड़ हो गई और वह दर्शन की तरफ मुड़ गया । ईश्वर में विश्वास था पर कर्मकांड में नहीं।
मेरे नाना ने उनको सख्त अनुशासन में रखा और खुद भी उस अनुशासन में बंधे। परिवार में सभी को अनुशासन में रहना होता था इसे मजबूरी भी कह सकते है। इस कठोर अनुशासन की एक वजह यह भी थी कि उन्होंने भविष्य को देख लिया था और वर्तमान उनके सामने था। वह नहीं चाहते थे कि कोई उनके बच्चे को बेचारा कहे। वह हमेशा दूसरों पर निर्भर रहे। मेरी नानी मेरे नाना के इस कठोर व्यवहार से दु:खी रहती। जब कभी वह उनको गोदी में पकड़़ दुलार के समुंदर में ले जाना चाहती। सामने खड़े नाना को देखकर वह रूक जाती। पूरे जीवन भर गोदी में उठाकर नहीं रख पाएगी। नीचे छोड़ दे और चलना सीखने दे। यह दृश्य बच्चा अपनी आंखों से ओझल नहीं कर पाया और अपनी मां के और करीब होता गया साथ ही पिता के साथ एक दूरी बनती गई। यह दूरी विचारों की भी थी।
एक मां के लिए इससे अनमोल दौलत क्या होगी कि जब उसके बच्चे को कोई प्यार करे उसके लिए उसकी आंखों में आँसू हो। अपने पति द्रारा अपने बेटे की उपेक्षा भला किस मां को पसंद आएगी। पर एक पिता होने के नाते मेरे नाना जानते थे कि अगर इसे हर समय इसी तरह गोदी में रखा जाएगा तो कभी यह चल नहीं पाएगा। और फिर हमारे न रहने पर इसका क्या होगा। यह सोचकर उनकी रुह कांप जाती। आसपास के लोगों की बेचारगी भरी बातें उनके दर्द को कम करने के बजाए और ज्यादा बढ़ा देती पर वह यह सब नानी से नहीं कहते क्योंकि नानी को तो वह सब लोग बहुत भले लगते । सपनों की उड़ान यहीं से शु रू होती है..
सपनों की उड़ान- ऐसे विक्लांगों की कहानियां जिन्होंने सफलता का शिखर छुआ

