मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

कर्टन कॉन्सेप्ट

यह सच है कि घर को आकर्षक बनाने में परदों का कोई सानी नहीं है। मगर घर की खूबसूरती में चार- चांद लगाने वाले इन परदों को यदि सही ढंग से इस्तेमाल न किया जाए, तो घर बोझिल भी दिखने लगता है। इसलिए जरूरी है कि परदे का चुनाव करते समय खास ध्यान रखा जाए-

-परदे रोज-रोज बदलने वाली चीज नहीं है, इसलिए परदों का चयन करते समय घर की दीवारों के रंग के साथ-साथ कपड़े की क्वॉलिटी पर भी ध्यान देना चाहिए।

-कपड़ों का चयन करते समय यह जरूर देख लें कि इन्हें कहां लगाना है। मसलन बच्चों के रूम में या मास्टर बेडरूम या लाउंज में।

-विंडो ड्रेसिंग करते समय सबसे पहले यह ध्यान रखें कि दीवारों, फर्नीचर, कारपेट और परदों के रंगों के बीच सही तालमेल हो। आप चाहें तो फर्नीचर या दीवारों के रंग से मैच करते हुए परदे लगा सकती हैं या फिर इनके रंग से मेल खाते कंट्रास्ट रंगों के परदे भी लगा सकती हैं।

जैसे-गुलाबी के साथ हल्का बैंगनी या नीला रंग बहुत जंचता है। अगर फैशन की बात करें, तो इन दिनों क्रीम और बादामी कलर ज्यादा ट्रेंड में हैं।

इनके साथ गहरे रंग का इस्तेमाल कर कमरे को सुंदर बना सकती हैं।
-आप चाहें तो दिन के वक्त खिड़कियों के परदों के किनारे को समेट कर उसे किसी आकर्षक डोरी या बैंड से बांध सकती हैं। इससे घर में अच्छी रोशनी भी आती है और परदे देखने में भी बहुत अच्छे लगते हैं।

-इसके अलावा अपने घर में गहरे रंग के शीयर कर्टन या रोमन ब्लाइंड का इस्तेमाल कर सकती हैं। इससे कमरे में हमेशा हल्की-हल्की रोशनी आती रहती है।

-बच्चों के कमरे में गहरे रंग के परदे का इस्तेमाल करें। बच्चों के कमरे के लिए पर्पल और मजैंटा रंग फैशन में हैं।

-कमरा बड़ा हो, तो ही फ्लोरल प्रिंट वाले परदे का इस्तेमाल करें, क्योंकि फ्लोरल प्रिंट वाले परदे एरिया को छोटा दिखाते हैं। कमरा यदि छोटा या मध्यम आकार का हो, तो हल्के रंग के प्लेन परदे ही अच्छे लगते हैं।

-फैब्रिक का चुनाव करते समय यह जानना भी जरूरी होता है कि आपके कमरे के हिसाब से कौन-सा कपड़ा सबसे सही रहेगा। अगर ज्यादा समय तक धूप आती है या अंधेरा ज्यादा रहता है, तो उसी के अनुसार कपड़े का चुनाव करें। परदों के लिए आजकल सिल्क, कॉटन, लिनेन आदि फैब्रिक चलन में हैं। नेट फैशन से आउट हो चुका है। किंरकल्ड फैब्रिक से बचें। इसके खिंच कर लंबा होने या सिकुड़ने की आशंका होती है।

-साल में कम से कम दो बार परदों की ड्राई क्लीनिंग जरूर करवाएं। धूप से परदों के रंग खराब हो जाते हैं, इसलिए उन्हें धूप से बचाने के लिए उनमें सफेद कपड़े की लाइनिंग जरूर लगवाएं।

-उमस भरी गरमी से राहत देने के लिए सफेद, गुलाबी, हल्का नीला, हल्का हरा, पीला आदि रंग के परदे अपने घर में लगवाएं। ठंडक का एहसास होगा।

