शनिवार, 25 अगस्त 2018

मेला - ममता कालिया

मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व पहुँच गईं चरनी मासी। पहले कभी उसके घर आई नहीं थीं। पर उन्होंने पता ठिकाना ढूँढ निकाला। अंकल चिप्स की छोटी-सी डायरी में उनके पोते के हाथ की टेढी-मेढी लिखावट में दर्ज था 'सत्य प्रकाश' २२७ मालवीय नगर इलाहाबाद। उनके साथ चमडे का एक बडा-सा थैला, बिस्तरबंद और कनस्तर उतरा। और उतरीं उन जैसी ही गोलमटोल उनकी सत्संगिन, प्रसन्नी।

स्टेशन से चौक के, रिक्शे वाले ने माँगे चार, मासी ने दे डाले पाँच रुपए। तीरथ पर आई हैं, किसी का दिल दुखी न हो। पुन्न कमा लें। इतनी ठंड में दो सवारी खींच कर लाया है रिक्शेवाला।

चाय पानी के बाद उनके लिए कमरे का एक कोना ठीक किया गया तो बोली 'रहने दे घन्टे भर बाद स्वामी जी के आश्रम में जाना है।'

सत्य ने कहा, ''थोडे दिन घर में रह लो मासी, वहाँ बड़ी ठंड है।''
''तीरथ करने निकली हैं, गृहस्थ विच नहीं रहना।''
''अच्छा मासी यह बताओ आप तीरथ पर क्यों निकली हो?"

''ले मैं क्या पहली बार निकली हूँ। सारे तीरथ कर डाले मैंने-हरद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, केदारनाथ, पुष्करजी, गयाजी, नासिक, उज्जैन। बस प्रयाग का यह कुम्भ रह गया था, वह भी पूरन हो जाएगा।''

''मासी आप इतने तीरथ क्यों करतीं हो?''
''ले पाप जो धोने हुए।''
भानजे की आँखों में शरारत चमकी, ''कौन से पाप आपने ने किए हैं?' सत्ते (सत्य प्रकाश) मासी से सिर्फ़ छह साल छोटा था। नानके में उसका बचपन इसी मासी को छकाते, खिझाते बीता था।

चरनी मासी हँस पडीं, एकदम स्वच्छ दाँतों वाली भोली-भाली निष्पाप हँसी। जब वे निरुत्तर होने लगती हैं तो स्वामी जी की भाषा बोलने लगती हैं, ''पाप सिर्फ़ वही नहीं होता जो जानकर किया जाय। अनजाने भी पाप हो जाता है, उसी को धोने।''

अनजाने पाप में उनके स्वामी जी के अनुसार बुरा बोलना, बुरा देखना, बुरा सुनना जैसे गांधीवादी निषेध हैं।
सत्ते की पत्नी चारू साइंस की टीचर है। उसने कहा, ''मासी आप से भी तो लोग अनजाने में कभी बुरा बोले होंगे। जैसे जीरो से जीरो कट जाता है, पाप से पाप नहीं कट सकता क्या?''
''पाप से पाप और मैल ने मैल नहीं कटता। पाप की काट पुण्य है, जैसे मैल की काट साबुन।''
''मलमल धोऊँ दाग नहीं छूटे'' जैसे भजन के बारे में आप क्या सोचती हैं?''
''छोटे मोटे तीरथ पर यह मुश्किल आती होगी, प्रयाग का महाकुम्भ तो संसार में अनोखा है। तुम गरम पानी से नहाने वाले क्या जानो।'' मासी ने आर्यां दी हट्टी के लड्डुओं का पैकेट पीपे में से निकाला और चारू के हाथ में दिया और कहा,
''तीरथ अमित कोटि सम पावन।
नाम अखिल अध नसावन।''

चारु सोचने लगी 'दसियों बरस तो मैं इन्हें जानती हूँ, जगत मासी हैं ये। हर एक के दुख में कातर, सुख में शामिल! न किसी से बैर न द्वेष, पडोस में सबसे बोलचाल, रिश्तेदारों में मिलनसार, परिवार में आदरणीय, यहाँ तक कि बहुएँ भी कभी इनकी आलोचना नहीं करतीं। ऐसी प्यारी चरनी मासी कुम्भ पर कौन से पाप धोने आई हैं कि घर की सुविधा छोड वहाँ खुले में रहेंगी।''
पर मासी नहीं मानी। सूरज डूबने से पहले चली गईं।

पेशे से पत्रकार है सत्ते मगर दोस्तियाँ उसकी हर महकमें में है। इसलिए जब एस.पी. कुम्भ ने कहा, ''कवरेज'' आपके रिपोर्टर करते रहेंगे, एक दिन खुद आकर छटा तो देख जाएँ तो सबकी बाँछें खिल गईं। अभी मेला क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था सत्या और चारू ने कि मेले का समां नजर आने लगा। सोहबतिया बाग से संगम जाने वाले मार्ग पर भगवे रंग की एम्बैसडर गाडियाँ दौड रहीं थीं। पाँच सितारा आध्यात्म पेश करने वाले, विशाल जटाजूट धारण किए साधू संत, फकीर रंग बिरंगे यात्रियों के रेले में अलग नज़र आ रहे थे। दूर से संगम तट पर असंख्य बाँस बल्ली के चंदोवे तने हुए थे। कहीं रजाई में बैठे हुए भी ठिठुर रहे थे लोग, कहीं मेले में ठंडे कपडो में बूढे, जवान, अधेड स्त्री पुरुष और बच्चे एक धुन में चले जा रहे थे। सबसे अच्छा दृश्य था किसी टोले का सड़क पार करने का उपक्रम। सब एक दूसरे की धोती कुरते का छोर पकड़ कर रेलगाडी के डिब्बों की तरह चल रहे थे।


