मेरी यादें- हरकाली देवी हरेला सावन और शिव परिवार- डा. अनुजा भट्ट

 

 जैसा की मैं हमेशा कहती हूं अच्छी यादों को संभालकर रखिए। वह आपको उर्जा देती हैं। परिवार समाज और देश से जोड़े रखती हैं। हम सभी के पास यादों का पिटारा होता है जो कभी हमें हमारे बचपन में ले जाता है कभी युवावस्था की याद दिलाता है। हर उम्र की अपनी एक याद होती है। हमारी तरह बुजुर्गों के पास भी उनकी यादों का पिटारा है जिसमें कई रोचक कहानियां और संस्मरण दर्ज हैं। सुनिए कभी...

मैं तो अपनी यादों में बार बार गोते लगाती हूं और मुझे आनंद आता है। इस बार बचपन की उन यादों में पापा और मैं बैठे हैं। अपने बगीचे से मिट्टी ले आए हैं और अब उस मिट्टी को पापा साफ कर रहे हैं। उसे चिकना कर रहे हैं। पास में लकड़ी की टहनियां हैं जिनको भी साफ कर एकसार कर लिया गया है। रूई भी रखी गई है। डिकारे बनने वाले हैं। जिसमें शिव परिवार बनेगा। 

कुमाऊँनी जीवन में भित्तिचित्रों के अतिरिक्त भी अपनी धार्मिक आस्था के आयामों को मिट्टी और रूई के सहारे कलात्मक रुप से निखारा जाता हैं। जिसके लिए अलग अलग नाम है। डिकारे भी ऐसा ही है। क्या है डिकारे... डिकारे शब्द का शाब्दिक अर्थ है - प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग कर प्रतिमा गढ़ना। स्थानीय भाषा में अव्यवसायिक लोगों द्वारा बनायी गयी विभिन्न देवताओं की अनगढ़ परन्तु संतुलित एवं चारु प्रतिमाओं को डिकारे कहा जाता हैं। डिकारों को मिट्टी से जब बनाया जाता है तो इन्हें आग में पकाया नहीं जाता न ही सांचों का प्रयोग किया जाता है। मिट्टी के अतिरिक्त भी प्राकृतिक वस्तुओं जैसे केले के तने, भृंगराज आदि से जो भी आकृतियाँ बनाई जाती हैं, उन्हें भी डिकारे संबोधन ही दिया जाता है।

 पापा डिकारे बनाने में तल्लीन हैं। मिट्टी में रूई को भी मिलाया गया है।  सबसे पहले लकड़ी का एक तख्ता सा है जिसपर यह बनाए जाएंगे। पापा ने तीन हिस्सों में मिट्टी के गोले बना लिए हैं और अब आकृति बननी हैं। सभी भगवान बैठे हुए ही बनाए जाएंगें इसलिए ढांचा एक सा ही है। शिव की जटा और गणेश की सूंड बनाने में पापा को कमाल हासिल हैं। थोड़ी देर पहले जो मिट्टी थी वह अब ईश्वर का आकार ले चुकी है और अप उसमें रंग भरने की बारी है। मेरा कौतूहल मुझे छेड़छाड़ करने से रोक नहीं रहा है। पापा ने मुझे भी मिट्टी दे दी है। कोमल हाथ मिट्टी से खेल रहे हैं । सूखने  के लिए पापा ने अब उनको हल्की धूप में रख दिया है। अब  सूखने के बाद उस पर चावल का घोल डाला जाएगा। घोल मां मे तैयार कर दिया है। सूखने के बाद  यह हलके पीले रंग के हो गए हैं। डिकारे में शिव को नीलवर्ण और पार्वती को श्वेतवर्ण से रंगा गया है। रंग भरने में दीदी भी पापा की मदद कर रही है। देखते ही देखते शिव परिवार सजधज कर खड़ा हो गया है। पापा ने डिकारों में  जिस शिव परिवार को बनाया है  उसमें चन्द्रमा से शोभित जटाजूटधारी शिव, त्रिशूल एवं नागधारण किये अपनी अद्धार्ंगिनी गौरी के साथ हैं। गणेश भी हैं। चूहा मैंने बना ही लिया। पापा ने बताया पहले ये रंग किलमोड़े के फूल, अखरोट व पांगर के छिलकों से तथा विभिन्न वनस्पतियों के रस के सम्मिश्रण से तैयार किया जाता है।

