शनिवार, 18 अगस्त 2018

कहां हाे उर्मिला- प्रीति मिश्रा

स्वाति गुप्ता की पेंटिंग.
 प्रकृति और स्त्री दाेनाें ही सुंदर हैं पर समाज इनकी कद्र नहीं करता.

छोटे से कद की, उम्र यही कोई पचास से पचपन साल, चेहरे पर झुर्रियां प्रौढ़ावस्था की कहानी कह रही थीं, बालों पर सफेदी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी। पर सक्रिय इतनी कि किशोरवय भी शर्मा जाएं, कभी-कभी हम सबको ये लगता था कि क्या ये कभी थकती नहीं है, बहू के साथ घरेलू कामों में कदम से कदम मिला कर चलती थीं ।

हमने सुना था कि 7 साल की उम्र में ही वह ससुराल आ गई थी, शायद 2-3 साल की थी तभी उनकी माँ का देहावसान हो गया था, पिता ने किसी तरह से उनके हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा कर वैराग्य का जीवन धारण कर लिए। मात्र 7 साल की उम्र से ही उनका वो जीवन शुरू हुआ जो इस समय में 25 साल में भी जल्दी लगता है। संयुक्त परिवार छः भाइयों की सबसे बड़ी भाभी थी तो जिम्मेदारियां भी बड़ी थी, सब कुछ सिर झुका कर मानना और चुप रहना उनका जीवन बन चुका था, बोलती भी किसके दम पर माँ ने तो मर कर साथ छोड़ा था, पर पिता ने अपनी जिम्मेदारियों से भागना उचित समझा बिना ये सोचे कि बिटिया पर क्या गुजरेगी। उनका मायका और उनकी ससुराल सब वही थी। स्वभाव से बहुत सरल, खाना ऐसा बनाना कि होटल का शेफ भी फेल हो जाए, पर पता नहीं क्यों ससुराल में लोग उनसे कभी खुश नहीं होते, हमेशा उनकी ही बुराई सबसे पसंदीदा विषय रहता था, देवरों की शादी होती गई, देवरनिया आती गई, और उन पर काम का बोझ बढ़ता गया, अब वो उस घर में बहू ना हो कर एक नौकरानी बन कर रह गयी।

कभी तो हमें लगता था कि ये कुछ बोलती क्यों नहीं। पर उनका चुप तो बस चुप । फेस्टिवल पर अक्सर हमने देखा था कि सबको खिला कर तृप्त करने वाली जब खुद खाने बैठती तो झगड़े शुरू कर दिए जाते और वो भूखे पेट ही सो जाती या फिर बहते हुए अश्रुधारा के साथ कौर को निगल लिया जाता था, पर फिर भी चुप और सास ऐसी कि इस बात को लेकर सुनाने से बाज ना आए कि छोटी बहुओं को समय पर नाश्ता खाना दिया कि नहीं । कभी देवर तो कभी पति द्वारा हाथ उठा दिए जाने पर भी वो हमेशा की तरह चुप और हद तो तब हो गई जब देवर द्वारा डण्डे के प्रहार से रक्तरंजित हुई वो अपने ही परिवार द्वारा दोषी ठहराई गई औऱ महीनों तक किसी भी सदस्य ने उनसे बात नहीं की, एक अंधेरी कोठरी में पड़ी उनका करुण क्रदन ऐसा लग रहा था जैसे वो बड़ी कातरता से अपनी माँ को पुकार रही हों पर फिर भी चुप |

पति भी ऐसा जो कभी बीवी की तरफदारी नहीं करता क्योंकि वह पत्नी का गुलाम नहीं बनना चाहता था । ऐसा लगता था कि जैसे वो बोलना भूल चुकी हैं । दुनिया उनकी तारीफ करता सम्मान देता पर अपने परिवार में ही उपेक्षित । शायद ही उन्हें कभी बाहर जाते हुए देखा हो, क्योंकि सास को पसंद नहीं था कभी चली भी जाती तो घर में बवंडर मच जाता । बस कभी-कभी मन्दिर के सामने उन्हें रोता हुआ पाया, हो सकता है ईश्वर से माँ ना होने का दुःख बयां करती रहीं होंगी अपने आँसुओ के द्वारा ।

उनका संघर्ष उनके अपनों से था, उनके पास वो कोई नहीं था जिससे वो शिकायत करती, जिससे जी भर कर अपना दुःख बयां करती, जी भर कर रोती, ऐसा कोई हाथ नहीं था जो उनके सिर पर फेरा जाता। शायद वो चुप ही रहती जिंदगी भर अगर उनकी बच्ची के साथ इतना बुरा ना हुआ होता, एक दुर्घटना ने उनकी बेटी के पति को उससे छीन लिया शादी के साल भर के अंदर ही बेटी का विधवा हो जाना बहुत बुरा था । 1 साल के अंदर पति की मृत्यु के लिए सब उनकी बेटी को ही जिम्मेदार मानने लगे और उसे अभागिनी, पति को खा गई शब्द बाणों से बेधने लगे, जब उन्होंने देखा कि बेटी भी चुपचाप सारी बातों को सुन लेती है तो उन्होंने सोच लिया कि अब उनकी चुप्पी तोड़ने का समय आ गया है । समाज के द्वारा मारे गए हर ताने का वो बहुत मजबूती से जवाब देती। एक दिन जब परिवार के लोगों ने ही बेटी पर उंगली उठाई तो उनके अंदर जमा हुआ बरसों का लावा निकल पड़ा उन्होंने अपनी बेटी से रोष भरे शब्दों में कहा- "मैं चुप इसलिए थी कि, मेरी माँ नहीं थी, तुम्हारे पास माँ है, मैंने इतना संघर्ष इसलिए किया ताकि तुम मजबूत हो, मैं डरती थी कि अगर मैं बोलूँगी तो कोई मजबूती से मेरे पीछे ना होगा, पर तेरे पीछे मैं हूँ। मैं रिश्तों के चक्रव्यूह में हमेशा अर्थहीन और महत्वहीन रही पर तू अर्थहीन नहीं रहेगी, मैं माँ ना होने के दर्द से सदैव जूझती रही हूँ पर तेरी माँ है तेरे साथ और तेरे संघर्ष में भी । बस - अब दूसरी उर्मिला नहीं, तू सबके सवालों का मुंहतोड़ जबाव दे वो मत कर जो मैंने किया, तभी मेरा संघर्ष पूर्ण होगा |

इसके बाद सबको उनके चुप रहने का आशय समझ में आया । उनका संघर्ष अपने में बेमिसाल था, और उसी में तप कर वो मजबूत हो गयी थी। अब वो बिल्कुल चुप नहीं थी क्योंकि अब उनका संघर्ष उनके लिए नहीं उनकी बेटी के लिए था ।

ऐसी ही है हमारी उर्मिला!!!










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