-गरमियों में परदे के लिए नैचुरल फैब्रिक का इस्तेमाल बेहतर होता है। मसलन कॉटन, लिनेन, निटेड सिल्क टेक्सचर के परदे आप लगवा सकती हैं।

-घर को डिजाइनर परदों में हल्के और गहरे रंगों के तालमेल से भी सजाया जा सकता है।

बारि‍श में कर्टन कॉन्सेप्ट

मानसून में कर्टन की फैब्रिक्स की लेयर्स नहीं होनी चाहिए। इससे ह्यूमिडिटी बढ़ती है। गर्मी में आम तौर पर धूप से बचने के लिए डबल कर्टन कॉन्सेप्ट पर फोकस रहता है, पर अब सही समय है इन्हें कम करने का। मौसम का पूरा मजा लेने और घर में ह्यूमिडिटी को कम करने के लिए परदों में हलके फैब्रिक्स का इस्तेमाल बेहतर है। इसके लिए रेग्युलर बेसिस पर शिफॉन, नेट और स्पेशल ओकेजंस पर टस्सर सिल्क फैब्रिक में कर्टन चुन सकते हैं।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

http://www.magzter.com/preview/6595/144460


आखिर क्यों हर बच्चे के भीतर एक क्रांतिकारी है
डा. अनुजा भट्ट  
   हर बच्चा जब घर की देहरी पारकर खेल के मैदान में कदम रखता है उसके अंदर क्रांतिकारी भाव खुद ब खुद पैदा हो जाते हैं। परिवार द्रारा सिखाए गए संस्कार जैसे न्याय के साथ रहना,अन्याय न सहना, झूठ बोलना पाप है, दयालु बनो, मददगार बनो जैसी कई सारी बातें मैदान में जाते ही उसे विरोधाभासी लगने लगती हैं। क्योंकि बाहर की दुनिया में अधिसंख्यक लोग आचार- व्यवहार,नीति- अनीति, न्याय- अन्याय, झूठ-सच इन बातों को लेकर संवेदनहीन हो गए हैं। परिणाम स्वरूप उसके भीतर विद्रोह का भाव पैदा होता है और वह परिवार से सीखे गए संस्कार से  प्रभावित होकर अपने हक और अधिकार के प्रति संवेदनशील हो उठता है।  संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के बीच धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है। उसके भीतर तब कई बार महात्मा गांधी तो कभी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महापुरूष आकार लेने लगते हैं। वह उनकी तरह बनना चाहता है। वह अन्याय के खिलाफ होता है फिर चाहे अन्याय करने वाले उसके परिवार के ही सगे संबंधी क्यों न हो। फिल्म में जब हीरो  विलेन को मारता है तो वह ताली बजाता है। वह सच बोलता है, बोलना चाहता है पर उसे नासमझ कहकर घर के अंदर कर दिया जाता है। कभी उसके पिता यह कहकर लोगों को शांत करते हैं कि गर्म खून है समय के साथ तालमेल बिठाना सीख जाएगा। यह सब देखते हुए  धीरे-धीरे  वह जान जाता है कि पढ़ी गई और सीखी गई बातों को प्रयोग में लाना आसान नहीं है।  वह देखता है कि मंच पर जो नेता बड़ी बड़ी बातें करते हैं वह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। करोड़ों का भ्रष्टाचार करते हैं। इसीलिए नेताओं की बातें सुनने वह जाता है पर बातें सुनने के बाद उसका असर उसके भीतर नहीं होता। वहां जाना उसके लिए मात्र मौजमस्ती करना है। पर अभी भी ऐसे नेता है जिनका लोग सम्मान करते हैं जिनके दिखाए रास्ते पर उनको उम्मीद की रोशनी जलती नजर आती है।
  मजबूत इरादे वाले बच्चे सीखी गई बातों को यथार्थ में भी अपनाते हैं।  वह अपने प्रेरणा स्रोत पर विश्वास रखते हैं।  परिवार का सहयोग उनको मिलता है। आगे चलकर ऐसे बच्चे समाज का सही दिशा में नेतृत्व करते हैं। उनकी अपनी एक विचारधारा होती है और वह अपनी उसी विचारधारा का लगातार पोषण करते रहते है। यह विचारधारा धर्म को लेकर भी हो सकती है, राजनीति को लेकर भी हो सकती है, दर्शन को  लेकर भी हो सकती है, जाति को लेकर भी हो सकती है, समाज को लेकर भी हो सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि हर बच्चे के भीतर सीखे गए संस्कार के बाद कुछ न कुछ परिवर्तन होता है। कुछ उस परिवर्तन को महसूस करते हैं और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।  