कांथा से सजिए और सजाइए- डॉ अनुजा भट्ट

 


कांथा कढ़ाई का प्राचीन शिल्प बंगाल के गांवों से होता हुआ अब पूरी दुनिया में अपनी जगह बना रहा है। कांथा की कढ़ाई की कहानी आजकल के फैशन ट्रैंड में खूब सुनी जा रही है।   फैशन के मुरीद इसके बारे में जानना चाहते हैं, क्योंकि आज का दौर वोकल फॉर लोकल का है। पुराने समय में कांथा बनाना न केवल एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति थी, बल्कि इसमें प्राकृतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रतीकों का भी प्रयोग सहजता से किया जाता था। चाहे शादी ब्याह हो या जन्म का मौका या फिर सुनी सुनाई पौराणिक कहानियां । सब को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति मिलती रही।कमल, मछलियां, पक्षी, सूरज,चांद तारे, फल फूल, राधा कृष्ण,ज्यामितिक आकृतियां प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत थीं। मूल रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले रंग नीले, हरे, पीले, लाल और काले थे।"

यह देखना अपने आप में बहुत अच्छा है। हथकरघा शिल्प के पुनरुद्धार से वैश्विक मंच पर भारतीय शिल्प कौशल को न केवल  प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा बल्कि इसके साथ ही ग्रामीण गांवों में लाखों कारीगरों और बुनकरों को मदद भी मिल सकेगी।

बंगाल एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने सदियों पुराने शिल्प के लिए जाना जाता है जिसमें कांथा भी शामिल है।

 यह कढ़ाई का एक रूप है। वैदिक साहित्य में भी इसका उल्लेख है। आधुनिक समय के उभरते फैशन में यह मजबूती के साथ टिका हुआ है और फूल की तरह खिल रहा है।

 तो फिर यह कांथा कढ़ाई क्या है और इसने इतनी लोकप्रियता कैसे हासिल की?

कांथा के जन्म की कहानी सदियो पुरानी है। इसको बनाने के पीछे मकसद कोई कलात्मक चीज बनाना नहीं था बल्कि यह आम आदमी की जरूरत था। बंगाल के अलावा राजस्थान और बांग्लादेश में भी यह बनाया जाता रहा है। पहले जब यह बनाया जाता था तो कांथा कढ़ाई का प्रयोग बार्डर बनाने के लिए किया जाता था। बार्डर यानी सीमाएं। इसके लिए धागे की मोटी सिलाई की जाती थी जिसमें एक टांके और दूसरे टांके के बीच में थोड़ा अंतराल होता था। फिर साड़ी में जो छपाई होती थी उसी के ऊपर इसी तरह से मोटी सिलाई की जाती थी। जिससे डिजाइन उभर जाता था। तब इसका इस्तेमाल दरी, बिछावन और रजाई के रूप में होता था। इसे रिसाइक्लिंग भी कह सकते हैं। इसके लिए इस्तेमाल की गई साड़ियों और धोती का प्रयोग होता था। आज भी गांव में इसे इसी तरह से बनाया जाता है।

धीरे-धीरे यह एक शिल्प के रूप में विकसित हुआ क्योंकि उन्होंने अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं बनाना और टांके के साथ छोटे-छोटे सजावटी काम करना  भी शुरू कर दिया था।   उनके इस काम से प्रभावित होकर कई डिजाइनरों ने उनके साथ काम करने का नन बनाया और इस तरह सादा कांथा डिजाइनर कांथा में बदल गया। आज कांथा की बेडशीट बेडकवर साड़ियां,ब्लाउज जैकेट, पर्दे ,पर्स, स्कार्फ शॉल मफलर, कुर्ते लंहगा, स्कर्ट के अलावा सजावट की कई चीजें जैसे टेबल क्लाथ टेबल कवर, रनर, कुशन कवर, दिवान सेट बन रही हैं। रंगों, शैलियों, बनावट और पैटर्न के संयोजन पर लगातार काम हो रहा है।

