बुधवार, 18 अप्रैल 2018

#अपराजिताकहानीप्रतियाेगिता- निधि घर्ती भंडारी

रात भर आंखों में मानो जैसे नींद का नामोनिशान ही ना था | जुगनुओं को देखते देखते सारी रात कैसे कट गई पता ही ना चला सुबह उठकर मेरे मन में सिर्फ यही ख्याल आया कि जुगनू भले ही चांद की चांदनी का सामना ना कर सके लेकिन रात में चमकते हुए एक भटके हुए मुसाफिर को उसकी राह दिखाने का एक प्रयास तो करते ही हैं तो फिर मैं क्यों नहीं | सुबह उठते ही फोन में से मीना का नंबर ढूंढ कर कॉल किया और ई-मेल आई.डी. ली| लिखते-लिखते शाम हो गयी...जैसे तैसे कुछ शब्द लिख पाई....पढ़कर देखा तो वाह ये तो एक सुंदर सी कविता बन चुकी थी| कई-कई बार मैने वो कविता पढ़ी और खुली आंखो से जैसे सपने देखने लगी थी | अपनी कविता मै मीना को मेल कर चुकी थी, अब तो बस उसकी कॉल का इंतज़ार था जो मेरी जिंदगी बदलने वाला था....मै अपनी कविता को अब भी निहार रही थी, जैसे जन्म देने के बाद मां अपने बच्चे को निहारती है| 
मेरे अंतर्मन के अधूरे स्वप्न हे मेरे अंतर्मन के अधूरे स्वपन!
 तुम क्यूं हो इतने निर्दयी-निष्ठुर?? 
अंखियों में क्या इस तरह बसे हो, या फिर इस अंतर्मन में?
 कि तुम्हें पूर्ण करने की इच्छा कहूं या पिपासा, दिन रात तुम्हें स्मरण करूं| 
झुंझलाऊं- छठपटाऊं मैं कि किस तरह तुम्हें पूर्ण करूं|
 तुम दिवास्वप्न बनकर क्यूं दिनभर मुझे सताते हो?

 रातों को अखियां बंद करूं, तो सामने तुम आ जाते हो 
जब रहना तुम्हें अधूरा ही क्यूं पल-पल आस बंधाते हो?
 तुम क्यों मुझको तड़पाते हो? मुझे सारी रैन जगाते हो| 
 अपनी कविता में मैं बस खोई हुई थी और अपने भविष्य से जुड़े अनगिनत सपने बुन ही रही थी कि अचानक मीना का कॉल आ गया और उसने जो मुझसे कहा वह मेरे मुंह पर एक खामोश तमाचे सा लगा | मेरी कविता उसे बहुत निम्न स्तरीय लगी इसलिये उसने इसे रिजैक्ट कर दिया| अपने ख्वाबों को यूं बिखरते हुए देखना बहुत दुखद था मेरे लिए, पर मुझे एक उम्मीद की किरण दिखाई दी संज्ञान के रूप में| मैंने उसे भी अपनी कविता की एक कॉपी मेल कर दी परंतु वह तो इतना बिजी था कि कभी उस मेल को पढ़ ही ना पाया| 
 उस रात भी मै टिमटिमाते हुये जुगनुओं को ही निहारती रही आखिर वही तो थे जो अभी भी मेरा हौसला बढ़ा रहे थे| अगली सुबह सारा काम निपटाकर जब मैं अपनी खिड़की के सामने बैठी तो सामने की बस्ती में रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे बीच सड़क पर क्रिकेट खेलते हुए नजर आए | मन में एक सवाल कौंधा कि दिनभर खेलते रहते हैं तो क्या स्कूल नहीं जाते? तभी खिड़की का शीशा तोड़कर उनकी बॉल अंदर आ गई| पूरी टोली मेरे घर ही पहूंच गई बॉल वापस मांगने| दिखने में थोड़े गंदे जरुर थे पर थे बड़े प्यारे| अब क्या मैने उनकी बॉल के साथ-साथ उन सबको खाने को चॉकलेट भी दी और वो सब मेरे दोस्त बन गये| उनसे बातों के दौरान मुझे पता चला वे लोग स्कूल नही जाते | पास में कोई प्राथमिक विद्यालय नही है और जो प्रतिष्ठित विद्यालय है भी, सोसायिटी के लोग चाहते नही के ये बच्चे वहां पढ़े| समस्या तो वाकई में काफी गंभीर थी| मन में आया दिन भर खाली ही तो रहती हूं क्यूं ना मै ही इन्हें पढ़ा दूं? अपने नन्हें दोस्तों से पूछा तो उन सबने भी हामी भर दी| बस फिर क्या था अगले ही दिन से चल पड़ी अपनी क्लास| धीरे-धीरे मेरी ये नन्ही सी कक्षा छोटी पड़ने लगी, विद्यार्थी अब बढ़ने लगे थे| हां थोड़ा समय जरूर लगा लेकिन मेरी मेहनत अब रंग ला रही थी| मैने प्रतीक से बात की तो वो भी इन बच्चों को निशुल्क वेस्ट मैटिरियल क्राफ्ट ट्रेनिंग देने लगा| 
अब हमारे सामने एक उप्युक्त जगह की समस्या खड़ी थी, जिसके निवारण के लिये हमने अपनी मित्र क्षेत्रीय विधायक रिया से बात की| उन्होने हमें जगह मुहैय्या करवाई और उनकी तरफ से हर प्रकार की मदद का आश्वासन दिया| जिसके लिये मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी| धीरे-धीरे अन्य शिक्षित लोग भी हमारे इस मिशन में सहयोग हेतु आगे आने लगे| अब मेरा यह छोटा सा प्रयास एक बहुत बडे़ स्तर पर आर्थिक रूप से अशक्त परिवारों के बच्चों को उनके शिक्षा के अधिकार दिलवाने में तब्दील हो चुका था| हम उन्हें बेसिक नॉलेज(इंग्लिश टॉकिंग, बॉडी हाईजीन, पर्सनैलिटी डेवलेपमेंट) देते थे जिसके बाद वो बच्चे प्रतिष्ठित स्कूलों में आराम से एडमिशन ले पाते थे, इसके बाद उनकी पढ़ाई ट्यूशन आदि निशुल्क उपलब्ध करवाई जाती थी|
 सच कहूं तो मैने समय काटने के लिये ये छोटी सी शुरूआत की थी मगर आज यही मेरा जुनून बन चुका था| अब पूरे शहर भर में हमारे तेरह सेंटर खुल चुके हैं और मेरा सपना उस दिन पूरा होगा जब पूरे देशभर में एेसे सेंटर खुल जाएं| कल मीना और संज्ञान मेरे घर पर मेरे प्रयास के लिये मुझे बधाई देने आये थे, हालांकि मैने कुछ कहा तो नही लेकिन मै समझ चुकी थी कि उगते हुये सूरज को हर कोई सलाम करता है| लगे हाथ मीना ने मुझपर कहानी लिखने की अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी परंतु मैने भी व्यस्तता का हवाला देते हुये असहमति प्रकट कर दी| जुगनुओं को रातभर निहारने का समय तो अब नहीं मिलता मगर रोज़ रात को कुछ देर खिड़की पर खड़ी होकर मै उनका धन्यवाद करना नहीं भूलती| आखिरकार मुझ भूली-भटकी को रास्ता तो उन्होंने ही दिखाया है| 

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