यह परिवर्तन सकारात्मक और नकारात्मक दोनो तरह से होता है। मान लीजिए अगर कोई बच्चा किसी दूसरे बच्चे के पैसेे चोरी कर ले और न  दे तो वह इसके लिए विरोध करेगा। विरोध करने पर वह बच्चा उसे मारे-पीटे । वह घर में जाकर कहे कि उसने मेरा पैसा चुरा लिया। मैंने उससे कहा तो उसने मुझे मारा। पास में खड़े किसी भी व्यक्ति ने उसे ऐसा करने से रोका नहीं। मां कहती है, कल से पैसे लेकर मत जाना। यह अनुभव बच्चे के लिए आश्चर्यजनक था। वह बच्चा उसी दिन से अपने हक की बात करना भूल गया बल्कि वह खुद भी चोरी करने लगा क्योंकि उसने देखा कि चोरी करने पर दंड नहीं मिलता। परिवार में सिखाई गई बात चोरी करने पर दंड मिलता है, गलत साबित हुई।
 दूसरे उदाहरण में चोरी करने वाले बच्चे को सभी ने पकड़ा और उस दिन उसे सजा के तौर पर पार्क की सफाई करने के लिए कहा गया। फिर तो यह परंपरा ही शुरू हो गई कि जो भी गलत काम करेगा उसको दंड मिलेगा। ऐसे बच्चों ने आगे चलकर अपने- अपने समूह का नेतृत्व किया।
   सवाल यह है कि जो जीवनमूल्य  हम बच्चों को सिखाते हैं क्या उन संस्कारों का पालन उसे सिखानेवाले स्वयं करते हैं?  क्या हम संघर्ष से बचकर सरल और सपाट रास्ते की तलाश में नहीं रहते। जिन परिवारों में माता-पिता, अभिभावक, शिक्षक  जिस शिक्षा या सिद्धांत पर चलने की सलाह बच्चों को देते हैं,खुद भी उन नियमों का पालन करते हैं वहां बच्चे का विकास सही तरह से होता है। भ्रष्ट लोगों के बच्चे कभी  ईमानदार नहीं हो सकते। बात- बात पर झूठ बोलने वाले माता-पिता अपने बच्चे से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि उनका बच्चा उनसे सच बोलेगा। जो माता-पिता अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते, उनके दु:ख दर्द को नहीं समझते आगे चलकर जब वह अपने बच्चों से श्रवणकुमार बनने की उम्मीद करें तो यह झूठा दिलासा है। यह अलग बात है कि बच्चा खुद समझदार हो, उसकी तार्किक क्षमता मजबूत हो ,वह लकीर का फकीर न बने और कहे कि मैं गलत नहीं हूं और न गलत व्यवहार करुंगा। मेरी करनी मेरे साथ जाएगी। क्या ऐसी समझदारी सामान्य बच्चों के लिए संभव है? जिनका दायरा बेहद संकुचित है? यह समझदारी ऐसे बच्चों में ही दिखाई देती है जो सही- गलत का फैसला कर सकते हैं। जो बाहर की दुनिया से सरोकार रखते हैं जो पढ़ते-लिखते हैं।  जो ऐसे लोगों के संपर्क में आते हैं जिनसे समाज प्रभावित होता है। वह धर्मगुरू भी हो सकते हैं जिनकी वजह से उसकी विचारधारा प्रभावित हुई। वह सेवाभावी और उदार बना, उसने रिश्तों को संजोकर रखने का महत्व जाना, परिवार का महत्व जाना। बाहरी परिवेश का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा।  सही और गलत के बारे में उसकी अपनी स्पष्ट राय  बनी।
 संक्षेप में कहें तो माता-पिता, अभिभावक और शिक्षक चाहें तो तो इस क्रांति की लांै को जलने दे सकते हैं। अगर वह खुद से सवाल करें कि आखिर बच्चों के विकास के लिए उनका माडल क्या है। वह देश को कैसा नागरिक दे रहे हैं। क्या वह खुद अनुशासित हंै? जो नियम बच्चों के लिए हैं क्या वह उनका पालन करते हैं? क्या वह बच्चों के सवाल का सही जवाब देते हैं। क्या वह खुद अपनी गलती स्वीकार करते हैं? क्या वह इस मुहावरे का अर्थ जानते हैं जैसा बोओगे, वैसा काटोगे? अगर समाज का हर प्रतिनिधि खुद इन सवालों का जवाब जानकर आचरण करें तो हर बच्चा क्रांति कर सकता है। यह क्रांति हर क्षेत्र में संभव है।

