रश्मि भारद्वाज का
उपन्यास वह साल बयालीस था एक पठनीय उपन्यास है। उपन्यास की कथावस्तु, संवेदनशीलता
के उस चरम बिंदु को छूती है जहां मानवीयता और संवेदनशीलता के बीच गहरा द्वंद भी है
और सामंजस्य भी। अंततः कहानी अपने रास्ते से होते हुए दोनों को एकाकार कर देती है।
इतिहास, दर्शन कला, साहित्य, प्रकृति को रंगों शब्दों और भावों से एकाकार कर जब वह
गद्य रचती हैं तो उसका सुंदर बनना स्वभाविक ही है।
प्रेम को महसूस करना, प्रेम का छूट जाना, प्रेम
में डूब जाना, प्रेम की दीवानगी, प्रेम का अतिरेक, प्रेम से विराग, प्रेम से राग,
प्रेम से आसक्ति अनासक्ति से लेकर यह कहानी देशप्रेम के लिए न्यौछावर हो जाने वाले
प्रेम की भी कहानी है ।
यहां लेखिका ने प्रेम शाश्वत है, की अवधारणा को
बहुत मजबूती से अपने कथ्य का हिस्सा बनाया है। वह उसे अलौकिक दिव्य सा महसूस कराती हैं । यह कैसी
विडंबना है कि इन सबके बावजूद यह शाश्वत प्रेम भी एक बक्से में बंद है और अपनी
मुक्ति चाहता है।
इस उपन्यास में स्त्री की संवेदनशीलता एकरूप है
चाहें वह भारतीय है या विदेशी। प्रेम का कोई रूप रंग नहीं होता उसे महसूस किया जा
सकता है। कहानी की सूत्रधार अना भी यह महसूस करती है, उसकी दादी रुप भी है और अंग्रेजन...
भी।
प्रेम, समर्पण,
कर्तव्य, दायित्व, देय, प्रदेय की इस अद्बभुत कहानी में देश और समाज के सरोकार भी
है। जानेमाने लेखकों के कोट्स, कविताएं रचना की गतिशीलता को और मधुर और सांगेतिक
बनाते हैं।
यह उपन्यास,
कला के उन सभी औजारों से निर्मित है जो आज की रचनाशीलता के लिए बहुत जरूरी है। इस
उपन्यास में शैली के रूप में भी कई प्रयोग हैं। कभी यह आत्मकथा है, कभी संस्मरण,
कभी यात्रावृतांत, कभी डायरी तो कभी रिपोर्ट। रचनाकार ने छोटे छोटे नोट्स का इस्तेमाल भी बहुत
खूबसूरती से किया है ब्रश के स्ट्रोक की तरह।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे पीछे एक
धुन लगातार बज रही हो अपने पूरे माधुर्य के साथ ऊधौ मन न भए दसबीस.. मुझे क़ृष्ण
राधा और ऱूकमणि से जुड़ी पौराणिक कथाएं भी बरबस ही याद आई । इन सबके बावजूद भी उपन्यास में कुछ छूटा सा लगा।
जैसे हाथ में आई गैंद अचानक टप्पा खाकर गिर जाए। मैं तो प्रेम के सरलीकृत रूप पर
मुग्ध थी और सोच रही थी काश प्रेम इतना सहज स्वीकार्य होता जैसा यहां दिखाया गया
है। इसका उत्तर मुझे फिर अना की दादी के बक्से की तरफ ले जाता है जिसकी चाबी दादाजी
ने कभी किसी को नहीं सौंपी। अपने अंत समय में अना को छोड़कर...
एक सवाल जरूर उठा कि वह दादा जी जिन्होंने अपनी
पत्नी रूप के इस सच को स्वीकार किया कि वह
उनसे प्रेम नहीं करती और इसके बावजूद वह पूरे जीवन उससे प्रेम करते रहे औऱ समर्पित
रहे। समर्पण तो उनकी पत्नी रूप ने भी किया, दांपत्य को भी जिया पर प्रेम को नहीं।
इस गुत्थी भरे जीवन को जीने वाले दादा जी ने अना की मां को क्यों नहीं स्वीकार किया।
जबकि वह जानते थे कि उनका बेटा फातिमा से कितना प्यार करता है। उन्होंने अपने बेटे
को जीवन भर माफ नहीं किया। यह विरोधाभास खटकता है।
कुल मिलाकर उपन्यास
पठनीय है और ताजगी से भरपूर भी।
किताबों की दुनिया
वह साल बयालीस था
रचनाकार रश्मि
भारद्वाज
सेतु प्रकाशन