ठीक ११ साल ८६ दिन बाद पड़ा है यह महाकुम्भ। शहर इलाहाबाद। अनेकानेक यज्ञ की पावन भूमि पूर्ण कुम्भ के माहाम्य से महिमा मंडित है। इस अवधि का हर दिन भक्ति, ध्यान और स्नान के लिए शुभ है। यों तो यात्री पूरे साल आते हैं पर इस माह यहाँ रिकार्ड तोड़ भीड़ है। सर्वाधिक चहल-पहल के स्थल हैं संगम-तट, भारद्वाज आश्रम, अमृतवट और अक्षयवट। लगता है वेद, पुराण, आख्यान, तीनों आप चलकर समीप आए हैं। अदभुत मेला है यह। इतने वर्ष बाद आता है। न जाने कहाँ-कहाँ से इसमें भीड़ जुट जाती है। न कोई किसी को निमन्त्रण भेजता है न बुलावा। बस लोग हैं कि उमड़े चले आते हैं।

स्नान करना हो तो बाजरा मँगवाया जाय, कप्तान साहब ने पूछा। सत्य हँस दिया। उसकी इन बातों में कोई आस्था नहीं।
''हमारा इरादा तो आज घर पर भी नहाने का नहीं था।'' उसने कहा।
''मैं सुबह ही नहा चुकी हूँ।'' चारू ने सफाई दी।

मेले में मकर संक्रान्ति पर कितने नहाए इस बात पर अधिकारियों में बहस है। प्रेस और पुलिस के अलग-अलग आँकड़े हैं। अखबार में छपा है तेरह लाख तो पुलिस का दावा है छब्बीस लाख। शाम को रेडियो ने कहा दस लाख के ऊपर नहाए हैं।

प्रशासन के अफसर कूद-कूद कर आँकडे सप्लाई कर रहे हैं। पत्रकार नाम का जीव देखते ही पत्रकारिता वाला गंगाजल मँगवाते हैं, ''अरे द्विवेदी जी आप अब आ रहे हो, भीड तो भोर से नहा रही है। क्या कहा, पच्चीस, अजी पैंतीस तो दुई घन्टे पहले नहा चुके थे।''

दरअसल स्नानार्थियों की घोषित संख्या से ही सरकारी बजट में डाइव मारने की गुंजाइश निकलेगी।
द्विवेदीजी अपनी बंदर टोपी में से सवाल फेंकते हैं 'डूबे कितने?' कप्तान साहब के पीछे कई मातहत खडे हैं, ''एक भी नहीं। एक भी नहीं।'' सब कोरस में कहते हैं।
''ऐसा कैसे हो सकता है?''
''चार केस हुए थे, चारों को बचा लिया। एक को भी डूबने नहीं दिया गया।''
'कौमी एकता' के रिपोर्टर ने कहा, ''दीन मुहम्मद तो कह रहा था, वहाँ झूंसी के कटान के पास सात लाशें निकाली गईं आज।''
''जब आप मूँगफली वाले से डिटेल लेंगे तो यही होगा। वह तैराक को लाश बताएगा और लाश को कंकाल।''

कुल मिलाकर प्रेस को आभास मिल जाता है कि प्रशासन के अधिकारियों में अद्भुत तालमेल है। प्रशासन मुदित है। ऐसा मलाई-बजट प्रस्तुत किया है केन्द्र और प्रदेश सरकार ने कि कई पीढ़ियों का महाकुम्भ हो गया, तार दिया गंगा मैया ने। बीवी-बच्चे, रिश्तेदार, पड़ोसी सबको खुश कर दिया। मातहतों के मुँह भी हरे हो गए। बरसों के सूखे पेड़ों की सिंचाई हुई है इस बरस। गाड़ियों का काफिला पुलिस और प्रशासन की छोलदारियों में झूम रहा है सफेद हाथियों सा। जब गाड़ी सरकारी हो, ड्राइवर सरकारी हो, पेट्रोल सरकारी हो और सवारी निजी हो फिर न पूछिए मस्ती, सर्दी में भी गरमी लगती है, दिल से एक ही आवाज़ निकलती है जय माँ गंगे, जय माँ गंगे।

संगम-स्थल आज वहाँ नहीं है जहाँ पहले था। गंगा ने विशाल भू क्षेत्र को छोड दिया है। आजकल संगम पर जल टकराने की वह ध्वनि तो सुनाई नहीं देती जो भगवान राम ने प्रयाग आने पर सुनी थी, 'सरिता द्वय जल टकराने का नाद सुनो, दे रहा सुनाई।' लेकिन श्वेत-श्याम धारा का मिलन एक रोमांचकारी अनुभूति देता है। जितनी देर जल की ओर देखें मन, जीवन के रहस्यवाद का अन्वेषण करता है। नदी के विस्फारित नेत्रों जैसी नावें चली जा रहीं हैं, यात्रियों को लाती, ले जाती। कभी उनकी मचान या लकडी के फ्रेम पर खिरगल बैठ जाती है, जलपाखी। यात्री पानी में आटे की गोलियाँ और लाई डालते हैं। खिरगल कई बार हवा में लाई लपक लेती है। उनकी भगवा चोंच और पंजे देखकर लगता है या तो वे सन्यासी हो गई है या भाजपा की सदस्य।

कुम्भ क्षेत्र में साधुओं की भी त्रिपथगा है, सच्चे, पाखंडी और मक्कार। यहाँ धर्म, आस्था और आडम्बर का संगम चल रहा है। हर चीज यहाँ तीन के पहाडे में है जैसे त्रिवेणी से ही सीखा है यह। होमगार्ड, पुलिस, पी ए सी, गुरू, गोविन्द और शिव भक्त, बगुलाभक्त, और अंधभक्त।

मासी की ऐनक टूट गई। सत्ते ने कहा, "चल कर मासी को ले आते हैं। ऐनक बनने के साथ साथ वे दो दिन घर में रिलैक्स भी कर लेंगी।" गलन, हवा और धूल को चुनौती देता मेला पहले से भी ज्यादा गुलजार हो गया था। मौनी अमावस्या दो रोज बाद थी पर यात्रियों के रेले अभी से आने शुरू हो गए थे। ज्यादा स्त्रियाँ, बूढ़ी, अधेड़ और जवान। अनुपात में पुरुष कुछ कम। वे सारे के सारे महीनें टिकते भी नहीं हैं, एक दो प्रमुख स्नान दिनों का लाभ उठाकर लौट जाते हैं, वापस दुनिया की ठेकेदारी में। अपने निजी पाप पुण्य का गठ्टर अपनी स्त्रियों को थमा कर वे चल देते हैं। उन्हें पूर्ण विश्वास है कि एक दो डुबकी लगाने से उनके समस्त पाप धुल गए।