बुधवार, 15 मई 2013

सपनों की उड़ान


गर्मियों की छुट्टियां बहुत बार ननिहल में गुजारी। यूं तो ननिहाल पिथौरागढ़ के एक छोटे से गांव पभ्या में हुआ पर हमारे लिए हमारा ननिहाल पीलीभीत था क्योंकि नाना वहीं संस्कृत के अध्यापक थे। ममरे भाई-बहनों के साथ बचपन की वह यादें अभी भी कई बार हँसाती हैं या फिर मेरी किरस्सागोई का हिस्सा बन मेरी बेटी के लिए एक तिलिस्म रचती हैं। तब हम सब तितलियों को पकडऩे के लिए न जाने कितनी दूर तक दौड़ जाते थे। पत्थर के ढेले से आम गिराने के लिए तब हम न धूप देखते थे और न कुछ और। गिरे आम को खोजने के लिए हम अपनी पूरी ऊर्जा खर्च कर देते। ऐसे होते थे हमारे समरकैंप। इन समर कैप में एक प्रिसिंपल भी छुट्टियों में घर आते थे और वह थे हमारे मामा। उनकी छड़ी उनके सिहराने रहती। बाहर बरामदे में जिसमें चिक लगी होती थी उनकी एकमात्र जगह थी। वहीं वह पढ़ते और आराम करते। हम में से सबसे छोटा भाई बहन नीचे लेटकर देखता कि उनका चश्मा क्या र ्रखा हुआ है? यदि हां तो फिर हम धीरे धीर सरक सरक कर निकल जाते। चश्मा नहींं होने का मतलब था कि वह पढ़ रहे हैं और हम सब उनकी गिरफ्त में आ सकते हैं। हम सब बच्चों को उनका डर था।
जबकि कभी वह हमें मारते नहीं थे पर एक अजीब सा डर सभी बच्चों के भीतर तारी था। एक बार मां ने कहा था उनका सारा गुस्सा छड़ी में है, जान लो। अगर बदमाशी करी और दादा को गुस्सा आया तो फिर दीदी जैसी पिटाई होगी। मालूम है। पाठकों, दीदी वाली बात आपको बतानी पड़ेगी क्योंकि तभी आप उस डर को जस्टीफाई कर पाएंगे। एक बारा मामा और मौसी घर आए। तब आजकल की तरह फ्रिज तो नहीं थे कि घर पर ही आइसक्रीम जमाने का जमाने का आइडिया क्लिक किया जाए। इसीलिए आइसक्रीम या तो लोग ठेले पर खाते या फिर रेस्तरां में जाकर। मेरे मामा सडक़ पर खा नहीं सकते थे लिहाजा मामा और मौसी के साथ मेरे दीदी कुल्फी खाने गई। खाकर घर लौटेने लगे तो रास्ते में एक बर्फ कि सिल्ली ले जाता ठेला दिखाई दिया। उसके कोमल मन ने सोचा कि बर्फ खाकर देखी जाए। आखिर बर्फ से ही तो कुल्फी बनी दी। वह जिद करने लगी मामा बर्फ खिलाओ। मामा ने समझाया पर वह तो अड़ गई। फिर मामा को गुस्सा आया और उन्होमे उसी छड़ी से उसकी पिटाई कर दी। मौसी तो रोने लगी ..
मामा की वह मार ऐसी पड़ी कि दीदी ने जिद करना तो छोड़ ही दिया इसके साथ ही अपने मन की बात कहना भी हमेशा के लिए छोड़ दिया। उसकी क्या इच्छा है, वह क्या चाहती है या नहीं चाहती है, यह किसी को पता नहीं। ंसिर्फ उसके मन के। मामा के हाथों दीदी की पिटाई वाली यह बात इतनी बार दुहराई गई कि मन में यह विश्वास पैदा हो गया कि उनका गुस्सा उनकी छड़ी में रहता है। फिर उस उम्र में हम बेताल कहानियां और पंचत्रंत की कहानी भी खूब पढ़ते थे? चमत्कार या रहस्य तो घर में भी हो सकते हैं।
आखिर मामा ने छडी से क्यों पीटा? थप्पड़ क्यों नहीं मारा? और ऐसा क्या कारण था कि वह सडक़ पर ठेले में मिलने वाली आइसक्रीम या कुल्फी नहीं खा सकते थे। इसके लिए उनको हल्दानी शहर में बसे भोटिया पड़ाव से शहर के दूसरे छोर में बने नानक स्वीट हाउस जाना पड़ा।
मैं बताती हूं
सपनों की उड़ान यहीं से शु रू होती है..
सपनों की उड़ान- ऐसे विक्लांगों की कहानियां जिन्होंने सफलता का शिखर छुआ

रविवार, 23 सितंबर 2012

आभार

प्रिय मित्रों,
बहुत-बहुत आभार।
आपकी पत्रिका अपराजिता 6 माह पूर्व 23 मार्च को शुरू हुई थी। आज ठीक 6 महिने हो गए हैं। आप सबके सहयोग और निष्ठा के कारण अपराजिता अपने देश सहित 25 अन्य देशों में भी पढ़ी गई। भारत में यह 23 राज्यों में पढ़ी गई। यह सब आपकी शुभकामनाओं और प्रयास का ही प्रतिफल है। यह विस्तार जारी रहे इसके लिए मुझे आपका साथ चाहिए और शुभकामनाएं भी। आप अपने अन्य मित्रों को भी अपराजिता से परिचित करा सकते हैं। आपके सुझाव मेरी धरोहर हैं। समीक्षा मेरा उत्साह और आलोचना इस पत्रिका का जीवन प्राण। क्योंकि मेरा मानना है हम गलतियों से ही सीखते हैं खुद का परिष्कार कर सकते हैं। तभी तो कहेंगे आप हम हैं अपराजिता।
सादर/स्नेह
डॉ. अनुजा भट्ट, संपादक अपराजिता
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2 Maharashtra
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19 Spain
20 Colombia
21 Bangladesh
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गुरुवार, 30 अगस्त 2012