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

बाल उत्सव में थिरके बच्चे



14 नवंबर बाल दिवस के अवसर पर वागीशा कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी ने बाल उत्सव का आयोजन किया। यह कार्यक्रम 13 नवंबर रविवार के दिन आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में कई प्रतियोगिताएं आयोजित की गई। कार्यक्रम की शुरूआत बाल मेराथन से हुई। इसके अलावा, निबंध, सुलेख,  ड्राइंग, क्राफ्ट, फैशन शो ,  बेबी शो / फैंसी ड्रेस , सामूहिक नृत्य, सामूहिक गायन,  एकल नृत्य, एकल गायन जैसी कई प्रतियोगिताएं इस आयोजन में शामिल थीं। इससे पहले भी वागीशा कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी, कई तरह के कार्यक्रम पेश कर चुकी है जिसमें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर  कला प्रतियेगिता, अपनी पहली वर्षगांठ और अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 साल पूरे होने के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन शामिल है।  कंपनी की सीइओ. डा. अनुजा भट्ट ने बताया कि इस तरह के कार्यक्रम को करने का उद्देश्य यह है कि समाज को जागरुक किया जाए और हर व्यक्ति को अपनी एक खास पहचान बनाने में मदद की जाएं।  मुझे खुशी है कि हमारा यह प्रयास  लोगों को पसंद आ रहा है और लोग हमसे जुड़ रहे हैं।
बेबी शो में अरुणिमा प्रथम, आकर्ष द्विीतीय, सौवर्नी तृतीय, दौड़ में ललित प्रथम, वृषभ द्विीतीय, संस्कार तृतीय रहे। कला के रंग कार्यक्रम में जूनियर स्तर पर अरुणिमा प्रथम, वागीशा द्विीतीय, श्रेय तृतीय रहे। सीनियर स्तर पर  स्वर्णिमा प्रथम, हर्शिता द्विीतीय, वृषभ  तृतीय रहे। सामूहिक नृत्य में स्वर्णिमा, शुभांगी ( सीनियर), वसुधा ,सिया, ओमा(जूनियर) ने  उत्कृष्ट प्रदर्शन किया । सुगम संगीत में अरुणिमा को प्रथम पुरस्कार मिला। फैशन  शो  में नन्हे मुन्नों ने सबका मन मोह लिया।  बड़े बच्चों ने भी फैशन शो में हिस्सा लिया और सबसे वाहवाही लूटी। श्रीपर्णा  सांस्कृतिक कार्यक्रम की जज रही। श्रीपर्णा शाीय गायिका के रूप में जाना पहचाना नाम हैं। डॉ. मनीषा पाल बेबी शो की जज रही यह नोएडा की जानीमानी बाल  रोग विशेषज्ञ हैं।  कला उपवन के जज रहे मुकेश कुमार। मुकेश नई दुनिया समाचार पत्र के डिजइनर हैड हैं।