काली सड़क के किनारे-किनारे यात्री एकदम खुले आसमान के नीचे पड़े थे, अपने कम्बलों में गुड़ी-मुड़ी हुए। सामान के नाम पर एक बोरा, एक-एक कम्बल। जगह-जगह शिविरों में कीर्तन, प्रवचन चल रहा था। पंडालों में भारी भीड। जिनको ज्यादा ठंड लग रही थी वे जहाँ बैठे थे वहीं बुदबुदा रहे थे 'श्री राम जै राम जै राम।'

महामंडलेश्वर मार्ग पर पंजाब से आए संतो की धूम थी। भक्त भी सलवार सूट वाले। हर शिविर के सामने कार और वैन। कहीं-कहीं अपनी ट्रक भी। गोया एक छोटा मोटा पंजाब। सभी स्वामियों के चोंगे मंहगे टेरीकाट के दिखाई दे रहे थे। स्वामी अरूपानन्द, सरूपानन्द, केवलानन्द, विनोदानन्द। सत्य और चारू स्वामी जी के शिविर में पहुँचे।

मासी तम्बू में नहीं थी। उन जैसी कुछ और महिलाएँ थीं। एक महिला अपनी मोटी सी रजाई में मुँह छिपाए लेटी थी। भनक पाकर उसने सिर्फ अपनी आँखें निकाली, 'अरे मेरास काका तो नहीं आया है।'

कत्थई कॉट्सबूल का सूट पहने हुई वृद्धा ने सत्य से कहा।
'तू पटेल चौक वाले दा मुंडा, ना। मास्टर जी दे घर दा।'
सत्य के हाँ करने पर वह प्रसन्न हो गई। उसने अपनी साथिन से कहा, 'मैं एस दे सारे टब्बर नूं जाणदी।'
चरनी मासी थीं नहीं। स्वामीजी का एक शिष्य पंडाल में उन्हें ढूंढ कर आया।
'वह अपनी सत्संगिन के साथ पास ही कहीं गयी हैं, आप लोग बैठो, आती ही होंगी।'

स्वामीजी की कुटी वाकई में पर्णकुटी थी। फूस के ऊपर मिट्टी की मजबूत परत लिपी थी, शामियाना प्रिन्ट के तम्बू के चारों ओर सफेद और भगवा कपडा लपेट उसे आश्रमी शक्ल दे दी गई। वहाँ गुदगुदे गद्दे, भगवा चादरें लाल और सफेद साटन की गद्दियाँ और गद्दियों पर मखमल के बने स्वास्तिक चिह्न थे। शिष्य की देह देखकर गुरू के स्वास्थ्य का अन्दाजा मिलता था।

अभी वे प्रस्तावित चाय के लिए ना ना ही कर रहे थे कि मासी वापस आ गईं।
'लै तू ऐत्थे बैठा है। मैं तैनू फोन करण पी सी ओ गई सी।'
'मुझे खबर मिल गई थी। कैसे टूटी ऐनक।'

अब तक मासी प्रसन्नी के कन्धे का सहारा लेकर मजे से काम चला लेती थीं। ऐनक का जिक्र आते ही उनके चेहरे पर उत्तेजना खिंच गई, 'मत पूछ की हो गया। मै तो मर चली सी। भला हो खाकी वर्दी वालां दा, मैनू खींच कर बाहर निकाला।'

तम्बू की कई औरतों की मिली जुली बातों से पता चला कि रात साढे तीन बजे तारा डूबने से पहले स्नान का मुहूर्त था। मासी और चार साथिने शिविर से स्नान के लिए निकलीं। उन जैसी उत्साही श्रद्वालुओं की खासी भीड थी। इसी समय शाही स्नान के लिए अखाड़े का जुलूस भी वहाँ पहुँचा। हालांकि पुलिस आम तौर पर अखाड़ों के स्नान के समय, मामूली स्नानार्थियों को जल में उतरने की इजाजत नहीं देती पर जो पहले से ही बीच धारा में स्नान कर रहे थे उनका क्या किया जाय। अखाडे के सवा सौ साधुओं ने आते ही प्रशासन के इन्तजाम की आलोचना आरम्भ कर दी। पुलिस ने माइक पर निवेदन किया कि सब स्नानार्थी गंगाजी से निकल आएँ पर इतनी जनता को निकालने में कम समय नहीं लगा। ऊपर से अखाडा प्रबन्धकों के हेकड़ तेवर। एक तरह से बीच धार से घाट तक भगदड सी मच गई। अधिकांश स्नानार्थी बूढे और अशक्त, गीले कपडे में लटपट न उनसे जल्दी धारा काट कर चला जाए न अपने कपड़े ढूंढे जायं। सैकडों बालू के बोरों के बावजूद यात्रियों के पैरों के दबाव से किनारे-किनारे खूब रपटन और कीचड़ तो थी ही। औरतें फिसल-फिसल कर वापस नदी में गिरीं। मासी उसी भगदड़ में फंस गयीं। किसी की कोहनी से चश्मे की कमानी टूट गई और लेन्स चटक गया।

मासी को वह सारा अनुभव फिर से याद आया। सत्य घबरा गया, 'मासी तुम घर चलो, यहाँ नहीं रहना। दो दिन घर में आराम कर लो, बहुत हो गया गंगा स्नान।'

'लै दो दिन तो मौनी मस्या है। वह तो मैं जरूर नहाना।'
'ठीक है उस दिन आ जाना।'
'उस दिन आणा नहीं होना, बहुत भीड आएगी। स्वामीजी ने कहा है कोई कैम्प से जाए ना।'