मोनोक्रॉम दुल्हन के नए अंदाज-डॉ. अनुजा भट्ट


बात सीधे शुरू करें। मानोक्राम यानी ब्लैक, वाइट, ग्रे, नेवी ब्लू जैसे डार्क व सॉलिड कलर्स। आज की दुल्हन के लिए यही कलर्स ट्रेंड में हैं। डिजाइनर वरुण बहल अपने क्लेक्शन नोविया में डार्क कलर्स में ब्राइडल वियर लेकर आए हैंं। इनमें ब्लैक, डार्क ग्रीन, ग्रे, ब्राउन जैसे कलर्स में साड़ी, लहंगा विद वेलवेट कोट, लॉन्ग अनारकली विद वन साइडेड लॉन्ग जैकेट, फ्रंट ओपन सूट के साथ प्लाजो पैंट्स वगैरह हैं। फेमिनिन अपील के लिए नेट को भी खूबसूरती से यूज किया गया है।
अल्टिमेट इंडियन ब्राइडल कलर माने जाने वाले रेड के भी कई डिजाइन हैं । इनके साथ चौड़ी एम्ब्रॉयडरी, पैच वर्क, क्रोशिया वर्क वगैरह को ब्लेंड किया गया है। ट्रडिशनल लुक और मॉडर्न फैशन का कॉम्बिनेशन जेजे वलाया ने भी यूज किया। उनकी डेसेज में डिजिटल प्रिंट्स और ऑटोमन एम्पायर की झलक है। वैसे, ब्राइडल वियर में लेदर व वुड का यूज करके उन्होंने एकदम डिफरेंट ड्रेसेज बनाई हैं। इस कलेक्शन में आइवरी शेड्स व वाइब्रेंट कलर्स के साथ रॉयल अपील है, जिसे पाइन सिल्क, वेलवेट, जरदोजी, सिल्क जैसे फैब्रिक्स के साथ बनाया गया है।
लेकिन ब्राइडल वियर में लेटेस्ट टशन है मोनोक्रॉमेटिक फैशन का। बेशक इसे पहले कैजुअल्स में आजमाया गया है। ब्लैक, वाइट व ग्रे जैसे कलर्स भी ब्राइडल वियर में शामिल हो चुके हैं। हालांकि दुलहन के अंदाज निखारने के लिए इनमें थोड़ा-बहुत दूसरे कलर्स के साथ भी एक्सपेरिमेंट करने की गुंजाइश रखी गई है।
अब मोनोक्रॉम ट्रेंड ब्राइडल वियर में छा रहा है, जिसमें ब्लैक, वाइट, ग्रे, नेवी ब्लू जैसे डार्क व सॉलिड कलर्स से एक्सपेरिमेंट करने का पूरा स्कोप है।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

जमाइकन स्टाइल बेडरूम - डिजाइनर- अंजली गोयल वागीशा कंटेंट कंपनी



बेडरूम घर का वह कोना है, जहां दिन भर की थकान के बाद चैन की नींद सोना चाहते हैं हम सब। एक ही तरह की सेटिंग, फैब्रिक, रंगों और फर्नीचर से हम कभी न कभी ऊबते हैं और चाहते हैं कि कुछ नया प्रयोग करें। यदि आप भी अपने इस नितांत निजी कमरे को नया स्वरूप देना चाह रही हों तो जमाइका स्टाइल को पसंदीदा स्टाइल में शामिल कीजिए। सवाल यह है कि क्या है जमाइका स्टाइल?
एक खूबसूरत-सी जगह है जमाइका, जहां के राजसी महल संसार भर में मशहूर हैं। इन्हीं महलों से प्रेरित है जमाइकन स्टाइल। सिल्वर वॉल कलर का प्रयोग किया गया है इसमें। वुड की एक खास किस्म पर सिल्वर पेंट शाही रंगढंग से प्रेरित है तो ग्रे, सिल्वर, लाईलेक कलर्स का इस्तेमाल इसे राजसी रूप प्रदान करता है। ब्लू और डार्क कलर के सिल्क-वेलवेट के फैब्रिक बेडरूम को शानदार लुक देते हैं। पिलोज और कुशंस के आकार और एंब्रॉयडरी पर विशेष ध्यान दिया गया है। बेडसाइड टेबल भी स्टील फिनिशिंग वाली है, जिनमें बेडस्प्रैड से मैच करते वासेज हैं। ब्लैक बैकग्राउंड पर पर्पल डिजाइन वाला कारपेट फर्श को खूबसूरत बनाता है। अलग स्टाइल का शैंडेलियर कमरे को जीवंत बना देता है।
7 टिप्स सजावट के
1. जमाइकन स्टाइल का अर्थ है बोल्ड कलर्स और मिनिमल फर्निशिंग। ड्रमेटिक क्रीम लिनेन, डार्क फर्नीचर इसकी खूबी है। फर्नीचर सॉलिड वुड का हो तो अच्छा।
2. इस थीम के तहत गोल्डन, पीला, ऑरेंज, पिंक, लैवेंडर, ब्लू कलर के अलावा ग्रीन के शेड्स ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं।
3. कारपेट से कमरे के एक हिस्से को ढके। बेडरूम का ज्यादातर हिस्सा खुला रहना चाहिए।
4. बेडरूम की सीलिंग ज्यादा ऊंची है तो डार्क ब्लेड्स वाले सीलिंग फैन का प्रयोग करें। बडी खिडकियों पर हैवी पर्दे लगाएं।
5. बेडरूम की वॉल पर ग्रीन के शेड प्रयोग करें।
6. जमाइकन थीम में फेंगशुई का भी खासा महत्व है। खास तौर पर दिशाओं का चयन बहुत सावधानीपूर्वक किया जाता है।
7. वॉल्स पर ढेरों पेंटिंग्स, फोटो फ्रेम्स के बजाय रंगों के संयोजन और पैटर्न पर ही ज्यादा ध्यान देना चाहिए। लेकिन प्लांटर्स का प्रयोग बेडरूम में कर सकते हैं। उसमें ताजे फूल लगाएं या फिर बाजार में मौजूद आकर्षक स्टिक्स।

