बुधवार, 22 दिसंबर 2010

सिर्फ भाषा के उस्ताद नहीं उदय


बटरोही
उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी का सम्मान दिया जाना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। साहित्य और संस्कृति से जुड़े सम्मान किसी व्यक्ति को नहीं, एक तरह से सामाजिक मूल्यों की स्वीकृति के रूप में व्यवस्था द्वारा अपने समाज को सौंपे जाते हैं, ताकि उस विधा से जुड़े बाकी लोग बिना हिचक अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकें। जाहिर है, इस प्रक्रिया में सामाजिक विकास और विस्तार को सकारात्मक गति मिलती है और संस्कृति के विभिन्न पक्षों से जुड़े लोगों के मन में स्वार्थी लोगों द्वारा फैलाई जा रही व्यर्थ की उलझनें दूर होती हैं और वे अपने सपनों के अनुरूप निर्द्वंद्व ढंग से अपना पक्ष प्रस्तुत कर पाते हैं।
उदय प्रकाश की पुरस्कृत रचना ‘मोहनदास’ को महाकाव्यात्मक कहानी कहा गया है। यह एक दुराग्रही कथन है। हिंदी में शायद आरंभ से ही यह एक आम प्रवृत्ति दिखाई देती है कि लेखक को किसी एक विधा के स्टीरियो-टाइप की तरह पेश किया जाता है और उसके बाकी योगदान को भुला दिया जाता है। मसलन, जयशंकर प्रसाद के लिए कहा जाता है कि वह मूलत: नाटककार हैं, अज्ञेय मूलत: कवि और प्रेमचंद मूलत: उपन्यासकार हैं। ऐसे मूल्यांकन में अमूमन लेखक की रचनाओं के अपने पक्ष को भुला दिया जाता है। कोई भी रचना समाज के कारण है, और रच जाने के बाद हर अच्छी रचना समाज को समझने और उसके अंतर्विरोधों से मुक्ति दिलाने में मदद करती है।
अज्ञेय के बाद उदय प्रकाश पहले ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने अनेक विधाओं में समान अधिकार और संबंधित विधा की शर्तों के आधार पर लिखा है। अनेक लोगों ने उन्हें भाषा और शैली के उस्ताद के रूप में देखा है, मगर वह इतने ही कतई नहीं हैं। अपने समय के सामाजिक सरोकारों, राजनीतिक-सांस्कृतिक घटनाक्रमों के प्रति जितनी पैनी नजर उदय प्रकाश की है, हिंदी में शायद ही किसी और की हो। अज्ञेय अनेक बार आत्ममुग्ध रचनाकार दिखाई देने लगते हैं और प्रेमचंद अपने समाज की गतिविधियों के प्रति खीझे हुए व्यक्ति, मगर उदय की खीझ और उनकी टिप्पणियां समाज या स्वयं को संशोधित करने वाली नहीं, एक ऐसे जागरूक नागरिक की प्रतिक्रियाएं हैं, जिसकी एक जागरूक समाज अपने साहित्यकार से अपेक्षा करता है। इस रूप में इस बार का साहित्य अकादेमी सम्मान कोई विशिष्ट सामाजिक घटना न होकर एक आम सामाजिक प्रतिक्रिया जैसा लग रहा है। बावजूद इसके, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस सम्मान के पीछे भी प्रायोजित राजनीति रही होगी। साहित्य को जब हम सामाजिक कर्म की अभिव्यक्तिमानते हैं, तो उन विसंगतियों से कैसे इनकार कर सकते हैं, जो समाज में मौजूद हैं।
जब मैं हंगरी में भारत सरकार की ओर से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भेजा गया था, तो वहां हिंदी की मुख्यधारा के साहित्य की जानकारी देने के लिए पाठक्रम बनाने की बात आई। वहां हर सेमेस्टर में पाठ्यक्र्तम का निर्माण छात्र और अध्यापक मिलकर करते थे। पहली ही बैठक में विद्यार्थियों ने बता दिया था कि वे एक तो कबीर को पढ़ेंगे और मुझसे कहा गया कि हिंदी के किसी ऐसे लेखक को मैं चुनूं, जो समकालीन लेखन का प्रतिनिधित्व करता हो। विचार-विमर्श के बाद कबीर के कुछ पद, पचास साखियां और उदय प्रकाश की कहानी ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड’ उस सेमेस्टर में पढ़ाई गईं। मुझे आज भी लगता है कि भारतीय समाज में औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रवेश के बाद निर्मित हुए सांस्कृतिक ऊहापोह और विडंबनाओं को जितने प्रभावशाली और दो-टूक ढंग से यह कहानी प्रस्तुत करती है, वैसा उदाहरण इससे पहले हिंदी लेखन में नहीं मिलता। खास बात यह कि यह कहानी उनके लेखन का इस तरह का नया प्रस्थान नहीं है। इससे पूर्व वह ‘तिरिछ’, ‘चौवन तोले का करघन’, ‘पाल गोमरा का स्कूटर’ आदि कहानियों में इसकी शुरुआत कर चुके थे। ‘वारेन हेस्टिंग्स...’ के बाद भी वह ‘और अंत में प्रार्थना’, ‘मोहनदास’ और ‘पीली छतरी वाली लड़की’ आदि तमाम कहानियों में अपने समय के ऊहापोह को पूरी तल्खी के साथ रेखांकित करते रहे। उदय उन विरल लेखकों में हैं, जो अपने समय के सामाजिक घटनाक्रम और उसमें सामाजिक हस्तक्षेप के समानांतर अपना एक स्वतंत्र लोक रचते हैं। उनके समय को जानने-समझने के लिए जितनी सहायक उनकी कहानियां हैं, उतना खुद उनका समाज नहीं