सत्य तिलमिलाता रहा सन्यासियों का भी शाही स्नान हो रहा है। शाही कोरमा, शाही पुलाव तो सुना था। शाही स्नान कभी नहीं सुना। काफी देर की निष्फल बहस के बाद यह सोचा गया कि सत्य एक ऐनक बनवा कर लाए और चारू यहीं कैम्प में स्र्के, मासी की देखभाल के लिए। मासी ने लाख समझाया कि इसकी कोई जरूरत नहीं पर वे लोग नहीं माने। 'तुम्हारे कपड़े भी मैं ला दूंगा' सत्य ने चारू से कहा।

चारू के लिए यह एकदम नया अनुभव था। दुलर्भ और जीवंत दृष्य। मनुष्य के आचार व्यावहार, श्रद्धा-भक्ति, दिनचर्या और कैम्प अनुशासन के बीच हिचकोले लेते अनेक सवाल और बवाल। पर इन सब में भी एक अद्भुत सह-अस्तित्व की भावना।

खूब घूमी चारू। कभी किसी कैम्प में तो कभी किसी कैम्प में। माइक पर मंत्रोच्चार, भजन और उद्घोषणाओं की त्रिवेणी प्रवाहित थी। 'काली सडक पर ठहरे मनमोहन वैश्य, भूले भटके शिविर में आ कर अपने मामाजी से मिलें जो गाजीपुर से आए हैं। रामघाट के पास तीन साल की एक बच्ची मिली है जो अपना नाम बेबी बताती है। उसके माता-पिता लाल सड़क पुलिस चौकी से उसे ले जाएँ।

'कुम्भ के शुभ अवसर पर पंडाल नंबर ११ में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन है। आप सब महानुभाव पधार कर कविता का आनन्द लें।'
'सांस्कृतिक पंडाल में आज साम ऊसा नारायण का नाच होगा सभी आमंत्रित हैं, सब का स्वागत है।'

हर भाषा का भजन सुनने को मिल रहा था। मासी के कैम्प में भजनों के साथ-साथ भक्त और भक्तिनें नाच भी उठतीं 'मेरे श्याम नूँ रास विच नच लेन दे। नी, मेरे श्याम रात में भोजन के बाद अपनी-अपनी रजाइयों में समर्पित होने के बाद सत्संगिनें आध्यात्मिक गीतों की ओर उन्मुख हो जातीं 'मैं भूल गई दाता, मैं भूल गइयाँ, धर्म दा राह छड ओझड पइयाँ।

आज दी न भूली मैं कल दी न भूली। जनम-जनम दी आई हा रूदली।
सोच समझ कर देख ले मनुआ। सब नाल किसी दे न जइयाँ।'
कभी कोई देवी माता का मनचला गा उठता 'ट्रिं ट्रिं, मन्दिरों से मां ने टेलीफोन किया है।'
जिसे राम की धुन लागी वह राम नाम में लगा है। यानी हर एक के लिए वहां कार्यक्रम था। चुनाव की विशाल स्वतन्त्रता।

चारू को लगा बूढों के लिए रिलैक्स करने का इससे अच्छा स्थल हो ही नहीं सकता। सिर पर थी स्वामी जी की दी हुई सुरक्षा, पेट में भंडारियों का बनाया भोजन, स्नान को गंगातट और अंटी में रूपये जो परिवार ने पुण्य कमाने के नाम पर जी खोल कर दे रखे हैं। सबके चमकते चेहरे देखकर लगता था इनके लिए धर्म एक पिकनिक है और पुण्य एक गंगाजली जो ये अब अपने साथ ले जाएँगे, यादगार की तरह।

लेकिन सामान्य तीर्थयात्रियों का जीवन इतना सुखद नहीं बीत रहा था। मौनी अमावस्या की पूर्व साँझ से ही आकाश में बादल घिर आए थे। गलन बढती जा रही थी। शाम चार बजे से ही अँधेरा हो चला। लेकिन बिगडते मौसम और ठंड को धता बताते जनसमूह अभी भी उमडे चले आ रहे थे। कभी-कभी कोई यात्री दिखाई देता, पीठ पर अपनी वृद्ध, जर्जर दादी को लाद कर लगता श्रवण कुमार का छोटा भाई। कहीं कोई औरत अपने नन्हें से शिशु को आँचल की गर्मी में छिपाए पैदल चली आ रही थी। सबके मन में एक ही आस थी, मौनी अमावस्या पर बस एक डुबकी लगा लें, इन्हें पूर्ण विश्वास था कि अब तक के इनके जीवन में जो कुछ अधम-विश्राम हुआ है वह संगम की धारा में सुबह धुल-पुंछ कर उन्हें एक नया जीवन प्रदान करेगा और वे स्वर्ग में एक सीट आरक्षित करवा लेंगे।

चारू भारतीय जनमानस की आस्था के स्पर्श पाकर अभीभूत थी तो दूसरी तरफ साधू महात्माओं द्वारा परोसी जा रही पाप-पुण्य की इतनी तुरत-फुरत भुगतान पद्धति की स्थापना पर विस्मित। हर अखाडे का अपना सरंजाम। हर संत की अपनी पताका। बहुत से स्वामियों ने अपने-अपने बिल्ले जारी कर रखे थे। व्यवस्था पक्की। उनके मैनेजर चुस्त घूम रहे थे। बिना बिल्लेवाला आदमी घुस नहीं सकता था। सबके अपने चौकीदार। अखाड़े के पहरेदार हनुमान मुद्रा में गदा हाथ में लिए हुए खडे थे। नागा साधुओं के प्रहरी बरछे लिए हुए।

महंतों के शरीर पर चर्बी के टायर चढे हैं, सन्यासी कृशकाय हैं। स्त्री साधुओं के चेहरे पर पुस्र्षों से ज्यादा तेज है। ब्रह्मकुमारी आश्रम में खूबसूरत कमसिन लड़कियों को योगिनी वेश में देखकर चारू को पीड़ा और जिज्ञासा दोनों हुई, बिना गहरे आघात के इस उम्र मेें कोई सन्यास नहीं लेता। पर यह सब पहली मुलाकात में पूछा भी नहीं जा सकता।