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ग्लास से बदलेंं घर का लुक-डॉ. अनुजा भट्ट

 


घर के इंटीरियर में अब बाजी मारी है ग्लास ने। अभी तक यह मुहावरा ही था कि घर शीशे जैसा चमकना चाहिए  पर अब  यह हकीकत में बदल चुका है। घर की साज सजावट में ग्लास का इस्तेमाल अब  खिड़की , सीढिय़ों, दीवारों और दरवाजों  र दस्तक देता  हुआ फर्नीचर की दुनिया में कदम रख चुका है। जी हां बाजार में ग्लास के फर्नीचर की डिजाइनर रेंज मन को लुभा रही है। ग्लास का चलन बड़ी तेेजी से बढ़ा है। लिविंग रूम, डायनिंग रूम सभी जगह इसकी चमक है कहीं ग्लास रैक है तो कहीं मल्टी पर्पस टेबल ।

ग्लास की खासियत ये है कि ये एक अनक्लटर्ड लुक के अलावा घर में ज्यादा जगह का अहसास भी करवाता है। यानी अपने घर को एक रॉयल लुक देने के लिए ग्लास का फर्नीचर एक सही विकल्प है। ग्लास  के बढ़ते चलन की सबसे बड़ी वजह है कि इसे लगाना बहुत आसान है।  इससे एक कलात्मक और परंपरागत  छवियां दोनों साथ साथ दिखाई देती हैं। साथ ही धूप  की रोशनी सीधे अंदर आती है, जिससे अंधेरा नहीं रहता और इस तरह बिजली के खर्च में भी कटौती की जा सकती है।

ग्लास लाइटवेट, ट्रांस् पेरेंट होने के बावजूद कंक्रीट की तरह बहुत मजबूत होता है। पवीबी और लैमिनेटेड ग्लासों का उपयोग आर्किटेक्ट न सिर्फ एलिवेटर्स, बल्कि फ्लोर, वॉल्स, केबिन, क्यूबिकल्स और पार्टीशन में भी कर रहे हैं जिससे छोटी जगह भी बड़ी लगती है।  ग्लास की  पारदर्शिता की वजह से बाहर के नजारों का आनंद उठाकर बोरियत तो दूर होती  है, और आप  ज्यादा सक्रिय रहते हैं।  ऐसे लोग जो खुला न चाहते हैं उनके लिए ग्लास से बेहतर  और कोई विकल्प  नहीं। ग्लास का उपयोग  ऐसी जगह  पर ज्यादा कारगर होता है जहां धूप  नहीं आती । 

 सवाल यह भी उठता है कि  क्या ग्लास  से आने वाली रेडिएशन नुकसानदेह हो सकती है?   आर्किटेक्ट की मानें तो, अगर ग्लास में यू फैक्टर प्रयौग किया जाए तो अंदर आते रेडिएशन से काफी हद तक बचा जा सकता है। साथ ही आजकल डबल ग्लास भी मौजूद हैं, जिनके उपयोग से कोई नुकसान नहीं  हुंचता है। ग्लास न केवल घर की सज्जा में चार चांद लगाता है, वरन एक सादगी का एहसास भी देता है। दीवारों पर ग्लास लगे होने से ठंडक और गर्मी दोनों का संतुलन बना रहता है। लिविंग रूम में रखी टेबल  पर ग्लास लगा होता है। इसमें भी अनेक लेयर्स होती हैं। ऐसी साइड व कॉर्नर टेबल भी विभिन्न आकारों में मिल जाएंगी, जो केवल ग्लास की बनी होती हैं। किचन व बाथरूम में भी ग्लास अपनी एक खास जगह बना चुका है। अब ग्लास से  पार्टीशन बनने लगे हैं। लिविंग रूम में ग्लास का पार्टीशन डाल एक से रेट पोर्शन बनाया जा सकता है। ग्लास की शेल्फ बनाकर उस  पर कलाकृतियां सजाई जा सकती हैं। ग्लास के बुक शेल्फ भी खूबसूरत लगते हैं और उससे डेकोर भी खिल उठता है। जरूरी नहीं कि ग्लास को केवल वुड के साथ ही  प्रयोग में लाया जाए। स्टोन के  पिलर्स या टेबल के नीचे लगे स्टोन के पायों के साथ भी वह बेहद अच्छा लगता है।