शनिवार, 25 अगस्त 2012

यौन विकृतियों का नेपथ्य/ अशोक गुप्ता



न केवल भारत में बल्कि विश्व में बड़े फलक पर, यौन संबंधों को स्वीकृति केवल विवाह संस्था के जरिये मिलती है. इस स्वीकृति के बाहर यौन संबंधों का होना अनैतिक और आपराधिक माना जाता है. यौन संबंध को तृप्ति से जोड़ कर देखना भले ही परम्परागत मूल्यबोध का विषय न हो, लेकिन सामाजिक मनोविज्ञान इस ओर से मुहं नहीं मोड़ता और यह एक स्थापित सत्य है कि अतृप्ति कारक यौन संबंध एक बेहद घिनौना और अमानवीय कृत्य होता है और इससे विकृतियाँ उपजती हैं. यहाँ से इस खोज की ज़रूरत महसूस होती है कि आखिर तृप्ति की उपज का केंद्र कहाँ है ?
पहली बात तो यह समझने की है कि यौन संबंध केवल दैहिक क्रिया भर नहीं हैं, बल्कि इसमें स्त्री और पुरुष, दोनों के लिये, देह और मन का तादात्म्य बहुत ज़रूरी है. मन की भूमिका आते ही, मन की स्वीकृति का प्रश्न अपनी जगह बनाता है. यह प्रश्न पारस्परिकता की ज़रूरत की ओर इशारा करता है. पारस्परिकता के अर्थों में, देह संबंध, तृप्ति के लिये स्त्री और पुरुष दोनो की निजता को एक धरातल पर लाने की मांग करते हैं. सरल शब्दों में कहा जाय तो स्त्री और पुरुष के बीच अगर दाता और याचक का संबंध हैं, दास और मालिक का संबंध है, तो तृप्ति की जगह नहीं बन सकती, क्योंकि यहाँ तृप्ति की चर्चा किसी एक की निजी तृप्ति के संदर्भ में नहीं हो रही है, बल्कि पारस्परिक एकात्म के धरातल पर तृप्ति की हो रही है. यह हुआ तो चरम सुख है, अन्यथा बर्बरता है, पशुता है और इसलिए अनाचार है.
अब देखें कि विवाह संस्था अपने विधान में इस पारस्परिकता के लिये कितनी स्पेस छोड़ती है. विवाह दो व्यक्तियों का मेल है या दो अनुकूल व्यक्तित्वों का, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि अनुकूलन के बगैर पारस्परिकता कहाँ संभव है ? व्यक्तित्वों के अनुकूनल के साथ विधान का अनुकूलन भी अपनी भूमिका रचता है. क्या पारिवारिक व्यवस्था का विधान अनुकूल व्यक्तित्वों को भी पारस्परिकता रच पाने में सहयोग करता है..? दो अपरिचित स्त्री पुरुष जब अचानक एक बंधन में बाँध दिए जाते हैं, तो, अगर वह सौभाग्य से एक दूसरे के लिये अनुकूल भी हैं, तब भी उनके बीच संवाद का स्वतंत्र परिवेश तो होना चाहिए. जब देह संबंध की राह इस संवाद के एक घटक के रूप में निकलती है, तो तृप्ति की संभावना निश्चित रूप से घनी है. लेकिन भारतीय विवाह संस्था न तो अनुकूलन को एक कसौटी मानती है, न उसकी व्यवस्था में अनुकूलन उपजाने की कोई समुचित राह है. उसमें पति स्वामी है, लेकिन पत्नी के पिता उसके लिये भारी मूल्य अदा करते हैं.. परिवार में पत्नी और पति के बीच अनेक वर्जनाएं हैं जो स्वतः उपजती तृप्ति और आनंद को भी बेहयाई के खाते में दर्ज करती है. विशेष रूप से स्त्री की आचार संहिता में इस बात के बीज गहराई से बोये जाते हैं कि उसके लिये अपना आनंद भाव, ज़ाहिर करना वर्जित है. पति पत्नी के बीच अपने घर में भी, यहाँ तक कि अपने अन्तःपुर में भी किलक कर मिलना हंसना अमार्यादित कहा जाता है. और इस बंदिश की गिरह से पुरुष भी उतना ही बंधा होता है जितनी स्त्री. ऐसे में उनके बीच होने वाला देह संबंध, प्रायः विवाह संस्था द्वारा दिया हुआ एक बासी दूषित फल जैसा होता है. यह मनोविज्ञान सम्मत तथ्य है कि देह संबंध के दौरान यदि तृप्ति और आनंद के संकेत एक दूसरे पर व्यक्त नहीं होते, तो उस संबंध का मूल अभीष्ट खंडित हो जाता है. उस से केवल वीभत्स उपजता है, चरम आनंद नहीं. जब कि दाम्पत्य धर्म की तरह होने वाले वह देह संबंध अपने परिवेश  और अनुशासन के चलते एक दैनन्दिनी से अधिक नहीं ठहरते .कुल मिला कर विवाह संस्था प्रदत्त यौन संबंधों की स्वीकृति इतनी रस्मी और निष्फल होती है जिससे केवल जैविक संतान तो उपज सकती है, तृप्ति और आनंद नहीं मिल सकता ( हालांकि इस निष्कर्ष का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता.)
अतृप्ति के उपरोक्त कारण विकृति पैदा करते हैं. विकृति के अनंत रूप हो सकते हैं. जैसे कोई यह पूछे कि दो और दो चार के योगफल के कितने गलत उत्तर हो सकते हैं, तो उत्तर लगभग अनंत होगा क्योंकि सही उत्तर तो एक ही होगा, चार. बाकी सब गलत.
आनंदहीनता, कुंठा, अकेलापन, तिरस्कार भाव (  चाहे सचमुच का तिरस्कार या सत्कार के अभाव का एहसास ) यह सब व्यक्ति को घोर अंतर्मुखी, संकल्पहीन और नदी में बहते हुए लकड़ी के लट्ठे सा निस्पंद भी बना सकते हैं और घोर निर्मम क्रूर, जघन्य अपराधी भी. यहाँ एक सूक्ष्म सी बात यह समझी जा सकती है, कि संवेदना व्यक्ति को मानवीय बनाती है और संवेदना का संचार तृप्ति और आनंद से होता है. इस नाते यह बात निर्मूल नहीं कही जा सकती कि घोर निर्मम क्रूर सा जघन्य अपराधी इसी किसी विकृति का शिकार हो जिसके केन्द्र में अतृप्ति एक शिला बन कर बैठ गयी हो, या एक राक्षस बन कर.
ऐसे में स्त्रियां प्रायः शिला हो जाती हैं और पुरुष दैत्य, या कुटिल छद्म से लैस भेडिये.