 कला के प्रति मेरे पापा का भी रूझान रहा पर वह इसे प्रकट नहीं करते है। मां हो या मौसी दोनों के एपण पर ध्यान देते। जब वह पढ़ाई के लिए नैनीताल अपने भाई (बुआ के बेटे के यहां रहे) के यहां रहे तो डिगारे वही बनाते थे। ऐसा ताई जी ने मुझे बताया।

आज सरस्वती पूजा के लिए जब मूर्ति बनने के लिए देती हूं और उस पूरी प्रक्रिया को देखती हूं , अनायास पापा और मैं मिट्टी के साथ यादों के उसी फ्रेंम में दिखने लगते हैं।

कुमाऊं में हरेला से ही श्रावण या सावन माह तथा वर्षा ऋतु का आरंभ माना जाता है। इस दिन प्रकृति पूजन का विधान है। हरेला का अर्थ है "हरित दिवस", और इस क्षेत्र में कृषि -आधारित समुदाय इसे अत्यधिक शुभ मानते हैं, क्योंकि यह उनके खेतों में बुवाई चक्र की शुरुआत का प्रतीक है। हरेला पर्व से नौ दिन पहले ही घर में मिट्टी या फिर बांस की टोकरी में हरेला बोया जाता है। जिसे रिंगाल कहते हैं।

क्या होता है रिंगाल? ( रिंगाल बांस की प्रजाति का एक पौधा होता है, जिसे बौना बांस भी कहते हैं. यह बहुत बारीक होता है और इससे काम करना बहुत मुश्किल होता है. आजकल इससे बहुत सुंदर क्राफ्ट का सामान  बनाया जा रहा है।) फिर नौ दिनों तक इस पात्र को सींचा जाता है। दसवें दिन इस पात्रा में उगे पौधों को काट दिया जाता है।

पुराणों में कथा है कि शिव की अर्धांगिनी सती ने अपने आप से खिन्न होकर हरे अनाज वाले पौधों को अपना रुप देकर पुनः गौरा रुप में जन्म लिया। इस कारण ही सम्भवतः शिव विवाह के इस अवसर पर अन्न के हरे पौधों से शिव पार्वती का पूजन सम्पन्न किया जाता है।

हरेला की परम्परा के अनुसार अनाज ११ दिन पूर्व एपण से लिखी किंरगाल की टोकरी में बोया जाता है। हरेला बोने के लिए पाँच या सात प्रकार के बीज जिनमें कोहूँ, जौ, सरसों, मक्का, गहत, भट्ट तथा उड़द की दाल कौड़ी, झूमरा, धान,  मास आदि मोटा अनाज सम्मिलित हैं, लिये जाते हैं। यह अनाज पाँच या सात की विषम संख्या में ही प्रायः बोये जाते हैं। बीजों को बोने के लिए मंत्रोंच्चार के बीच शंखध्वनि की जाती है। इस अवसर पर हरकाली देवी की आराधना की जाती है।

संक्रान्ति के अवसर पर इन अन्न के पौधों को काटकर देवताओं के चरणों में अर्पित किया जाता है। हरेला पुरुष अपनी टोपियों में, कान में तथा महिलाएँ बालों में लगाती हैं। घर के प्रवेश द्वार में इन अन्न के पौधों को गोबर की सहायता से चिपका दिया जाता है।

  मान्यता है ये रस्म निभाने से परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।  हरेला जितना बड़ा होगा,  किसान को उसकी फसल में उतना ही ज्यादा लाभ मिलेगा। 

 

जी रया ...

जागी रया ....

ये दिन ये बार भेटनै रया...

गंग कै बालू छन जाण क रया....

घ्वाड क सिंघउन जाण क रया....

दूब क जास झाड है जौ....

पाती जस फूल है जौ.....

हिमालय क ह्यूं छन जाण क रया ....

लाख दुति लाख हरेल है जन....

लाग हरयाव...लाग बग्वाव...

जी रे...जाग रे... बच रे..

दूब जौ पली जे..... फूल जौ खिल जे..

स्याव जस बुध्दि.....शेर जस तरान ह जौ..

सब बच रया......खुश रया...!

यै दिन यै मास भेंटन रैया....!

उत्तराखंडी लोक पर्व हरेला की आपको सपरिवार बधाई व शुभकामनाएं!

*शुभ हरेला*

      


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