हमारे लोकतंत्र पर चारों तरफ से हमले
हो रहे हैं। लेकिन हमारे प्रतिनिधि इन हमलों को नाकाम कर देते हैं। हो सकता है कि
हमारे प्रतिनिधि अपनी सज्जनता और भोलेपन के कारण पहले हमलों को न समझ पाते हों
लेकिन जब समझ जाते हैं तो जान पर खेल कर लोकतंत्र को बचा लेते हैं। दु:ख और चिंता
की बात यह है कि उनके जान पर खेलकर लोकतंत्र बचाने के प्रयासों की सराहना उनको खुद
ही करनी पड़ती है। जबकियह काम जनता का है लेकिन जनता आजकल क्रिकेट मैच, भोंडे टेलीविजन
कार्यक्रम, शेयर मार्केट का उतार चढ़ाव, सोने का बाजार, प्रापर्टी की कीमती हेरफेर, बिना किए करोड़पति हो जाने के
सपने ही देखती है। खैर हमारे जन प्रतिनिधि किसी बात का बुरा नहीं मानते। वे मानते
हैं कि जनता को न बदला जा सकता है न वे किसी दूसरे देश में जाकर जनप्रतिनिधि बन
सकते हैं।
हमारे लोकतंत्र पर ताजा हमला एक बदबू
ने कर दिया है। हमारे कर्मठ, प्रतिभावान, समर्पित प्रतिनिधि चाहते हैं कि सदन की कार्यवाही साल में
कम से कम दो सौ दिन तो चले पर व्यवधान डालने वाले इस कार्यवाही को समेट कर सौ से
भी कम आकड़ें पर खड़ा कर देते हैं। इन दिनों सदन की कार्यवाही बहुत सुंदरता से चल
रही थी कि अचानक सदन पर बदबू ने हमला कर दिया। यदि हमला करने वाला कोई ओर होता तो
हमारे प्रतिनिधि सीना तानकर खड़े हो जाते। चूंकि हमलावर अदृश्य था। इसीलिए हमारे
प्रतिनिधि विवश हो गए। पर यह बहस चलने लगी
कि यह दुर्गंध कैसी है। कुछ ने कहा कि यह गैस की बदबू है। इस पर पूछा गया कि किस कंपनी की गैस की बदबू है।
थोड़ा खुलकर कंपनी का नाम बताया जाए। बदबू
से कंपनी का नाम बता देना सरल था लेकिन सदन खामोश रहा। बहस यह होने लगी कि दुर्गंध
कहां से आ रही है। एक सदस्य ने कहा कि वह जब से जनप्रतिनिधि चुनकर आया है तब से
उसे यह दुर्गंध आ रही है। इस पर पूछा गया कि इससे पहले दुर्गंध की शिकायत क्यों
नहीं की ? प्रतिनिधि ने बताया कि वह तो दो साल पहले ही चुनकर आया है। उसे लगा था कि शायद
जिसे वह दुर्गंध समझ रहा है वह दुर्गंध नहीं सुगंध है जिसे सदन में बड़े प्रयासों
से फैलाया गया है। नए सदस्य के इस वक्तव्य पर कुछ दूसरे सदस्य नाराज हो गए और उन्होंने नए सदस्य पर जातिवादी
होने का आरोप लगाया। अब बहस जातीय आधार पर बंट गई और जाति- विशेष की तरफ इशारे
होने लगे। बहस को लाइन में लाते हुए एक अनुभवी सदस्य ने कहा कि पिछले पच्चीस साल
से वह यह दुर्गंध महसूस कर रहा है। बात पीछे खिसकते खिसकते यहां तक पहुंची कि
अंग्रेज जब हमारे देस को आजाद करके गए थे तब से यह दुर्गंध सदन में है। यह
अंग्रेजों द्रारा छोड़ी गई दुर्गंध है। इस मत का पूरे सदन ने समर्थन किया और कहा
गया कि विदेश मंत्रालय इस पर सख्त कार्यवाही करे और ब्रितानी सरकार से कड़े शब्दों
में पूछा जाए कि यह मामला क्या है। कुछ सदस्य बदबू के ब्रितानी षड्यंत्र होने वाले
बिंदु से इतना उत्तेजित हो गए कि उन्होंने कहा कि अंग्रेज तो जो भी छोड़ गए सब से
बदबू आती है। रेल की पटरियां गंधाती है,
गेट वे ऑफ इंडिया
से लेकर इंडिया गेट तक बदबू ही बदबू है। नौकर-शाही से दुर्गंध आती है। आई.पी. सी
से सड़ी गंद आती है। शिक्षा- व्यवस्था की हालत तो गंदे नाले जैसी है। सदन के
जिम्मेदार सदस्यों ने जब बहस को यह मोड़ लेता देखा तो बोले यह सब छोडि़ए, यहां इस सदन में इस गंध
के लिए जो जिम्मेदार है उससे जवाब तलब किया जाना चाहिए। इस पर मेजे बजने लगीं।
सदन के कुछ प्रभावशाली यह बहस होने से
पहले सदन की कैण्टीन में सस्ते दरों मे मिलने वाली बिरयानी खाने चले गए थे। वे
वापस आए तो उन्होंने यह बहस होते देखी। वे
बहुत नाराज हो गए। एक सीनियर सदस्य ने कहा- आप लोगों को शर्म नहीं आती?