इंडियन ग्लास एसोसिएशन के द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक, ग्लास लगाने से बिल्डिंग की सार-संभाल में कटौती हो जाती है और सूरज की रोशनी के अंदर आने से बिजली के खर्च में भी कमी आ जाती है। इसके अलावा काम करने वाले लोगों को घुटन का एहसास नहीं  होता। गर्म मौसम में बाहर से आने वाली गर्म  व  सर्दियों में ठंड को अंदर आने से इससे रोका जा सकता है। ग्लास और मैटीरियल की तुलना में सस्ता और पूरी तरह से रीसाइकल होने वाला होता है। 

इसकी खासियत है कि इसे प्लेन के साथ सतरंगी रंगों से सजा सकते हैं। फिर चाहे खिड़कियों के पैनल हो या फिर घर में दीवार की शोभा बढ़ाती तस्वीर। अनेक रंगों में उपलब्ध होने के कारण ग्लास हर तरह के डेकोर के साथ मैच करता है। 

 ग्लास  पर जब रोशनी पड़ती है तो अनेक रंग व शेड कमरे में बिखर उठते हैं। इनमें कुछ न कुछ तो खास है। बेहतरीन क्लास और संजीदगी का  पैगान देते स्टाइलिश गोबलेट और ग्लास आप के डेकोर डिजाइन में चार चांद लगाने का काम करते हैं।  साजसज्जा के अलावा क्राकरी में भी  डिजाइनर ग्लास , वाइन ग्लास, ब्रेंडी और मार्तिनी ग्लास, एलिफेंट हेड ग्लास और डेकोरेटिव कोरल कलेक्शन  की मांग बढ़ी है। देखने में चांदी की तरह है लेकिन उसकी चमक बरकरार रहती है। वास्तव में जो फिनिश कांसे को दी जा सकती है वह इन्हें ज्यादा आकर्षक और रखरखाव की दृष्टि से बढिय़ा बनाती है। भारत में वरसाचे, रोसेंथाल, बलगारी, रॉयल डोलटन, आईवीवी और मर्डिन्गर जैसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय ब्रैंड्स  को चाहनेवालों का संख्या बढ़ती जा रही है। इन दिनों लम्बे, ब्रॉड और स्लीक ग्लास की काफी मांग है। ग्लास और क्रिस्टल मिक्स में बढिय़ा फिनिश के साथ तैयार इन स्टाइलिश ग्लासवेयर की कीमत 1500 रु ए से शुरू होती है और यह 18000 रुपए प्रति पीस तक जा सकती है। 

कुछ काम की बातें

  • अलग-अलग स्टाइल के पॉट्स या लैंप  लेकर आप  होम डेकोर को अपने अंदाज में तैयार कर सकते हैं। 
  • दीवारों या दरवाजों  र लगी स्टेन ग्लास की  पेटिंग मेहमानों का ध्यान आकर्षित करती हैं। 
  • ग्लास की कलाकृतियाँ घर के किसी भी कमरे में लगाई जा सकती हैं। 
  • लटकते हुए ग्लास पैनल की फॉल्स सीलिंग का चलन भी इन दिनों खूब बढ़ गया है।
  • खिड़कियों  पर भी पेंट किए या टिनटेड ग्लास लगाए जा सकते हैं। 
  • ग्लास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस पर फ्लोरल से लेकर ज्यामितीय डिजाइनों को खूबसूरती से उकेरा जा सकता है। 
  • ग्लास के फ्रेम हों या ग्लास की मूर्तियाँ, घर में रखी अच्छी लगती हैं। 
  • ग्लास के डेकोरेटिव  पीस फिर चाहे वह चैस बोर्ड हो या झूमर या फिर दीवार  पर लगे पैनल, घर के डेकोर को एक शानदार टच  प्रदान करते हैं। 
  • घर के इंटीरियर में  जब भी ग्लास का उपयोग करें, यह ध्यान रखें कि दीवारों व फर्नीचर का रंग बहुत ज्यादा डार्क न हो। 
  • व्हाइट कलर या पेस्टल शेड्स के साथ इसका इफेक्ट बहुत बढिय़ा आता है। 
  • वुड से ज्यादा ग्लास इंटीरियर के साथ सेरेमिक या मार्बल का ही उपयोग करें। 
  • इसे साफ करने के लिए साबुन के  पानी से कपड़ा मारें व पौछ दें।


