कविता-दहलीज पर कदमों का क्रास-डॉ अनुजा भट्ट



दहलीज पर कदमाें का क्रास
एक पांव दहलीज के बाहर जा रहा है
सपनाें की उड़ान और कशमकश के बीच
आसमान में उड़ती पतंग काे देख रही 
हाथ में डोर लिए एक।
 युवा और किशाेराें के बीच स्वतंत्रता दिवस की परेड
खुद काे रील बनते देख बेबस है
उधर माझा और पतंग
चीन और भारत
उम्मीद और हादसा में बदल रहा है। 
 इस बीच यह कविता लिखी जा रही है।
 दूसरा  पांव दहलीज के भीतर आ रहा है
अपने भीतक दर्द और बेबसी के छींटे लिए 
 अपनी जिद और शर्ताें के बीच
समन्वयविहीन रिक्त स्थान की तलाश में
 वक्त कहता है 
 अब इस रिक्तता काे
 मन के कोने में
 मंदिर के दिये में
 ईश्वर को अर्पित पुष्प में
गरीब की झोली में
 आंखों में काजल की जगह बसा लाे।
दाेनाे पांव आपस में टकरा रहे हैं
दाेनाे पांव अपनी यात्रा में डगमग हैं
दाेनाें की साेच में जमीन आसमान का अंतर है
एक के लिए मुखर हाेना
 असंसदीय और अमानवीय भाषा है
दूसरे के लिए विश्वधरती पर सृजित 
एक नई स्त्री का आगमन है।
एक कदम और दूसरा कदम
कदमताल मिलाती पंद्रह अगस्त की उस झांकी से
 जा मिला है जहां यह दाेनाें की  निर्थक हैं।
रील में तो हैं रियल में नहीं।


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