सबसे ज्यादा ग्लानि अपने ऊपर हो रही थी चारू को। उसी के नगर में इतना जन-समुद्र उमड पडा है और वह इन सब से अनभिज्ञ रही है। मासी न आई होती तो वह यहां झांकती भी नहीं। शायद उसके अन्दर पाप और पुण्य के सवाल अभी वैसी आँधी नहीं उठाते। उसे हैरानी थी कैसे जीवन के सबसे सूक्ष्म सवालों का इतना सरल और सार्थक कारोबार चलाया जा रहा था। अच्छे से अच्छा सैनिटरी एक्सपर्ट इस स्नान अभियान के आगे निस्र्त्तर हो जाता कि संगम में एक डुबकी न केवल इस जन्म के वरन जन्म-जन्मान्तर के पापों का मज्जन करती है। मानो एक बार आप नहा लें तो प्रतिदिन अपने आप पाप फ्लश आउट होते रहेंगे-पापों का 'सुलभ' इन्टरनेशनल इत्यादि।

मेले में विदेशी भक्तों की भी कमी नहीं। इस्कॉन का कलात्मक शिविर तो कृष्ण भक्तों से भरा पडा है। जब सूर के भजनों का कैसेट बजता है तो वे विभोर हो कर नाचने लगते लड़खड़ाने लगते हैं।

ठंड शॉल को लगातार परास्त कर रही थी। चारू ने एक जगह स्र्क कर ठेले वाले से एक कप चाय ली। उसके हाथ ठंड से इस कदर काँप रहे थे कि आधा कप चाय छलक कर फैल गई। अपने पर थोडा काबू पा उसने आश्चर्य से चाय की तरफ देखा। तभी किसी ने कहा, 'मे आय हैव द प्लेजर।'
एक विदेशी युवक था। उसने अपनी तरफ ऊंगली दिखाई, 'मी हैरी जॉन' गेरूए कुर्ते और जीन्स में वह कुछ-कुछ भव्य लग रहा था।
'यहाँ आकर कैसा लगा रहा है?'
'अच्चा, बोत अच्चा। शांति।'
'पर यहां मेले का शोर है।'
'बट देयर्स नो वायलेंस। आई फील हैप्पी हियर।'

सबका अनुभव हैरी जैसा सुखद नहीं था। उस दिन कप्तान साहब के कैम्प में चर्चा थी उस फ्रांसीसी लडकी अनातोले की जो चरस और मोक्ष के लालच में नागाओं के शिविर में चली गयी थी। एक बाबा जो काफी देर से दम लगाए बैठा था उसके पीछे पड गया। अनातोले वहाँ से बदहवास भागी तो सीधी पुलिस कैम्प में पहुँची। दो सिपाहियों के सरंक्षण में उसे उमेश तांत्रिक के शिविर में पहुँचाया गया। वह वहीं ठहरी हुई थी। गुरूजी ने उसे तत्काल कम्पोज की गोली दी, समझाया और सोने भेज दिया। दरअसल यह सारा मेला गुरू-परंपरा की स्थापना और पब्लिसिटी करता प्रतीत होता है। हर भक्त की अपने अपने गुरू में गहन आस्था। स्त्री भक्त तो गुरूओं की कृपा के लिए जान लुटाने को आतुर। मासी अपने गुरू के पास ले गईं चारू को मत्था टेकने, 'गुरूजी महराज इसे आर्शीवाद दो, बहू है आपकी।'

मासी ने पहले से समझा रखा था, चारु ने ५१ रुपये से मत्था टेका।

स्वामीजी का चेहरा तरबूज की तरह लाल था। अपने सिंहासन पर असीन वे एक बडा सा तरबूज लग हरे थे। चारू को लगा यह एक दिव्य नहीं दम्भी गुरू का स्र्प है। लेकिन वे लगातार मुस्करा रहे थे।

'पूछो, पूछो कोई जिज्ञासा हो तो पूछो' स्वामीजी ने कहा। चारू ने साहस किया, 'ये लाखों लोग अपने पाप धोने आए हैं, क्या यह एक निगेटिव एक्ट नहीं है।'

'ये पुण्य की भावना से आए हैं, इनकी भावना शुद्ध है। साधारण लोग धर्म की परिभाषा नहीं जानते लेकिन पुण्य पहचानते हैं। श्रद्धा का रूप सत्कर्म है। सत्कर्म पाजिटिव एक्ट है।'मासी असीम आदर से स्वामी जी की बात सुन रही थीं। बीच-बीच में चारू की ओर इशारा करतीं 'देख लिया मेरे गुरू महराज कितने विद्वान हैं।'

चारू ने कहा 'आपकी समस्त भक्तिनें बुजुर्ग हैं, इन्हें आप यह क्यों नही समझाते कि बेटों का विवाह करते समय ये दहेज न लें, यह भी पाप है।'

'क्या तुम्हारे विवाह में दहेज लिया गया?' स्वामी ने प्रति प्रश्न किया।

'नहीं किन्तु, किन्तु परन्तु कुछ नहीं। परिवर्तन आ रहा है, पर धीरे-धीरे आएगा। तुम्हारी यह बात गलत है कि सिर्फ बूढियाँ ही हमारे कैम्प में आती हैं। हमारे पास विचार दर्शन है। आपकी पीढी के पास धीरज की कमी है। विप्पन इनको ११ नम्बर में ले जाओ।'

११ नम्बर में स्त्री साधुओं का कैम्प था। यहां गद्दे गुदगुदे और रजाइयाँ मखमली थीं। हर स्वामिनी ने फूस की दीवार में टूथपेस्ट और टूथब्रश खोंसा हुआ और कंघा और अखबार। स्वामिनी जम्मू और पंजाब की खबरें ढूंढ कर पढ रही थीं। दो एक महिला साधू शक्ल से नई और जूनियर लग रही थीं।

चारू चुपचाप नमस्कार कर बाहर निकली। एक साधुनी उसके साथ आई। पूछने पर उसने नाम बताया 'प्रेमदासी।'

