आखिर क्यों हर बच्चे के भीतर एक क्रांतिकारी है
डा. अनुजा भट्ट
हर बच्चा जब घर की देहरी पारकर खेल के मैदान में कदम रखता है उसके अंदर क्रांतिकारी भाव खुद ब खुद पैदा हो जाते हैं। परिवार द्रारा सिखाए गए संस्कार जैसे न्याय के साथ रहना,अन्याय न सहना, झूठ बोलना पाप है, दयालु बनो, मददगार बनो जैसी कई सारी बातें मैदान में जाते ही उसे विरोधाभासी लगने लगती हैं। क्योंकि बाहर की दुनिया में अधिसंख्यक लोग आचार- व्यवहार,नीति- अनीति, न्याय- अन्याय, झूठ-सच इन बातों को लेकर संवेदनहीन हो गए हैं। परिणाम स्वरूप उसके भीतर विद्रोह का भाव पैदा होता है और वह परिवार से सीखे गए संस्कार से प्रभावित होकर अपने हक और अधिकार के प्रति संवेदनशील हो उठता है। संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के बीच धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है। उसके भीतर तब कई बार महात्मा गांधी तो कभी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महापुरूष आकार लेने लगते हैं। वह उनकी तरह बनना चाहता है। वह अन्याय के खिलाफ होता है फिर चाहे अन्याय करने वाले उसके परिवार के ही सगे संबंधी क्यों न हो। फिल्म में जब हीरो विलेन को मारता है तो वह ताली बजाता है। वह सच बोलता है, बोलना चाहता है पर उसे नासमझ कहकर घर के अंदर कर दिया जाता है। कभी उसके पिता यह कहकर लोगों को शांत करते हैं कि गर्म खून है समय के साथ तालमेल बिठाना सीख जाएगा। यह सब देखते हुए धीरे-धीरे वह जान जाता है कि पढ़ी गई और सीखी गई बातों को प्रयोग में लाना आसान नहीं है। वह देखता है कि मंच पर जो नेता बड़ी बड़ी बातें करते हैं वह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। करोड़ों का भ्रष्टाचार करते हैं। इसीलिए नेताओं की बातें सुनने वह जाता है पर बातें सुनने के बाद उसका असर उसके भीतर नहीं होता। वहां जाना उसके लिए मात्र मौजमस्ती करना है। पर अभी भी ऐसे नेता है जिनका लोग सम्मान करते हैं जिनके दिखाए रास्ते पर उनको उम्मीद की रोशनी जलती नजर आती है।
मजबूत इरादे वाले बच्चे सीखी गई बातों को यथार्थ में भी अपनाते हैं। वह अपने प्रेरणा स्रोत पर विश्वास रखते हैं। परिवार का सहयोग उनको मिलता है। आगे चलकर ऐसे बच्चे समाज का सही दिशा में नेतृत्व करते हैं। उनकी अपनी एक विचारधारा होती है और वह अपनी उसी विचारधारा का लगातार पोषण करते रहते है। यह विचारधारा धर्म को लेकर भी हो सकती है, राजनीति को लेकर भी हो सकती है, दर्शन को लेकर भी हो सकती है, जाति को लेकर भी हो सकती है, समाज को लेकर भी हो सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि हर बच्चे के भीतर सीखे गए संस्कार के बाद कुछ न कुछ परिवर्तन होता है। कुछ उस परिवर्तन को महसूस करते हैं और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यह परिवर्तन सकारात्मक और नकारात्मक दोनो तरह से होता है। मान लीजिए अगर कोई बच्चा किसी दूसरे बच्चे के पैसेे चोरी कर ले और न दे तो वह इसके लिए विरोध करेगा। विरोध करने पर वह बच्चा उसे मारे-पीटे । वह घर में जाकर कहे कि उसने मेरा पैसा चुरा लिया। मैंने उससे कहा तो उसने मुझे मारा। पास में खड़े किसी भी व्यक्ति ने उसे ऐसा करने से रोका नहीं। मां कहती है, कल से पैसे लेकर मत जाना। यह अनुभव बच्चे के लिए आश्चर्यजनक था। वह बच्चा उसी दिन से अपने हक की बात करना भूल गया बल्कि वह खुद भी चोरी करने लगा क्योंकि उसने देखा कि चोरी करने पर दंड नहीं मिलता। परिवार में सिखाई गई बात चोरी करने पर दंड मिलता है, गलत साबित हुई।
