सावित्रीबाई फूले का नाम समाज में लड़कियों को शिक्षा का अधिकार दिलाने, बहिष्कृत और निराश्रित महिलाओं को समानाधिकार दिलाने के लिए लिया जाता है। भारतीय समाज में उनकी जिंदगी और उनका काम सामाजिक कल्याण और महिला सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वह देश की पहली महिला शिक्षिका बनीं।
सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र राज्य के एक छोटे से गांव नईगांव में हुआ। बचपन से ही वह महत्वाकांक्षी और जिज्ञासु प्रवृति की थी। सावित्रीबाई का विवाह सन् 1840 में 9 वर्ष की आयु में श्री ज्योतीराव फुले से हो गया और वह उनके साथ पुणे आ गईं।
जब ज्योतिराव ने देखा कि सावित्रीबाई ने अपने पास एक किताब जो उन्हें क्रिशचन मिशिनरी ने दी थी वह बहुत संभालकर रखी हुई थी। यह सब देखकर ज्योतिराव को अहसास हुआ कि उनकी पत्नी को शिक्षा के प्रति असीम लगाव है। वह उनके सीखने की प्रबल इच्छा को देखकर बहुत खुश हुए और उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाना शुरू किया। सावित्रीबाई ने अपनी टीचर ट्रेनिंग अहमदनगर और पुणे में की। सन् 1847 में वह परीक्षा पास करके पूर्णतः शिक्षित शिक्षिका बन गई।
समाज में महिलाओं की दशा सुधारने को प्रतिबद्ध श्री ज्योतिराव फूले के साथ मिलकर सन् 1848 में लड़कियांे के लिए स्कूल खोला। उनकी यह यात्रा आसान नहीं थी। इस वजह से उन्हें सोसाईटी में रोष और गालियांे का शिकार भी बनना पड़ा। इतना ही नहीं उन पर रास्ते में गोबर भी फेंका जाता। सावित्रीबाई बिना कुछ कहे अपने साथ रास्ते में एक साड़ी साथ रखती जिससे कि वह स्कूल जाकर अपने कपड़़े बदल सकें। पर उन्होंने अपनी राह नहीं छोड़ी। सन् 1853 में सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने आसपास के गावों में और स्कूल खोले।
देश में विधवा एंव निराश्रित महिलाओं की दुर्दशा देखकर उन्होंने सन् 1854 में उनके लिए एक शेल्टर होम खोला। दस वर्ष तक लगातार संघर्ष करने के बाद उन्हांेने सन् 1864 में एक बड़ा शेल्टर होम खोला। विधवा स्त्रियांे और बालिका वधुओं को उन्होंने अपने शेल्टर में आसरा दिया और साथ में उन्हें पढ़ाया। उन्होंने एक विधवा स्त्री के पुत्र यशवंतराव को गोद भी लिया।
निचली जाति के लोगों को ऊंची जाति के लोग गांव के कॉमन कुंए से पानी नहीं पीने देते थे। इसके लिए ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने अपने घर के पीछे उनके लिए कुंआ बनवाया जहां से वह लोग पानी ले सकते थे। उनके इस कदम ने भी ऊंची जाति के समाज में बहुत रोष उत्पन्न हो गया। सत्यशोधक समाज नाम से श्री ज्योतिराव ने एक संस्था का निर्माण किया इसका मुख्य उद्देश्य समाज से भेदभाव को समाप्त करना था और सबके लिए समानाधिकार वाले समाज की स्थापना करना था। इस समानाधिकार की लड़ाई में सावित्रीबाई ने अपने पति का भरपूर सहयोग किया।
सन् 1873 में सावित्रीबाई ने सत्यशोधक विवाह की शुरूआत की जिसके तहत दंपत्ति समान अधिकार और समान शिक्षा की शपथ लेते थे।
उनके यह सभी प्रयास अनदेखे नहीं रहे। सन् 1852 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बेस्ट टीचर की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1853 में शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके प्रयासों के लिए उन्हें सम्मानित किया गया।
सन् 1890 में ज्योतिराव के निधन के बाद उन्हांेने सभी मान्यताओं को दरकिनार करते हुए उन्हें मुखग्नि थी। उन्होंने उनकी विरासत को आगे बढ़ाते हुए सत्यशोधक समाज की बागडोर संभाली।
सन् 1897 में महाराष्ट्र में एक बार बहुत भयानक प्लेग बीमारी फैली। वह सिर्फ मूकदर्शक नहीं बनी बल्कि वह प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने के लिए चली गईं। उन्होंने हदाप्सर, पुणे में एक क्लिनिक खोला। जब वह एक 10 वर्षीय प्लेग से पीड़ित बच्चे को क्लीनिक ला रहीं थी तब वह भी इस बीमारी के किटाणु से संक्रमित हो गईं और 10 मार्च 1897 को उनका देहांत हो गया। उनकी पूरी जिंदगी महिलाओं के लिए प्रकाश का óोत थी। उनका जीवन हमेशा उन महिलाओं को प्रेरणा देता रहेगा जोकि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती हैं।