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

स्त्री के बोल्ड स्टेटमेंट्स की फोटोकॉपी- नेम प्लेट



डॉ. अनुजा भट्ट

चर्चित कथाकार क्षमा शर्मा का कहानी संग्रह नेम प्लेट स्त्री के मन की खिड़कियां खोलता है। यह स्त्री के मन के बदलाव, उसके भीतर की उथल पुथल और धीरे धीरे साहसी हो जाने की अविरल कथा है। दादी मां के बटुए में जहां लडक़ी के दुनिया में न आने के लिए तमाम तरह के प्रयोजन हैं, छद्म हैं, वह अगली सदी की एक लडक़ी तक आते आते समाप्त हो जाते हैं। आदर्शवाद और उपयोगितावाद की छड़ी बहस में आदर्शवादी अपना मूल्यांकन करता है। वह यह सोचता है कि हर किसी व्यक्ति के लिए आदर्श की अपनी परंपरा है आपके विचार से किसी का प्रभावित होना जरूरी नहीं है।
इन कहानियों में एक बात बार बार रेखांकित होती है वह है पुरूष द्रारा स्त्री को बार बार ठगा जाना। उसे अपनी वस्तु समझना। और ऐसा एकाधिकार रखना जैसे वह उसके पिंजरे में बंद हो वह चाहे तो फडफ़ड़ाए, वह चाहे तो आवाज करे। और अगर वह न चाहे तो उसके होने तक का अहसास न हो। जैसे स्त्री उसके कोट में लगा रुमाल हो जिसे सब देखें। कहानियों में पुरुष का यह अहं भाव स्त्री के बार-बार आड़े आता है पर हर बार स्त्री उसे ऐसे झटक देती है जैसे उसकी साड़ी पर अभी अभी कोई कीड़ा गिरा हो। हंसी शब्द को लेखिका बहुत ही प्रतीकात्मक तरीके से व्यक्त करती हैं। जोर से हंसी में कई दंभ ध्वस्त हो जाते हैं। यह हंसी हर कहानी में है। हंसकर बात टाल दी जैसी अभिव्यंजना तो कई बार पढऩे को मिलती है पर हंसकर किसी के दंभ को चकनाचूर कर देना और रिश्ते के अर्थ और गरिमा के साथ न्याय करना अपने आप में एक नया प्रयोग है। छद्मधारी पुरुष को कहानी में आई नायिकाएं ऐसी पट्खनी देती हैं कि दूध का जला छांछ को भी फूंकफूंक कर पीने लगे। प्रेम की कोमल भावनाओं के अलावा गंदगी जैसी कहानियां भी है जो कामकाजी और गैरकामकाजी स्त्री की सोच के अंतर को प्रकट करती हैं। बूढ़ी औरत का दर्द है तो फादर जैसी कहानी में पिता के न होने के क्या अर्थ हो सकते हैं इसका भी विश्लेषण है। यह बहुत सुंदर कहानी है। इस संग्रह की सबसे खूबसूरत कहानी है बेघर। एक तरफ प्रेम की भावना जो किसी भी बंधन को नहीं मानती और उसको पाने के लिए हर रिश्ते को झुठला देती है। हर किसी से मुंह मोड़ लेती है पर प्रेम को नहीं खोती। लेकिन उसको पा लेने के बाद वह खुद को इतने सारे बंधनों में जकड़ लेती है अपने भीतर इतने सारे बदलाव लाती है कि यह सोच पाना कठिन हो जाता है कि इसका असली रूप यह है या फिर वह जो 25 साल तक उसने जिया। असली रूप कौन सा है। प्रेम को बचाए रखने और मेरा