रविवार, 5 अगस्त 2018

सार्थक अस्तित्व मेरा- उर्मिल सत्यभूषण


राजेश्वरी अकेली रह गई हैं। श्रीवास्तव जी छोड़कर जा चुके हैं। बच्चों के साथ रहना गवारा नहीं। स्वतंत्रता हर हाल में प्यारी है। बच्चे आते जाते हैं। हिदायतों का पुलिंदा साथ में थमा जाते हैं। राजेश्वरी दूर दराज जा नहीं पाती। घर पर एक लैंडलाइन फोन है। उसकी के द्वारा बातचीत करती है। कामचलाऊ। तन्हाइयां काटने को आती हैं। वह समझदार है, तन्हाइयों को इजाजत नहीं देंगी कि वे उन्हें काट दें। वे तन्हाइयों को काटने का ही कुछ इन्तजाम करेंगी बेमौत नहीं मरेंगी। ज्यादा कार्यक्रमां में जाना संभव नहीं। सुबह एक सत्संग में जरूर जाती हैं।
‘‘लाओ, इनके कागज पत्र समेटते हैं। पुस्तकें लिखते थे श्रीवास्तक साहब लिख लिखकर रखते जाते थे कि रिटायर होने के बाद छपवायेंगें। छपवाने की मोहलत नहीं मिली। अब हम ही देखते हैं कुछ छपवाने का प्रबंध करें।
धीरे धीरे उन कागजों को छांटना, संवारना, पढ़ना शुरू किया तो छोटे छोटे जुगनू रोशनी की पकड़ में आने लगे। विषाद अवसाद घुलने लगा। धीरे धीरे महसूस हुआ - ये तो रोशनी के द्वार पर द्वार खुलते जा रहे हैं। कहानियों को अलग किया, कविताओं को अलग। अपनी भी कई पुरानी डायरियाँ, कापियाँ अंधेरे कोनों से नमूदार हुई जिन्हें कब का छुपाकर रख दिया गया था कि अतीत कभी आंखे ही न खोले। जो मिला उसी में सुख प्राप्त कर लें। पति का प्रेम मिल गया तो अपना अस्तित्व अपना व्यक्तित्व उन्हीं में विलीन कर सुख का अनुभव करने लगी थीं वे। औरत को और क्या चाहिए भला?
लेकिन आज आधुनिक युग की खुली आंखों और सिर उठाती महत्वाकांक्षाओं को देखकर महसूस होता है कि औरत को भी अपने अस्तित्व की, अपने व्यक्तित्व की जरूरत है।
किसी की मदद से उसने पति के कार्यों को प्रकाशित करवाने की ठानी। अपनी भी कवितायें चीख पुकार मचाने लगी तो उनके लिए भी प्रयत्न शुरू हुआ। पैसे की कमी न थी।  पैसा लगाकर पुस्तकें सामने आई। राजेश्वरी का हौंसलां बढ़ा तो और भी पुस्तकें लिखने लगी। बातचीत करने लगी। आत्मविश्वास बढ़ा तो कई सम्पर्क सूत्र काम आने लगे।
किताब को नाम मिला :- रोशनी की तलाश में।
भूमिका में सुंदर कविता अवतरित हुईः- रोशनी जुगनू की हो या सूरज की।
रोशनी तो रोशनी है जो विषाद के, अवसाद के अंधेरे दूर करती है। मैं भी निकल पड़ी हूं रोशनी की तलाश में। तुम्हारी हथेली का जुगनू मेरी कलम पर आन बैठा लफ्जों के लिबास में कागज की देह पर उतरता चला गया। कविता के आधार में। गीत के संसार में उजास ही उजास था। रोशनाई से लिखा प्रकाश ही प्रकाश था। इलाही नूर से भरपूर हुआ अस्तित्व मेरा। राह मुझको मिल गई चलने लगी, चलती गई, चलती गई। लीलने को तत्पर थी तन्हाइयां किधर गई, किधर गई? निकल पड़ी अनगिनत रचनायें जुगनू पकड़ने रोशनी की आस में। चल पड़ी मैं चल पड़ी - जुगनुओं की तलाश में
सार्थक प्रयास मेरा दे रहा खुशियां मुझे
चलने लगी अब छोड़कर बैसाखियां। हो रहा है सार्थक
और समर्थ अब अस्तित्व मेरा। तिनका तिनका सुख
मुझको दे रहा संतोष कितना यह मेरा व्यक्तित्व




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