मनीषा नई- नई शादी करके आई ही थी कि सास ने किचन की कमान उसके हाथों सौंप दी,लेकिन उनका रोक-टोक करना कभी बंद नहीं हुआ।शनिवार के दिन मनीषा दोपहर में खाना बना रही थी ,तभी भिक्षुक की आवाज आई -रोटी दे दो माई।मनीषा ने आवाज सुनते ही 2 गर्म रोटी ली और भिक्षुक को देने के लिए जैसे ही दरवाजा खोला तो सास ने तेज स्वर में कहा -'अरे इनको ये गर्म रोटी हजम नहीं होती, वो रात की बासी रोटी पडी है ना ,वो दे दो ' मनीषा तेज आवाज में ऐसी बात सुनकर स्तब्ध रह गयी और उसे रात की पड़ी सूखी रोटी दे दी।मनीषा पढी -लिखी व समझदार थी उसके मन में कई तरह के विचार उमड़ने लगे।
इंसान की जैसे- जैसे उम्र बढ़ती है वैसे- वैसे ही वो हठी प्रकृति का होने लगता है।रविवार के दिन मनीषाा सुबह से ही किचन के कामों में व्यस्त थी,कारण कि आज मनोज(पति) की ऑफिस की छुट्टी है और उनकी पंसद के भोजन की तैयारी करनी थी। खीर,पूरी, सब्जी, कचौरी और मेवे का हल्वा।वो मन ही मन अपनी माँ की बात को याद कर रही थी कि कैसे उसकी माँ हमेंशा कहा करती थी कि "पति के दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है,इसलिए तू भी अच्छा खाना बनाना सीख लें "मनीषा उनकी बात सुनकर हमेशा मुस्करा देती थी।मनीषा मेवे जरा देखकर डालना और पूरी तेल की ही अच्छी लगती है ,घी मत चढाना अपने सास की आवाज सुनकर मनीषा वर्तमान में लौट आई और कढाही में तेल डालने लगी। मनीषा को उनका रोक-टोक करना हमेशा खराब लगता था पर वो चुप रहती।मनोज किचन में आया और बोला आज बड़ी खुशबू आ रही क्या बनाया है? मनीषा कुछ बताती इतने में ही भिक्षुक की आवाज आई -रोटी दे दे माई। मनीषा ने देखा कि सास दिखाई नहीं दे रही तो उसने गर्म पूरी बनाई व खीर का प्याला भरा और जैसे ही देने लगी कि पीछे से सास ने हाथ पकड़कर कहा 'कल तो समझाया था कि इन लोगों को गर्म खाना पचता नहीं और वैसे भी रोज की आदत हो जाएगी इनकी मांगने की।एक काम कर कल की बची हुई सब्जी और नींबू का अचार दे दे।पर माँ जी वो सब्जी तो कल सुबह की है और अचार में तो फंगस आ चुकी है ,ऐसा देना सही नहीं है ।अरे इनको कुछ फर्क नहीं पड़ता,इनकी, तो आदत हो गई है ऐसा खाने की।मनीषा ऐसी बात सुनकर झल्ला उठी और बोली " क्यों मां जी इन के शरीर का पाचन तंत्र हमारे शरीर से अलग है क्या, जो इनको बासी व खराब खाना ही पचता है ,जो खाना हम नहीं खा सकते, हमारे लिए खराब है तो हम किसी और को क्यों दे?हम लोगों की 1-2 रोटी से ही इनका जीवन यापन चलता है" "माँ जी मनीषा की बातें सुनकर विस्मित हो गई ,पास में खड़ा मनोज भी बोल पड़ा- माँ ये सब क्या है?अगर हमारे पास पुण्याई से इतना है कि हम किसी को दो रोटी दे सकें तो आप क्यों मना कर रही है और जो चीज हमारे स्वयं के खाने योग्य नहीं है उसे दूसरे को नहीं देनी चाहिए।मां जी को आत्मग्लानि होने लगी। वास्तव में ऐसी नःस्थिती कई लोगों की होती है।
इंसान को समय के साथ अपनी प्रवृति बदलनी चाहिए।माना कि हम सम्पूर्ण विश्व को अपनी थाली से आहार नहीं दे सकते लेकिन प्यार व सम्मान तो सबको दे ही सकते है।
इंसान की जैसे- जैसे उम्र बढ़ती है वैसे- वैसे ही वो हठी प्रकृति का होने लगता है।रविवार के दिन मनीषाा सुबह से ही किचन के कामों में व्यस्त थी,कारण कि आज मनोज(पति) की ऑफिस की छुट्टी है और उनकी पंसद के भोजन की तैयारी करनी थी। खीर,पूरी, सब्जी, कचौरी और मेवे का हल्वा।वो मन ही मन अपनी माँ की बात को याद कर रही थी कि कैसे उसकी माँ हमेंशा कहा करती थी कि "पति के दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है,इसलिए तू भी अच्छा खाना बनाना सीख लें "मनीषा उनकी बात सुनकर हमेशा मुस्करा देती थी।मनीषा मेवे जरा देखकर डालना और पूरी तेल की ही अच्छी लगती है ,घी मत चढाना अपने सास की आवाज सुनकर मनीषा वर्तमान में लौट आई और कढाही में तेल डालने लगी। मनीषा को उनका रोक-टोक करना हमेशा खराब लगता था पर वो चुप रहती।मनोज किचन में आया और बोला आज बड़ी खुशबू आ रही क्या बनाया है? मनीषा कुछ बताती इतने में ही भिक्षुक की आवाज आई -रोटी दे दे माई। मनीषा ने देखा कि सास दिखाई नहीं दे रही तो उसने गर्म पूरी बनाई व खीर का प्याला भरा और जैसे ही देने लगी कि पीछे से सास ने हाथ पकड़कर कहा 'कल तो समझाया था कि इन लोगों को गर्म खाना पचता नहीं और वैसे भी रोज की आदत हो जाएगी इनकी मांगने की।एक काम कर कल की बची हुई सब्जी और नींबू का अचार दे दे।पर माँ जी वो सब्जी तो कल सुबह की है और अचार में तो फंगस आ चुकी है ,ऐसा देना सही नहीं है ।अरे इनको कुछ फर्क नहीं पड़ता,इनकी, तो आदत हो गई है ऐसा खाने की।मनीषा ऐसी बात सुनकर झल्ला उठी और बोली " क्यों मां जी इन के शरीर का पाचन तंत्र हमारे शरीर से अलग है क्या, जो इनको बासी व खराब खाना ही पचता है ,जो खाना हम नहीं खा सकते, हमारे लिए खराब है तो हम किसी और को क्यों दे?हम लोगों की 1-2 रोटी से ही इनका जीवन यापन चलता है" "माँ जी मनीषा की बातें सुनकर विस्मित हो गई ,पास में खड़ा मनोज भी बोल पड़ा- माँ ये सब क्या है?अगर हमारे पास पुण्याई से इतना है कि हम किसी को दो रोटी दे सकें तो आप क्यों मना कर रही है और जो चीज हमारे स्वयं के खाने योग्य नहीं है उसे दूसरे को नहीं देनी चाहिए।मां जी को आत्मग्लानि होने लगी। वास्तव में ऐसी नःस्थिती कई लोगों की होती है।
इंसान को समय के साथ अपनी प्रवृति बदलनी चाहिए।माना कि हम सम्पूर्ण विश्व को अपनी थाली से आहार नहीं दे सकते लेकिन प्यार व सम्मान तो सबको दे ही सकते है।
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