दूसरे उदाहरण में चोरी करने वाले बच्चे को सभी ने पकड़ा और उस दिन उसे सजा के तौर पर पार्क की सफाई करने के लिए कहा गया। फिर तो यह परंपरा ही शुरू हो गई कि जो भी गलत काम करेगा उसको दंड मिलेगा। ऐसे बच्चों ने आगे चलकर अपने- अपने समूह का नेतृत्व किया।
सवाल यह है कि जो जीवनमूल्य हम बच्चों को सिखाते हैं क्या उन संस्कारों का पालन उसे सिखानेवाले स्वयं करते हैं? क्या हम संघर्ष से बचकर सरल और सपाट रास्ते की तलाश में नहीं रहते। जिन परिवारों में माता-पिता, अभिभावक, शिक्षक जिस शिक्षा या सिद्धांत पर चलने की सलाह बच्चों को देते हैं,खुद भी उन नियमों का पालन करते हैं वहां बच्चे का विकास सही तरह से होता है। भ्रष्ट लोगों के बच्चे कभी ईमानदार नहीं हो सकते। बात- बात पर झूठ बोलने वाले माता-पिता अपने बच्चे से कैसे उम्मीद रख सकते हैं कि उनका बच्चा उनसे सच बोलेगा। जो माता-पिता अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते, उनके दु:ख दर्द को नहीं समझते आगे चलकर जब वह अपने बच्चों से श्रवणकुमार बनने की उम्मीद करें तो यह झूठा दिलासा है। यह अलग बात है कि बच्चा खुद समझदार हो, उसकी तार्किक क्षमता मजबूत हो ,वह लकीर का फकीर न बने और कहे कि मैं गलत नहीं हूं और न गलत व्यवहार करुंगा। मेरी करनी मेरे साथ जाएगी। क्या ऐसी समझदारी सामान्य बच्चों के लिए संभव है? जिनका दायरा बेहद संकुचित है? यह समझदारी ऐसे बच्चों में ही दिखाई देती है जो सही- गलत का फैसला कर सकते हैं। जो बाहर की दुनिया से सरोकार रखते हैं जो पढ़ते-लिखते हैं। जो ऐसे लोगों के संपर्क में आते हैं जिनसे समाज प्रभावित होता है। वह धर्मगुरू भी हो सकते हैं जिनकी वजह से उसकी विचारधारा प्रभावित हुई। वह सेवाभावी और उदार बना, उसने रिश्तों को संजोकर रखने का महत्व जाना, परिवार का महत्व जाना। बाहरी परिवेश का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। सही और गलत के बारे में उसकी अपनी स्पष्ट राय बनी।
संक्षेप में कहें तो माता-पिता, अभिभावक और शिक्षक चाहें तो तो इस क्रांति की लांै को जलने दे सकते हैं। अगर वह खुद से सवाल करें कि आखिर बच्चों के विकास के लिए उनका माडल क्या है। वह देश को कैसा नागरिक दे रहे हैं। क्या वह खुद अनुशासित हंै? जो नियम बच्चों के लिए हैं क्या वह उनका पालन करते हैं? क्या वह बच्चों के सवाल का सही जवाब देते हैं। क्या वह खुद अपनी गलती स्वीकार करते हैं? क्या वह इस मुहावरे का अर्थ जानते हैं जैसा बोओगे, वैसा काटोगे? अगर समाज का हर प्रतिनिधि खुद इन सवालों का जवाब जानकर आचरण करें तो हर बच्चा क्रांति कर सकता है। यह क्रांति हर क्षेत्र में संभव है।
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