फैशन की दुनिया में भी सजा देवी देवता का दरबार

 


 


अनुजा भट्ट

अमूमन अध्यात्म और फैशन को एक दूसरे का विरोधी माना जाता है पर फैशन भी अध्यात्म से ही प्रेरणा लेता है। इसलिए दुनियाभर में भारत की कला अपना एक विशेष स्थान रखती है। फैशन और अध्यात्म कैसे एक साथ जुड़ जाता है यह देखना बहुत दिलचस्प है।

 आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति शहर के पास स्थित तिरूमाला और श्रीकालहस्ती नामक  मंदिर हैं। आप में से बहुत सारे लोगों ने इस मंदिर के दर्शन किए होंगे। यहां का प्रसाद चखा होगा। ये मंदिर स्वर्णामुखी नदी के तट पर बसा है। स्वर्णामुखी नदी पेन्नार नदी की ही शाखा है। दक्षिण भारत के तीर्थस्थानों में इस स्थान का विशेष महत्व है। लगभग 2000 वर्ष पुराना यह मंदिर दक्षिण कैलाश या दक्षिण काशी के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के पार्श्व में तिरुमलय की पहाड़ी दिखाई देती हैं । इस मंदिर के तीन विशाल गोपुरम हैं जो स्थापत्य की दृष्टि से अनुपम हैं। मंदिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो अपने आप में अनोखा है। यहां भगवान कालहस्तीश्वर के संग देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी स्थापित हैं। मंदिर का अंदरूनी भाग ५वीं शताब्दी का बना है और बाहरी भाग बाद में १२वीं शताब्दी में बनाया गया है। यह मंदिर राहुकाल पूजा के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।

 

 इस स्थान का नाम  जीव जन्तु और पशु के नाम से  है - श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प तथा हस्ती यानी हाथी के नाम पर किया गया है। ये तीनों ही शिव के  भक्त थे और उनकी  आराधना करके मुक्त हुए थे। इसलिए इस जगह का नाम श्री कालाहस्ती है। एक जनुश्रुति के अनुसार इस तपस्या में मकड़ी ने शिवलिंग पर जाल बनाया, सांप ने लिंग से लिपटकर आराधना की और हाथी ने शिवलिंग को जल से अभिषेक करवाया था। यहाँ पर इन तीनों की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। श्रीकालहस्ती का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार एक बार इस स्थान को देखने अर्जुन भी आए थे और उन्होंने यहां तपस्या भी की। इस स्थान पर भारद्वाज मुनि के आगमन का भी संकेत मिलता है।  कणप्पा नामक एक स्त्री ने यहाँ आराधना की थी।

 फैशन की दुनिया में भारत में कलमकारी को लेकर जिन जो स्थानो की बात होती है उसमें से एक स्थान यह भी है और दूसरा स्थान है मछली पट्टनम। मछली पट्टनम पर चर्चा बाद में करूंगी। कलमकारी की पहचान इन्हीं दो स्थानों से है। श्रीकालहस्ती कलमकारी का भी तीर्थ है। यहां के हस्तशिल्प में मंदिर की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। देवी देवता के चित्र कपड़े पर उकेरे जाते हैं। इन देवीदेवता में शिव के साथ और भी कई देवी देवता को शिल्प कार अपनी कला में व्यक्त करता है। शिव पार्वती के साथ राधा कृष्ण हैं तो बुद्ध भी है। जिस तरह गणपति कलाकार को आकृष्ट करते हैं वैसे ही गौतम बुद्ध की ध्यानमयी आंखें भी। दुर्गा के नेत्र अलग अलग तरह से अभिव्यक्त  पाते हैं।