'असली नाम?'
'यही'
'आश्रमी नाम?'
'यही'
तब दो युवा साधू दौडे-दौडे आए, 'मैनेजर साहब ने बुलाया है। देशी घी का कनस्तर खोलना है।'
'खोल रहे हैं, कोई भागे नहीं जा रहे।' साधुनी ने कहा।
'जल्दी चलो, यज्ञ की तैयारी करो जा कर।' साधू डपट कर चले गए।

साधू स्त्री ने दाँत पीसे, सब काम हमारे मत्थे डाला हुआ है। इनको तो चिलम चढ़ाकर गरमी आ जाती है, हमारा पूरा मरन है यहाँ। हम तो टेन्ट नं० ६ में हैं। रात में बालू की ठंडक से हड्डी, हड्डी जम गई है। घर से दूर आकर मिट्टी खराब किया हमने। पता चला ये स्त्रियाँ सारा दिन सेवा में लगी रहती हैं। इनकी दिनचर्या जो प्रयाग मे है वही हरिद्वार में, वही ऋषिकेष में। तारा डूबने से पहले स्नान करती हैं। स्वामी जी देर से उठते हैं। उनके उठने तक पूरे आश्रम की सफाइयाँ, हवन की तैयारियाँ, दूध चाय का इन्तजाम।

'कितना दूध पी लेते हैं स्वामी जी?' चारू ने शरारत से पूछा।
'पाँच सेर। एक बार में सेर पक्का पीते हैं।'
'कहां से आता है?'
'भगत लोग दे जाते हैं।'
'रोज?'
'किसी दिन कम आए तो राम घाट पे घोसी है।'
'बाजार की तरफ घूमी हो बडी रौनक है?'
'नहीं सेवा से फुर्सत नहीं।'
'रामलीला देखी? मुरारी बाबू का प्रवचन सुना?'
'नहीं सेवा जो करनी हुई।'
'इतनी सेवा करनी पडे तो शादी क्या बुरी थी?' चारू ने कहा।
'आदमी किसी काम का होता तो यहां क्यो आती?'
'पति-सेवा और संत सेवा में कोई फर्क दिखता है?'
'बिल्कुल। स्वामीजी कभी हाथ नहीं उठाते, मीठा बोलते हैं। आदमी बात-बात पर लडता था। कौन जनम भर मार खाता। यहां चैन है।'
'घर कब छोडा?'
'ग्यारह साल पहले।' तभी अन्दर से स्वामी जी की आवाज आई 'प्रेमदासी।'
कंपकपाती ठंड के बावजूद मेला क्षेत्र में ठंड कुछ कम लगती थी। इतने इंसानों की एक दूसरे से निकटता, उनकी सांसो की गर्मी और असंख्य बल्बों की रोशन-गर्माहट।

इस बीच शिविर में एक भव्य सी युवती आई स्वामी मौन सुन्दरी। उसने ३१ साल की ही उम्र में संसार से विरक्त हो कर सन्यास ले लिया। लेकिन अभी वह पूरी तरह से सम्प्रदाय में समायी नहीं है। बीच-बीच में विदेश चली जाती है। उसका गेटअप प्रभावशाली था। नौ मीटर का गेरुए पालियेस्टर का गाउन देखने में ड्रेसिंग गाउन ज्यादा लग रहा था। बालों में लाल मेंहदी। होंठों पर नेचूरल शाइन कलर। नाम के विपरीत वह मुखर सुन्दरी निकली। चारू से बहुत जल्द खुल गई। उसके बोलने का अंदाज बडा आकर्षक था हालांकि बातों में परिपक्वता की कमी। आपका ध्यान जरा भी भटका कि वह कहती 'यू आर नॉट वाइब्रेटिंग विद मी।'

उसने बताया 'आय एम स्टिल सर्चिंग ए परफेक्ट गुरू। आय हैवन्ट फाउंड।'
'आप अपना समय नष्ट कर रही हैं।' चारू ने कहा। उसे अफसोस हो रहा था कि इतनी अच्छी महिला एक व्यर्थ तलाश में तल्लीन है। इसे तो जिन्दगी के बीचोंबीच होना चाहिए।'
मौन सुन्दरी ने कहा 'कल मौनी अमावस्या है। हम सब को मौन रहना है। आज सारी रात मैं बोलूँगी। तुम सुनोगी।'
'एज लांग एज आय वाइब्रेट।'
'अच्छे हैं, पर अहंकारी।'
'इससे पहले कहाँ थी?'

'स्वामी रामानन्द की साथ। वे भी अच्छे थे पर उन्हें भी देह की दानवी भूख थी। टेल यू। एक रात मैं उन्हें जे कृष्णमूर्ति की फिलासफी समझा रही थी। मुश्किल से नौ बजे थे। उन्होंने मेरे चोंगे में हाथ डाल दिया। बाय गॉड। मैने प्रोटेस्ट किया तो बोले 'कौन देखेगा। किसी को पता नहीं चलेगा।'

मैंने उन्हें बदनामी का डर दिलाया। वे हंसे, 'कैम्प में सब बुढिया भक्तिन हैं, खा पी कर सोई हैं।' मै विरक्त हो गई 'मेरा शरीर मेरा है, मै इसका बदइस्तेमाल नहीं होने दूँगी।'
'क्या फर्क पडता है, जब तुम कुंवारी नहीं हो' कह कर वे मुझ पर हावी हो गए।'
'उस अनुभव के बाद तो मैं सिनिक हो गई। कनखल में उन्हें ढूंढती मैं गाती रहती 'कहाँ गिराई चढ्डी मैंने, कहाँ गिराई चोली मैं तो राम नाम मय होली।'
चारू विस्मित श्रोता बनी रही, स्वामी मौन सुन्दरी ने कहा, 'जानती हो, एक मिनट को यहाँ बत्ती चली जाती है तो कितने बलात्कार हो जाते हैं इस बीच।'
'यू आर ऑब्सेड' चारू ने कहा। उसे यह मौन नहीं मुखर सुन्दरी लगी।
'यू आर कैलस' स्वामी मौन सुन्दरी ने कहा।

