मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

एक रिश्ता दर्द भरा

डॉ. अनुजा भट्ट
महाश्वेता देवी का उपन्यास नील छवि आज के समाज की विसंगति को दर्शाता है । इस विसंगति की मुख्य वजह है ऐसी महत्वाकांक्षा जिसे बिना पैसे के हासिल किया जा सके और उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहा जाए। ऐसी महत्वाकांक्षी लोग फिर न रिश्तों को देखते हैं और न ही व्यक्ति की संवेदना को। सिर्फ पैसों की खनक सुनाई देती है और जब यह पैसों की खनक न सुनाई दे तो सारे रिश्ते खतम हो जाते है। नील छवि में ऐसी दो विचारधाराएं हैं। एक के लिए रिश्तों का अर्थ है और वह उनको बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकता है और दूसरी विचारधारा में पैसे के लिए किसी से भी कभी भी रिश्ता जोड़ा या तोड़ा जा सकता है। महत्वाकांक्षा के लिए किसी भी हद तक जाती ी है तो अपनी पहचान को बनाने के लिए जोखिम भरे काम को करने वाला पुरुष भी है। इन दोनों के बीच में संतान है जिसका किसी भी तरह का कोई भी संस्कार विकसित नहीं हो पाता और वह दिशाविहीन जीवन की ओर कदम बढ़ाते बढ़ाते लडख़ड़ाने लगती है और एक दिन गायब हो जाती है। तब जाकर स्त्री पुरूष यानी उसके माता पिता को अहसास होता है। पुरूष स्वाबलंबी है पर महत्वाकांक्षी नहीं पर समाज के लोग उसे महच्वाकांक्षी बनाने पर तुले है और उसके बहाने कई तरह के व्यापार कर रहे हैं। लेकिन वह हमेशा हाशिए में खड़े लोगों की मदद करता है चाहे वह कोई भी क्यों न हों। उसका स्वभाव खोजी है और वह हर रोज कुछ नया खोजने के लिए कई तरह की सुरंगों से गुजरता है। पर जब खोजी पत्रकारिता के जरिए वह अपनी बेटी को ढूंढ रहा होता है जो ब्लू फिल्म बनाने वाले गिरोह में फंस गई है तब वह सवाल करता है कि हम सब अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए या अपने सपनों को पूरा करने की जिद में अपने बच्चों से कितने दूर हो गए है हमारे पास उनके लिए समय नहीं है और वह भटक रहे हैं। हम उनको पैसा दे रहे हैं उनके मंहगे शौक पूरे कर रहे हैं, उनको पूरी आजादी दे रहे हैं पर क्या परवरिश का यह तरीका ठीक है?
कहानी के ताने बाने इतने सघन है कि पढ़ते हुए लगता है जैसे आप कोई फिल्म देख रहे हैं। कहीं भी लोच नहीं एकदम कसी हुई कहानी।
यर्थाथवादी और भावुकतावादी दो व्यक्तित्व जब मिलते हैं तो किस तरह का जीवन होता है यह इस उपन्यास को पढक़र जाना जा सकता है जहां एक व्यक्ति रिश्तों को असहमति के बाद भी महसूस करता है और दूसरा व्यक्ति रिश्ते का अर्थ समझ ही नहीं पाता और जब समझ आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। संतान के लिए माता पिता दोनो के कर्तव्य हैं। पर कानून संतान को मां के हवाले करता है और पिता संतान से दूर हो जाती है। रह जाती है सिर्फ मां । ऐसे में पिता अपनी भावनात्मक मजबूती को कैसे बनाए यह सवाल भी बड़ी शिद्दत के साथ उठाया गया है। क्या पिता का अपनी संतान पर कोई हक नहीं कि वह उसकी परवरिश के बारे में सोचे। इस उपन्यास में पिता अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करता है और अपनी जान को जोखिम में डालकर अपनी बेटी को उस गिरोह से निकाल लाता है। वह अपनी बेटी की सुरक्षा, उसकी भावनाओं के लिए इतना ज्यादा संवेदनशील है कि वह वहां से सारी सीडी भी लेकर आता है जिसमें उसकी बेटी है। वह अपनी पत्नी से किसी से भी इन बातों का जिक्र करने से मना करता है। घर के मान, बेटी की इज्जत की उसको परवाह है। वह उसे मुख्यधारा में लाने की कोशिश करता है उसका इलाज करवाता है। उससे मुक्त नहीं होना चाहता। वह अपनी बेटी से नाराज नहीं बल्कि उसे ग ्लानी है कि उसके कदम अगर बहके तो उसके लिए यह समाज जिम्मेदार है जो भौतिकतावादी रहन सहन को महत्व देता है जहां भावनाओं का नहीं पैसे का असर है इसकी वजह से उसकी पत्नी प्रभावित हुई और उसे लगा कि पैसा ही सबकुछ है। इसके लिए उसने अपने पति को छोड़ दिया। जिन लोगों का साथ उसने चुना उन्हीं लोगों ने उसकी बेटी को अपना निशाना बनाया। वह यह सब समझ नहीं पाई क्योंकि उसे बस पैसे कमाने थे। उसने बहुत पैसे कमाएं। बेटी को उसने बहुत सारे पैसे दिए पर समय नहीं। इच्छाएं उसके मन में भरी पर प्रेम नहीं। इसी प्रेम की तलाश में उसकी संतान भटक गई।
आपको मौका लगे तो इस उपन्यास को जरूर पढंð
नील छवि
महाश्वेता देवी राधाकृष्ण प्रकाशन

1 टिप्पणी:

Bhavesh Pandey ने कहा…

Nice review di... Ummeed hai yahaan se mujhe naye or achche upanyaso ke baare main aise he jankaari milti rahegi... Bahut bahut dhanyavaad...

special post

कुमाऊंनी भाषा के कबीर रहीम की जोड़ी डा. अनुजा भट्ट

   हल्द्वानी जो मेरे बाबुल का घर है जिसकी खिड़की पर खड़े होकर मैंने जिंदगी को सामने से गुजरते देखा है, जिसकी दीवारों पर मैंने भी कभी एबीसी़डी ...