नए जमाने की भारतीय महिलाएं, परंपरा और फैशन और आधुनिकता को एक साथ स्वीकार करती है। इसके लिए वह प्रयोगधर्मी कलाकार के महत्व देती है। कलाकार भी अपने शिल्प में अपनी लोककथाओं, पौराणिक पात्रों मिथकों को जोड़ते हैं क्योंकि यह हमारे अवचेतन में हमेशा रहते हैं। इसके जरिए डिजाइनर दुनिया के और तमाम डिजाइनरों  पर हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ने में भी सफल हो जाते हैं।  संस्कृति और कला को वह अपनी फैशनेबल शैलियों के एक साथ फ्रेम करते हैं। यही कारण है कि फैशन की दुनिया में भारतीय कला  अपनी लुभावनी सुंदरता और बहुमुखी प्रतिभा के लिए बहुत सराही जाती है।

 कृष्ण रास-लीला, पार्वती, विष्णु, श्री जगन्नाथ जैसे भारतीय देवी-देवताओं के सुंदर रूपांकनों को चित्रित करने के  महाभारत और रामायण से कथा को दृश्य रूप में चित्रित किए जाते हैं।  क्या हम सोच सकते हैं कि एक ब्लाउज भर से ही साड़ी की पूरी अवधारणा को बदला जा सकता है?  सोचिए क्या हाल के दिनों में ऐसा कोई दिन हुआ है कि आपने बुद्ध  का चेहरा,  देवी देवता के चेहरे, गणपति, शिव पार्वती कृष्ण राधा, लक्ष्मी विष्णु, जैसे कई चेहरों को ब्लाउज, कुर्ते , पैंट, पर्दे, साड़ी, बेडशीट या होम डेकोर पर नहीं देखा है? हथकरघा हो, कांजीवरम, कॉटन या जॉर्जेट साड़ी, कलमकारी डिजाइन  सभी के साथ अच्छी तरह से मेल खाते है।  क्रॉप टॉप, जैकेट, पैंट, कुर्ता और  मैक्सी ड्रेस सभी में यह डिजाइन अपना असर छोड़ते हैं।

 मेरी इन सब बातों से आपको भी यह दिलचस्पी पैदा हुई होगी कि आखिर क्या है कलमकारी। कलमकारी शब्द एक फ़ारसी शब्द से लिया गया है जहाँ 'कलाम' का अर्थ है कलम और 'कारी' का अर्थ शिल्प कौशल है। कलमकारी कला एक प्रकार का हाथ से पेंट या ब्लॉक-मुद्रित सूती कपड़ा है, जिसका उत्पादन ईरान और भारत में किया जाता है।  कई सालों से आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में कई परिवारों द्वारा इस कला का अभ्यास किया जाता रहा है। यह प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके इमली की कलम से सूती या रेशमी कपड़े पर हाथ से पेंट करने की एक प्राचीन शैली है। इस कला में डाईंग, ब्लीचिंग, हैंड पेंटिंग, ब्लॉक प्रिंटिंग, स्टार्चिंग, सफाई आदि  23 कठिन चरण शामिल हैं।

मंदिरों में इसकी उत्पत्ति के कारण यह शैली एक मजबूत धार्मिक संबंध भी रखती है। इस तरह हम देखते हैं कला का विस्तार और कलाकार के लिए यह धार्मिक स्थल भी प्रेरणा स्रोत हैं। यह हर इंसान पर निर्भर करता है कि ईश्वर को वह किस नजरिए से देखता है। मेरा मानना है ईश्वर हर कण कण में हैं।


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आपने पिता पुत्र के बहुत से संवाद सुने होंगे। पर आज मैं आपको शिव और गणेश की बातचीत बता रही हूं । पिता पुत्र संवाद भीतर कौन जा रहा है बाहर क...