मौनी अमावस्या पर भीड उमड़ी और घटाएं घुमड़ीं। आठ बजते तक बारिश शुरू हो गई। जो बारिश से पहले नहा लिए, वे तो सकुशल अपने कैम्प लौट आए। मुश्किल बाद में जाने वालों की हुई। चारू सुबह कैम्प के नल पर नहा ली। वह भी गंगा जल ही था आखिर। पर तट घूमने का मोह व नहीं छोड सकी। एक की जगह दो-दो शॉल बदन पर लपेट कर वह जाने लगी तो चरनी मासी ने टोका, 'इकल्ली कहाँ जा रही है, गँवा जाएगी।'
'मैं सुई नहीं मासी।'
'मैं चलां नाल।'
'ना बाबा, आपसे चला जाता नहीं, गिर जाएँगी।'
मौन सुन्दरी ने साटन की रजाई से अपना सिल्की चेहरा निकाला, 'मैं चलती हूँ ठहरो।'

उसने झटपट गाउन पहना, लम्बे बालों की उँची नॉट बनाई, गेरुए रंग की चप्पलें पैर में डाली और तैयार हो गई। सन्यास में भी वह विन्यास के प्रति सचेत थी।

भक्तों के उमडते रेले देख कर वह प्रफुल्ल हो गई, 'देखो चारू मैं इस प्रोफेशन को क्यों पसंद करती हूँ। इस करोड की भीड़ में अगर पांच लाख भी मेरे अनुयायी बन जायं तो मैं दूसरी रजनीश मानी जाऊँ। है इतनी सम्भावना और किसी पेशे में ?'
'अध्यात्म को पेशे के रूप में लेना गलत है।' चारू ने आहत हो कर कहा, 'यह तो अन्दर की आस्था से विकसित होने वाली वैचारिक, आत्मिक सामर्थ्य है।'
'शिट, इट्स ए प्रोफेशन। तुम यहाँ रहती हो और तुम्हें खबर ही नहीं। यह इस समय मिलियन डॉलर प्रोफेशन है।'

ज्यादा बात करना सम्भव नहीं था। भीड़ उन्हें कभी आगे तो कभी बगल में धकेल रही थी। लोग जैसे एक धुन में बढ़े चले जा रहे थे।

रास्ते में पुलिस के पथ-प्रदर्शकों की मदद से वे काफी आगे सही दिशा में पहुँच गई। अद्भुत दृश्य उपस्थित था, एक पसारा-स्नान- ध्यान- अर्पण- तर्पण- दान- पुण्य का। एक नाववाले से पूछा। उसने किराया बताया पन्द्रह रुपये सवारी। चारू ने कहा, 'नगरपालिका ने तो तीन रुपये सवारी रेट बनाया है।'

'तीन रुपये तो सिपाही ले लेते हैं।' नाव वाले ने कहा।

नाव यात्रियों से खचाखच भरी थी। वे दोनों भी सवार हो गईं। बारिश अब भी हो रही थी। एक तरह से सबका स्नान हो रहा था फिर भी संगम की धारा का स्पर्श पाने को आतुर थे स्नानार्थी।

नहा कर गीले कपडों में ही सब नाव पर सवार हो गईं। सबने अपनी गंगाजली भी संगम जल से भर ली। कृशकाय मल्लाह पूरी ताकत से नाव खे रहा था लेकिन नाव का संतुलन गड़बड़ा रहा था।

उन्होंने देखा स्त्रियाँ मौन भाव से बैठी थी, सबकी मुख मुद्रा शान्त, अविचलित।

अभी तट दूर ही था कि नाव एक ओर बिल्कुल ही झुक आई। लगा कि जल समाधि मिलने में बस क्षणांश का ही विलम्ब है।

मौन सुन्दरी और चारू के मुँह से चीख निकली 'बचाओ, नाव डूब जायगी भैया।' मल्लाह अपने दोनों पैरों की बीच वृहत्तर अंतराल दे दोनों ओर के चप्पू चला रहा था। शेष स्त्रियाँ कैसे बोलें, उन्होंने मौनव्रत धार रखा था इस घड़ी। पर उनकी आँखों में दहशत उतर रही थी।

मौन सुन्दरी नाव में खडी हो गई, 'अरे कोई है, नाव डूब रही है, मर जाएँगे हम सब लोग।'

स्त्रियों ने त्योरी चढ़ा कर इन दोनों महिलाओं की ओर देखा। शोर मचा कर ये अपने प्रति पाप का प्रयोजन जुटा रही थीं। साथ ही उनके व्रत में भी विध्न डाल रही थीं। जो स्त्रियाँ उठंग छोर पर आसीन थीं, आग्नेय दृष्टि से उन्हें देख रही थीं।

तभी संकट पहचान कर रिजर्व पुलिस की मोटर बोट उनकी नाव के साथ आ सटी। सिपाहियों ने सहारा दे कर उभी सवारियों को मोटर बोट में पहुँचाया। दो वृद्धाएं पानी में फिसल गई थीं। उन्हें भी बचा लिया गया।

रिजर्व पुलिस की मोटर बोट बिना रोक टोक किनारे पहुँच गयी।

चारू ने देखा सभी सवारियाँ एक दूसरी के गले लग कर रो रही थीं, मौन रोदन, जिसमें शब्द की जगह सिसकियाँ थीं, अश्रु की जगह आँखों में भय। चारू ने खैर मनाई कि मासी बारिश के पहले आधी रात के मुहूर्त में ही स्नान कर आईं। वे साथ होतीं तो दहशत से अधमरी हो जातीं।

मौन सुन्दरी रास्ते भर वापसी में स्त्री स्नानार्थियों की मूढ़ता और निरीहिता पर खीझती रही।
'हैरानी तो यह है कि यह इन स्त्रियों का स्थायी भाव नहीं है। अपने घरों में ये अपने बेटे-बहुओं को खूब डपटती होंगी, पातों-पोतियों को घुड़कती होंगी पर इतनी सारी अग्निमुखी,उग्रमुखी औरतें, संतो के आदेश पर होंठ सिल लेंगी, जान निकल जाय पर बोलेंगी नहीं।