शनिवार, 7 मई 2011

पेंटिंग बिछी कालीन में







डा. अनुजा भट्ट
कला के लिए जरूरी है कि कला का विकास हो। प्रस्तुतिकरण में भी बदलाव हो और वह हमेशा नएपन को लिए हुए लोगों को दिखाई दे। इसी सोच को आगे बढ़ाने का काम किया सुनील सेठी ने। सुनील फैशन डिजाइन कांसिल आफ इंडिया के अध्यक्ष हैं। वह मेनका गांधी के एनजीओ पीएफए पीपुल फार एनिमल से भी जुड़े हुए हैं और उस संगठन को अनुदान देते हैं। इस तरह देखें तो भारत भर के 31 पशु अस्पताल के लिए वह सेवा कर रहे हंै। सरसरी नजर से देखें तो फैशन डिजाइनिंग और पशु प्रेम का मेल नहीं पर बहुआयामी सोच के सुनील के दिमाग में इस तरह के कई विचार कौंधते है जिनको यकायक सुनकर आप चौंक जाएंगे। ऐसे ही उनके दिमाग में यह विचार आया कि क्यों न देश के नामी पेंटरों और डिजाइनरों की कृतियों को एक नए फार्म में पेश किया जाए। उनको देखने परखने का नजरिया बदला जाए और लोगों के ज्यादा करीब लाया जाए। पेंटिंग का महत्व तो सिर्फ कला प्रेमी ही जानते हैं। यह सोचते समय फ्लोरिंग के लिए पेंटिंग और ड्रेस डिजाइन उनको जम गए।
पहले यह सारी डिजाइन और पेंटिंग को ज्योमैट्रिकल ग्राफ में उतारा गया और फिर बुनकरों को डिजाइन के साथ दे दिया गया। जो पेंटिंग अभी तक घर की दीवारों का हिस्सा होती थी अब फ्लोर के कालीन में भी दिखाई देने लगी। लगभग 40 मशहूर पेंटरों और फैशन डिजाइनरों ने इसमें हिस्सा लिया। इन कालीनों की कीमत 35 हजार से लेकर 5 लाख थी। प्रतिकृति और प्रामाणिकता को देखा जाए तो आकार आकृतियां और संरचनाएं अदिकांश कालीनों का मूलकृति से काफी हद तक मिलती हैं किंतु कुछ कृतियों के रंग बदल भी दिए गए। कालीनों का आकार बहत्तर गुणा बहत्तर इंच और अड़तालीस गुणा अड़तालीस इंच था। रजा की पेंटिंग के आधार पर बने कालीन में एक बड़ा वृत था और उसके चारों ओर चौकोर आकृतियां। योगेश महीड़ा के कृति से बने कालीन में गांव का दृश्य दिखाई दे रहा था। जिसमें कुछ झोपड़ी थी और कुछ पशु। रोहित बल की कृति पर आधारित कालीन में मुगलशैली की किसी रानी का चित्र था। मनजीत बाबा की कृति में कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। इस तरह बड़े बड़े डिजाइनर भी अपना कला और कल्पना को कालीन में बुनते हुए देख्र रहे हैं। दिल्ली के मशहूर होटल में अभी हाल ही में में एक ऐसी प्रदर्शनी भी लगाई गई जिसमें पेंटर से लेकर फैशन डिजाइनरों तक की कृतियों को बुनकरों ने अपनी कला के रंग में ढाल दिया।
न्यूजीलैंड ऊन से बुने गए कालीनों में मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, रामकुमार, जहांगीर सबावाला, वैकुंठम, सेनका सेनानायके, मनीष पुष्कले, जयश्री बर्मन, परेश मैती, योगेश महीड़ा जैसे चित्रकार थे तो फैशन डिजाइनर रितु कुमार, मनीष अरोड़ा , जे.जे वाल्या जैसे डिजाइनरों की कृतियां भी थीं। पुरस्कृत बुनकरों ने इनको बुना था। रजा की पेटिंग पर बने कालीनों की कीमत 5 लाख रुपये थी तो योगेश महीड़ा की कृति पर बने कालीन की कीमत 35 हजार रुपये। रामकुमार की कृति पर बना कालीन 5 लाख का था। फैशन डिजाइनरों की कृतियों की कीमत कम थी। रोहित बल और रितु कुमार की कृति पर बने कालीन की कीमत 35 हजार रुपये थी। जैसे जैसे जागरूकता बड़ी है अब लोग ऐसी कलाकृतियों में भी निवेश करने लगे है।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