तो, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर समाज स्त्री को यौन शुचिता के आरोपित मूल्य से मुक्त कर दे, विवाह संस्था में प्रेम और सामंजस्य के लिये स्पेस बने तो समाज में यौन अपराध कम हो सकते हैं. लेकिन अभी तो यह ही नहीं हो पाया है कि विवाह के लिये साथी चुनने का अधिकार विवाह्य व्यक्तियों को मिले. चुनाव की कसौटी में अनुकूलन की परख के मूल्य हों, और यह माना जाय की आनंद और तृप्ति के बगैर दाम्पत्य का निर्वाह इतना दुष्कर है कि उसकी पीड़ा के आगे तृप्ति और आनंद भी अपनी वरीयता खो देता है. फिर बचा ही क्या जीने के उत्साह के लिये...? केवल अंत की प्रतीक्षा, या यौन अपराधों के गलियारे में अनायास पदार्पण... यह अंत समाज के लिये त्रासद है. भगवती चरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर बनी फिल्म में एक गीत की पंक्तियाँ है;
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो...
पर यहाँ तो अंतर विरोध यह है कि भोग को स्वीकृति देने वाली एक मात्र संस्था भोग का अधिकार पाए पात्रों को केवल त्याग की ओर धकेलती है. मैं समझता हूँ कि यह तो सबसे बड़ा यौन अपराध है और सब यौन अपराधों का उत्प्रेरक घटक...
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Special Post

मिथक यथार्थ और फेंटेसी का दस्तावेज-डॉ. अनुजा भट्ट

  (अब पहले की तरह किस्से कहानियों की कल्पनाएं हमें किसी रहस्यमय संसार में नहीं ले जाती क्योंकि हमारी दुनिया में ज्ञान, विज्ञान और समाज विज्...