निर्णय सही था को दूसरों के सामने साबित करने के लिए आखिरकार कितना बदलाव लाती है एक स्त्री । सिर्फ इसीलिए ताकि यह समाज मुंह न खोल सके। न उस स्त्री के सामने और न ही उसके परिजनों के सामने। कितने सारे डर समा जाते हैं एक स्त्री के मन में। पर पुरुष.. उसका प्रेम, उसकी भावनाएं सिर्फ और सिर्फ स्त्री की देह टटोलती हैं। और उस देह के लिए वह फिर से अपना संसार बसा लेता है।
नेम प्लेट इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। यह एक ऐसे लडक़े की कहानी है जिसकी दोस्त बनने के लिए हर लडक़ी एक मुकाबला करती है। वह हर समय लड़कियों से घिरा रहता है और लड़कियों को उससे कोई डर नहीं है। उसे भी मालूम है कि वह लड़कियों में कितना चर्चित है। इसीलिए वह किसी लडक़ी की किसी बात को गंभीरता से नहीं लेता पर वह यह जताने की कोशिश करता है कि वह उनके प्रति बहुत गंभीर है। लेकिन कहानी अंत में आकर निर्मला पर ऐसे टिकती है कि बस आप हैरान रह सकते हैं एक अजीब सी हंसी आपको पूरे दिन गुदगुदा सकती है।
स्त्री के अलग अलग रूपों को व्यक्त करती और कुछ नया सोचने को विवश करती यह कहानियां एक ताजगी लिए हुए हैं। एक लडक़ी से लेकर प्रौढ़ होती स्त्री के मन के खिड़कियों पर यह एकाएक प्रवेश कर जाती है। जिसमें विराधोभास भी है, पर प्रेम भी है। नानी और पोती हो या सास बहू विचारों में भले अलग हो और हो सकता है कि विचार के स्तर पर दोनों एक दूसरे को पसंद न करते हो पर संवेदना के स्तर पर इतना जुड़े हैं कि पोती कमरे में सिर्फ इसीलिए ताला लगा देती है कि कहीं उसकी नानी फिर से खो न जाए। बहू अपनी सारी बातें कह देने के बाद भी अपनी भावी सास को चुंबन देती है। बच्ची अपने पागल दोस्त के लिए रोटी रखती है। और एक मां कभी नहीं चाहती कि उसके बच्चे को कोई कहे न्यूड का बच्चा। एक बुजुर्ग को परिवार से बेदखल कर देने के बाद एक लडक़ी ही अपने घर ले आती है उसके लिए वह अनमोल है जो न उसका पति है न बाप। न कोई रिश्ता। फिर भी एक चीज है वह है संवेदना।
हमें इसी संवेदना की तलाश है यह संवेदना चाहे आदर्श की चाशनी में डूबी हो या फिर आधुनिकता की चम्मचों में लिपटी हो। क्योंकि संवेदना विहीन समाज से किसी को कुछ भी नहीं मिलेगा।
लेखिका- क्षमा शर्मा, कहानी संग्रह- नेम प्लेट, मूल्य -80 रु। प्रकाशक- राजकमल प्रकाशक, नई दिल्ली।



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मिथक यथार्थ और फेंटेसी का दस्तावेज-डॉ. अनुजा भट्ट

  (अब पहले की तरह किस्से कहानियों की कल्पनाएं हमें किसी रहस्यमय संसार में नहीं ले जाती क्योंकि हमारी दुनिया में ज्ञान, विज्ञान और समाज विज्...