शनिवार, 25 अगस्त 2012

यौन विकृतियों का नेपथ्य/ अशोक गुप्ता



न केवल भारत में बल्कि विश्व में बड़े फलक पर, यौन संबंधों को स्वीकृति केवल विवाह संस्था के जरिये मिलती है. इस स्वीकृति के बाहर यौन संबंधों का होना अनैतिक और आपराधिक माना जाता है. यौन संबंध को तृप्ति से जोड़ कर देखना भले ही परम्परागत मूल्यबोध का विषय न हो, लेकिन सामाजिक मनोविज्ञान इस ओर से मुहं नहीं मोड़ता और यह एक स्थापित सत्य है कि अतृप्ति कारक यौन संबंध एक बेहद घिनौना और अमानवीय कृत्य होता है और इससे विकृतियाँ उपजती हैं. यहाँ से इस खोज की ज़रूरत महसूस होती है कि आखिर तृप्ति की उपज का केंद्र कहाँ है ?
पहली बात तो यह समझने की है कि यौन संबंध केवल दैहिक क्रिया भर नहीं हैं, बल्कि इसमें स्त्री और पुरुष, दोनों के लिये, देह और मन का तादात्म्य बहुत ज़रूरी है. मन की भूमिका आते ही, मन की स्वीकृति का प्रश्न अपनी जगह बनाता है. यह प्रश्न पारस्परिकता की ज़रूरत की ओर इशारा करता है. पारस्परिकता के अर्थों में, देह संबंध, तृप्ति के लिये स्त्री और पुरुष दोनो की निजता को एक धरातल पर लाने की मांग करते हैं. सरल शब्दों में कहा जाय तो स्त्री और पुरुष के बीच अगर दाता और याचक का संबंध हैं, दास और मालिक का संबंध है, तो तृप्ति की जगह नहीं बन सकती, क्योंकि यहाँ तृप्ति की चर्चा किसी एक की निजी तृप्ति के संदर्भ में नहीं हो रही है, बल्कि पारस्परिक एकात्म के धरातल पर तृप्ति की हो रही है. यह हुआ तो चरम सुख है, अन्यथा बर्बरता है, पशुता है और इसलिए अनाचार है.
अब देखें कि विवाह संस्था अपने विधान में इस पारस्परिकता के लिये कितनी स्पेस छोड़ती है. विवाह दो व्यक्तियों का मेल है या दो अनुकूल व्यक्तित्वों का, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि अनुकूलन के बगैर पारस्परिकता कहाँ संभव है ? व्यक्तित्वों के अनुकूनल के साथ विधान का अनुकूलन भी अपनी भूमिका रचता है. क्या पारिवारिक व्यवस्था का विधान अनुकूल व्यक्तित्वों को भी पारस्परिकता रच पाने में सहयोग करता है..? दो अपरिचित स्त्री पुरुष जब अचानक एक बंधन में बाँध दिए जाते हैं, तो, अगर वह सौभाग्य से एक दूसरे के लिये अनुकूल भी हैं, तब भी उनके बीच संवाद का स्वतंत्र परिवेश तो होना चाहिए. जब देह संबंध की राह इस संवाद के एक घटक के रूप में निकलती है, तो तृप्ति की संभावना निश्चित रूप से घनी है. लेकिन भारतीय विवाह संस्था न तो अनुकूलन को एक कसौटी मानती है, न उसकी व्यवस्था में अनुकूलन उपजाने की कोई समुचित राह है. उसमें पति स्वामी है, लेकिन पत्नी के पिता उसके लिये भारी मूल्य अदा करते हैं.. परिवार में पत्नी और पति के बीच अनेक वर्जनाएं हैं जो स्वतः उपजती तृप्ति और आनंद को भी बेहयाई के खाते में दर्ज करती है. विशेष रूप से स्त्री की आचार संहिता में इस बात के बीज गहराई से बोये जाते हैं कि उसके लिये अपना आनंद भाव, ज़ाहिर करना वर्जित है. पति पत्नी के बीच अपने घर में भी, यहाँ तक कि अपने अन्तःपुर में भी किलक कर मिलना हंसना अमार्यादित कहा जाता है. और इस बंदिश की गिरह से पुरुष भी उतना ही बंधा होता है जितनी स्त्री. ऐसे में उनके बीच होने वाला देह संबंध, प्रायः विवाह संस्था द्वारा दिया हुआ एक बासी दूषित फल जैसा होता है. यह मनोविज्ञान सम्मत तथ्य है कि देह संबंध के दौरान यदि तृप्ति और आनंद के संकेत एक दूसरे पर व्यक्त नहीं होते, तो उस संबंध का मूल अभीष्ट खंडित हो जाता है. उस से केवल वीभत्स उपजता है, चरम आनंद नहीं. जब कि दाम्पत्य धर्म की तरह होने वाले वह देह संबंध अपने परिवेश  और अनुशासन के चलते एक दैनन्दिनी से अधिक नहीं ठहरते .कुल मिला कर विवाह संस्था प्रदत्त यौन संबंधों की स्वीकृति इतनी रस्मी और निष्फल होती है जिससे केवल जैविक संतान तो उपज सकती है, तृप्ति और आनंद नहीं मिल सकता ( हालांकि इस निष्कर्ष का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता.)
अतृप्ति के उपरोक्त कारण विकृति पैदा करते हैं. विकृति के अनंत रूप हो सकते हैं. जैसे कोई यह पूछे कि दो और दो चार के योगफल के कितने गलत उत्तर हो सकते हैं, तो उत्तर लगभग अनंत होगा क्योंकि सही उत्तर तो एक ही होगा, चार. बाकी सब गलत.
आनंदहीनता, कुंठा, अकेलापन, तिरस्कार भाव (  चाहे सचमुच का तिरस्कार या सत्कार के अभाव का एहसास ) यह सब व्यक्ति को घोर अंतर्मुखी, संकल्पहीन और नदी में बहते हुए लकड़ी के लट्ठे सा निस्पंद भी बना सकते हैं और घोर निर्मम क्रूर, जघन्य अपराधी भी. यहाँ एक सूक्ष्म सी बात यह समझी जा सकती है, कि संवेदना व्यक्ति को मानवीय बनाती है और संवेदना का संचार तृप्ति और आनंद से होता है. इस नाते यह बात निर्मूल नहीं कही जा सकती कि घोर निर्मम क्रूर सा जघन्य अपराधी इसी किसी विकृति का शिकार हो जिसके केन्द्र में अतृप्ति एक शिला बन कर बैठ गयी हो, या एक राक्षस बन कर.
ऐसे में स्त्रियां प्रायः शिला हो जाती हैं और पुरुष दैत्य, या कुटिल छद्म से लैस भेडिये.