लौट कर शिविर का भोजन रोज से स्वादिष्ट लगा। चार-पाँच घन्टों की कवायद जो हो गई। राजमा, गोभी मटर की सब्जी और गाजर का हलवा बना था।

चारू से अलथी-पलथी मर कर नहीं बैठा जाता। जैसे ही उसने कौर तोडा, खाना परोसने वाले सेवादार ने डाँटा, 'उल्टे पांव पंगत में बैठी हो, कहाँ से आई हो। भोजन का कायदा नहीं मालूम।'

'पैरो में दर्द है, पलथी नहीं लगती।'
पास बैठी बलिष्ठ औरत ने झट उसके पांव खोल पालथी लगा दी, 'नहीं उलटे पांव पंगत में नहीं बैठ सकते।'
इस मौनी अमावस्या का महात्म्य और भी बढ गया क्योंकि यह सोमवार को पडी, सोमवती मौनी अमावस्या।

अगले दिन का तुमुल नाद पिछले दिन के मौन का उपहास करने लगा।

गौरां ने सवेरे ही विलाप करना शुरू कर दिया, 'हाय नी मैं मर जावां, कल नहां दे वेले कोई मेरी कलाई से कड़ा उतार कर ले गया। पूरे चार तोले दा सी।'

सत्या और गौरां का दिन रात का साथ था। दोनों होशियारपुर की थीं।

'तेरे हाथ में तो स्र्माल बंधा था। कडा कदौं पाया सी।'

'लै मैं झूठ बोल दी हं।' पानी गंदला था। रेत की दलदल में कमर तक धंस गई थी गौरां। दो आदमियों ने पकड कर निकाला उसे। कैम्प में लौट कर टोटी के नीचे नहाई।

'कल तो तूने बताया नहीं?'

'संतो ने कहा था चुप रहना, किद्दा दसदीं।'

सबने हिसाब मिलाया। सबके चेहरे पर बदहवासी। पन्डे से लेकर नाव वाले तक ने लूटा, बचा खुचा गंगा मैया ने। डुबकी लगाई, गले से कंठी गायब। कहाँ गई, कुछ खबर नहीं। कोई अचानक से उतार ले गया। हवा से भी हलका हाथ रहा उसका। रपट क्या लिखाएँ। कुछ पता हो तब न। कहाँ गिरी, किसने छीनी। करमां दियाँ गल्लां। लाल सड़क पर स्वामी सुरेशानन्द के शिविर के बाहर एक औरत बिलख-बिलख कर रो रही हे। नाम अमरो, जिला जालौन। पति साथ आया था। कल की धकापेल में बिछुड गया। जमां पूंजी उस उसी के पास है।

एक सिपाही उसे भूले भटके शिविर में बैठा आया। लाउडस्पीकर पर उसके पति के लिए मुनादी करवानी थी। 'एनाउन्सर ने पूछा, 'आदमी का नाम?'

'हाय दैया कैसे बोलें।'

'नाम नहीं बोलोगी तो बाजे पर क्या बोलेंगे हम, कौय आय।' अमरो धोती का सिरा दाँतो से दबा लेती है।
'अच्छा नाम नहीं ले सकती तो कुछ अता-पता दो।'
अमरो आसमान की ओर इशारा करती है।
'सूरज'
'ना'
'चाँद'
'उई दैया।'
नाम बोला जाता है चंदादीन।
दो दिन बीत गये। अमरो का पति नहीं आया। प्रशासन का कारिन्दा कहता है 'रेल का किराया देंगे, घर चली जाओ।'

'नाहीं। जब तक बुलाने नहीं आएँगे वह नहीं जायेगी, सात फेरे वाली हैं हम, कोई नचनी पतुरिया नहीं। गंगा मैया हमार भतार भेजें नहिं हम ऐहि मां कूद कर पिरान दे दैवे।'

न जाने कितनी अबोध लडकियाँ पाई गइ हैं कल। गंगा स्नान के बहाने घरवाले लाये थे घर से, और छोड गए मंझधार। जल पुलिस ने बताया- 'बाइस'।

ये सब पीड़ा के प्रसंग हैं। इनके सही आंकडे और ब्योरे प्रशासन की फाइलों में हैं।

मासी की ऐनक बन कर आ गयी है। सत्य के स्कूटर पर वापस घर जाते समय चारू सोच रही है, इतना विशाल मेला क्या कुछ भी कलातीत सिखा पायेगा या सब वैसे के वैसे अपने संकीर्ण सरोकारों में वापस हो जाएँगे। जो झूठ बोलता था, बोलता रहेगा, जो घूस लेता था, लेता रहेगा, जो मिलावट करता था, करता रहेगा, जो चोरी करता था, करता रहेगा,और जो कामचोरी करता था करता रहेगा। औरतों की जीवन में इस एक डुबकी से क्या हो जायेगा। उनकी हालत बदलेगी? गंगामाई में पाप सचमुच धुले या यह भी एक सरलीकरण है जिसकी स्वीकृति में ही फिलहाल निष्कृति है।



कथाकार ममता कालिया की प्रत्येक रचना पर उनकी रचनाशीलता के हस्ताक्षर रहते हैं। संवेदना की थाह लेने और भाषा में उसे संभव करने का उनका अपना एक अनूठा ढंग है।  अभी हाल ही में उनका उपन्यास आया है‘कल्चर वल्चर’ । इस उपन्यास के संदर्भ में  वह कहती हैं, ‘कला, साहित्य व संस्कृति आज सरोकार न रहकर कारोबार बनते जा रहे हैं और इसके प्रबंधक, कारोबारी। इनके हाथों में संस्कृति, विकृति बन रही है और साहित्य, वाहित्य।’
 अगर आपने यह उपन्यास पढ़ा है और कुछ सवाल आपन मन में हैं ताे अपने सवाल आप हमारे  फेस बुक पेज  में भेज सकते हैं। 
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