चाहिए बालिका वधू सा लंहगा और दादीसा का झूला भी


आपने कोई पुरानी एलबम देखते हुए एक बात गौर की है? उस वक्त की फिल्मों में मौजूद हेयर स्टाइल हो या फिर पहनावा दर्शकों के बीच यह सब हीरो-हीरोइन के नाम से हिट होता था। साधना कट बाल और राजेश खन्ना का स्टाइल पापुलर था। आज टीवी का प्रभाव फिल्मों के मुकाबले ज्यादा है। फैशन ही नहीं कई सारे प्रोडक्ट का विज्ञापन भी सीरियल की कथावस्तु में जोड़ा जा रहा है। फिर चाहे वह मोटरसायकिल का विज्ञापन हो या इंश्योरेंस का या फिर ज्वैलरी की कोई ब्रांड हो। सीरियल ब्रांड को भी प्रमोट कर रहे हैं।
कहने सुनने में यह बात अजीब सी लगती है कि सीरियल दर्शक की जीवनशैली को भी प्रभावित कर रहे हैं इनको देखने की वजह सीरियल की कहानी, अभिनय के अलावा भी बहुत कुछ है। सीरियल के जरिए वह अलग अलग संस्कृतियों से भी रुबरू हो रहे हैं। इस तरह आजकल के सीरियल ट्रेंड सेटर्स के रुप में भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। इनको देखकर लोग पहनने ओडऩे का सलीका ही नहीं सीख रहे हैं बल्कि वह अपने घर को भी उसी तरह से सजा संवार रहे हैं। सीरियल देखकर सबसे ज्यादा घर में रहने वाली महिलाएं प्रभावित हो रही हैं। अभी हाल ही में मुझको विवाह प्रदर्शनी में जाने का मौका मिला मैंने देखा वहां राजस्थानी झूले की मांग बहुत ज्यादा थी। इसकी वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि बालिका वधू के सेट में ड्राइंगरूम में लगा झूला सबको बहुत पसंद आया था। और लोग इसे अपने ड्राइंगरुम में लगाना चाहते हैं। इसी तरह क्योंकि सास भी कभी बहू थी सीरियल से राट आयरन का फर्नीचर सबकी निगाह में बस गया था। इस तरह टीवी सीरियल्स, रियलिटी शो आदि के जरिए दिखाए जाने वाले फैशन ट्रेंड्स सीधे दर्शकों के ड्राइंग रूम में अपनी पैठ बना रहे हैं। बाजार में परिधान को बेचने के लिए भी सीरियल का सहारा लिया जाता है। धारावाहिकों के चर्चित पात्रों के नाम की साड़ी, ज्वैलरी और बिंदियां बाजार में हैं। कमोलिका का ब्लाउज हो या मंदिरा की बिंदी, आनंदी का लहंगा हो अथवा साधना की चूडिय़ां या फिर रागिनी और ज्योति की साड़ी। बाजार जाकर बस एक बार इनका नाम लेना है और लीजिए आपकी फेवरेट एक्ट्रेस का फैशन चंद मिनटों में आपके सामने हाजिर है।
वागीशा कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी, नोएडा, उत्तरप्रदेश।

Special Post

मिथक यथार्थ और फेंटेसी का दस्तावेज-डॉ. अनुजा भट्ट

  (अब पहले की तरह किस्से कहानियों की कल्पनाएं हमें किसी रहस्यमय संसार में नहीं ले जाती क्योंकि हमारी दुनिया में ज्ञान, विज्ञान और समाज विज्...