तो, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर समाज स्त्री को यौन शुचिता के आरोपित मूल्य से मुक्त कर दे, विवाह संस्था में प्रेम और सामंजस्य के लिये स्पेस बने तो समाज में यौन अपराध कम हो सकते हैं. लेकिन अभी तो यह ही नहीं हो पाया है कि विवाह के लिये साथी चुनने का अधिकार विवाह्य व्यक्तियों को मिले. चुनाव की कसौटी में अनुकूलन की परख के मूल्य हों, और यह माना जाय की आनंद और तृप्ति के बगैर दाम्पत्य का निर्वाह इतना दुष्कर है कि उसकी पीड़ा के आगे तृप्ति और आनंद भी अपनी वरीयता खो देता है. फिर बचा ही क्या जीने के उत्साह के लिये...? केवल अंत की प्रतीक्षा, या यौन अपराधों के गलियारे में अनायास पदार्पण... यह अंत समाज के लिये त्रासद है. भगवती चरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा पर बनी फिल्म में एक गीत की पंक्तियाँ है;
ये भोग भी एक तपस्या है, तुम त्याग के मारे क्या जानो...
पर यहाँ तो अंतर विरोध यह है कि भोग को स्वीकृति देने वाली एक मात्र संस्था भोग का अधिकार पाए पात्रों को केवल त्याग की ओर धकेलती है. मैं समझता हूँ कि यह तो सबसे बड़ा यौन अपराध है और सब यौन अपराधों का उत्प्रेरक घटक...
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