आप इसे बदबू कह रहे हैं?
- फिर यह क्या है?
यह तो लोकतंत्र की सुगंध है।
ये कैसे?
अरे आप को शर्म नहीं आ रही? यह तो डूब मरने की जगह
है। आपको मालूम है कि हमने लोकतंत्र कितने बलिदान देकर हासिल किया है? कितने शहीदों का खून बहा
है। कितने घर उजड़े हैं। कितनों ने काला पानी काटा है। कितने फांसी के फंदे पर
झूले हैं। कितनी बहनों का सुहाग उजड़ा है। कितनी माओं की गोदें सूनी हुई हैं। तब
हमें लोकतंत्र मिला है। आप लोगों की इन
ओछी हरकतों से आज स्वर्ग में राष्ट्र्पिता पर क्या गुजर रही होगा। सुभाषचंद्र बोस
कितना दु:खी होंगे और शहीदे आजम का कलेजा टुकड़े- टुकड़े हो गया होगा . . . . अगर
उनके सामने .. .. ..अगर उनके सामने
अचानक सभी सदस्यों की आंखें एक तरफ को
उठ गईं। धीरे धीरे नपे तुले कदमों से एक नवयुवक सदन में दाखिल हो रहा था। उसका तेजवान लंबोत्तर चेहरा था। बड़ी
बड़ी संवेदना और विचार में डूबी आंखों से वह सबको देख रहा था। उसने फ्लैट हैट लगाई
हुई थी। चेहरे पर शानदार मूछें फब रही थी। नौजवान धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा। उसने
अपने हाथ में कुछ लिया हुआ था। नौजवान के रोबदाब के आगे सबकी घिग्गी बंध गयी थी।
बड़ी हिम्मत करके एक सीनियर सदस्य ने पूछा- आप कौन हैं?
नौजवान ने जोर का ठहाका लगाया। उसकी
आवाज देर तक सदन में गूंजती रही। कुछ क्षण बाद वह बोला- क्य यह बताने की जरूरत है
कि मैं कौन हूं।
एक सदस्य ने पूछा- चलिए यही बता दीजिए
कि आप किस चुनाव क्षेत्र से चुनाव जीतकर आए हैं.?
अब की नौजवान ने फिर जोर का ठहाका
लगाय। लेकिन यह डरावना ठहाक था। चुने हुए प्रतिनिधि कांप गए। सदन की दीवारें थर्रा गईं। नौजवान ने आग उगलती आंखों से आंखें
मिलाने की हिम्मत किसी में न थी। कुछ ठहरकर एक सदस्य ने पूछा- आप का धर्म? आपकी जाति। नौजवान ने
नफरत से का- मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरी कोई जाति नहीं है।
तीसरे प्रतिनिधि ने कहा- तब तो
श्रीमान जी आज की तारीख में आपको किसी चुनाव क्षेत्र से हजार वोट भी न मिलेंगे।
मैं यहां वोट लेने नहीं आया हूं। वह आत्मविश्वास के साथ
बोला।
फिर श्रीमान जी यह तो लोकतंत्र का
मंदिर है .. . यहां ..?
एक सीनियर सदस्य बात काटकर बोला- मैं
इन्हें पहचान गया हूं यह शहीदेआजम हैं।
अरे बाप रे बाप। पूरे सदन में यह
वाक्य गूंज गया। सभी सदस्य हैरान परेशान हो गए।
ये आपके हाथ में क्या है शहीदेआजम?
ये बम है।
बम?
हां बम?
इसे यहां क्यों लाए हैं?
इसे यहां फेंकने लाया हूं।
यहां फेंकने?ं
क्यों शहीदेआजम?
यहां बदबू आती हैं ना?
हां आती है।
बदबू का यही इलाज है।
लेकिन ये बम
सदन एक जोरदार धमाके की आवाज से थर्रा
गया। चारों तरफ धुआं ही धुआं हो गया। जन प्रतिनिधि मेजों से नीचे छिप गए। जब धुआं
छटा तो उनमें से कुछ ने मेज के नीचे से सिर निकाले।
एक बोला क्या चले गए शहीदेआजम?
तुम देखो।
नहीं तुम देखो।
चले तो गए हैं पर जाने कब चले आएं।
हां यार ये तो है।
तो मेज के नीचे ही रहें।
सदन की कार्यवाही?
चलती ही रहेगी क्योंकि सभी मेजों के
नीचे हैं।
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